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This Article is From May 12, 2016

क्या चुनावी तुलनाओं के प्रतिशोध में केरल को सोमालिया तक ले गए प्रधानमंत्री...?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 12, 2016 08:30 am IST
    • Published On मई 12, 2016 08:20 am IST
    • Last Updated On मई 12, 2016 08:30 am IST
सोमालिया ग़रीब देश है। भारत भी ग़रीब देश है। अमेरिका जैसे अमीर देशों में भी ग़रीब हैं। भारत में ग़रीब को गया-गुज़रा समझने की मानसिकता रही है। हमारी मानसिकता की यह ग़रीबी अमीर हो जाने के बाद भी दूर नहीं होती। आप साहित्य से लेकर फ़िल्म तक उठाकर देख लें। हमारे देश में ग़रीबी के प्रति सामाजिक और राजनीतिक क्रूरता का समृद्ध इतिहास मिलेगा। हम ग़रीबों का अपमान करने में माहिर लोग हैं। हम दूसरे की ग़रीबी और अपनी ग़रीबी का लाभ उठाने में संकोच नहीं करते। केरल और सोमालिया की तुलना उसी सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक परंपरा से आती है, जिसे हमने बहुत मेहनत से बचाकर रखा है, जिसे आप सामंती कहते हैं। सामंती सोच अमीर और ग़रीब, दोनों में हो सकती है। पुरुष के साथ-साथ स्त्री में भी हो सकती है। किसी की ग़रीबी को बदतर बताना सामंती सोच है।

जब आप सोमालिया से किसी राज्य की तुलना करते हैं, तो उसे सोमालिया की उस क्रूर हकीकत के सामने रख देते हैं, जिसके लिए शायद सोमालिया अकेले ज़िम्मेदार नहीं है। अफ्रीका को कौन लूट रहा है, यह बताने से यहां कोई लाभ नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केरल की अनुसूचित जनजाति के नवजात बच्चों में मृत्यु दर की तुलना सोमालिया से की है। कहा है कि इस मामले में केरल की स्थिति सोमालिया से भी बदतर है। केरल की आबादी का 1.26 फीसदी हिस्सा अनुसूचित जनजातियों का है। 36 जनजातियां हैं और इनमें से 11 की आबादी पांच सौ के करीब है। एक ही जनजाति है, जिसकी आबादी अस्सी हज़ार से कुछ अधिक है। राज्य सरकार दावा करती है कि पिछले कुछ सालों में प्रगति होने से 11 जनजातियों को अनुसूची से बाहर किया गया है।

अगर प्रधानमंत्री की रिसर्च टीम ठीक से गूगल करती तो केरल के अनुसूचित जनजाति विभाग की वेबसाइट भी मिलती, जहां जनजातियों के बारे में संक्षेप में जानकारी है। यह वेबसाइट है तो बहुत साधारण, पर पता चलता है कि 2001 की जनगणना के अनुसार इस तबके में लिंग अनुपात राष्ट्रीय औसत से बहुत ज़्यादा है। राष्ट्रीय स्तर पर 1,000 लड़कों पर 948 लड़कियां हैं, यानी काफी कम हैं। वहीं अनुसूचित जनजाति में एक हज़ार लड़कों पर लड़कियों की संख्या है 1,021...

वर्ष 1993-94 में इनके बीच ग़रीबी 37.3 फ़ीसदी थी। 1999-2000 में 24.2 फ़ीसदी हो गई। अनुसूचित जनजाति में ग़रीबी का राष्ट्रीय औसत 45.8 फ़ीसदी है। इस हिसाब से केरल में जनजाति समाज में ग़रीबी राष्ट्रीय औसत से आधी हुई।

प्रधानमंत्री ने केरल के मतदाताओं के इतने मामूली हिस्से के बच्चों की मृत्यु दर की तुलना सोमालिया से क्यों की होगी...? इस आंकड़ें तक पहुंचने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ी होगी। क्या सोमालिया के लोग केरल की अनुसूचित जनजाति की 36 बिरादरियों से मिलते-जुलते हैं...? तुलना हो सकती है, मगर कोई पैमाना तो होना चाहिए।

क्या यह तुलना इसलिए की गई, क्योंकि कुपोषण, मातृ व शिशु मृत्यु दर को लेकर कांग्रेसी और कम्युनिस्ट उनके गुजरात मॉडल को चुनौती देते थे...? क्या इसी प्रतिशोध में प्रधानमंत्री सोमालिया तक पहुंच गए...? अगर तब गुजरात का अपमान हो जाता था, तो अब केरल का अपमान क्यों न हो...?

'बिज़नेस स्टैंडर्ड' अख़बार ('न्यूज़ मिनट' ने लिखा है) तो वह आंकड़ा ले आया, जो प्रधानमंत्री की रिसर्च टीम को नहीं मिला। इसके आधार पर तो सोमालिया से भी तुलना नहीं हो सकती। अगर ऐसा है तो मामला यह होना चाहिए कि क्या प्रधानमंत्री झूठे आंकड़ों का भी इस्तमाल कर लेते हैं। अख़बार ने बताया है  केरल में प्रति हज़ार पर नवजात शिशु मृत्यु दर सिर्फ 12 है, जो भारत में सबसे कम है। केरल के जनजातीय समुदाय में नवजात शिशु मृत्यु दर 60 है। सोमालिया में एक हज़ार बच्चों पर 85 है। गुजरात में 2012 में 38 है। इसमें नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री के रूप में कार्यकाल के दौरान काफी कमी आई थी। इसके बावजूद केरल का रिकॉर्ड गुजरात से बेहतर है। गुजरात से तुलना न होने लगे, कहीं इसीलिए तो सोमालिया से तुलना नहीं कर दी...! प्रधानमंत्री की अपनी गरिमा होती है, उसका ख़्याल तो रखना चाहिए था।

प्रधानमंत्री ने भले ही केरल की आबादी के सबसे छोटे हिस्से का सवाल उठाने का प्रयास किया हो, मगर सोमालिया से तुलना कर उसके अनुपात को ज़रूरत से ज़्यादा बड़ा कर दिया। इस क्रम में सोमालिया की ग़रीबी का भी उपहास उड़ गया। केरल का तो उड़ा ही। आप जब सोमालिया का नाम लेते हैं, तो उसकी ग़रीबी की चादर पूरी दुनिया को ढंक लेती है। कुछ साल पहले वहां ढाई लाख लोग अकाल में मारे गए। सोमालिया कांग्रेस या बीजेपी सरकारों की नाकामी का नहीं, बल्कि दुनिया की सरकारों की नाकामी का चेहरा है। भारत की राजनीति का दीवालियापन कौन नहीं जानता। सोमालिया के कारण अब सोमालियापन भी देखिए।

प्रधानमंत्री चिंतित हो सकते हैं, लेकिन यही बता देते कि वह इस मृत्यु दर को कम करने के लिए क्या सोच रहे हैं। क्या किया है और क्या करने वाले हैं। अनुसूचित जनजाति बहुल वाले राज्य छत्तीसगढ़ की नवजात शिशु मृत्यु दर देख लेते। 2011 की गणना के अनुसार प्रति हज़ार शिशुओं पर 48 है। राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा है। 1961 में राष्ट्रीय औसत 122 था। क्या राष्ट्रीय स्तर पर प्रगति नहीं हुई है...? छत्तीसगढ़ से लेकर तमाम राज्यों में कुछ न कुछ प्रगति हुई है। सोमालिया के लोग गणित में काफी अच्छे होते हैं। शायद इसीलिए वहां के किसी नेता ने अपने मुल्क की हालत के लिए केरल के किसी आंकड़े से तुलना नहीं की।

यह सारी समस्या है ज़रूरत से ज़्यादा राजनीति को डेटा आधारित करने की। आंकड़े होने चाहिए, मगर होने के लिए नहीं। प्रधानमंत्री सोमालिया का ज़िक्र करने से बच सकते थे, मगर चुनाव में हो जाता है। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप तक के लिए ठीक है, मगर कोई यह न समझे कि इसके बाद राज्य सरकार अतिरिक्त क़दम उठाने वाली है या केंद्र सरकार। चुनावी राजनीति में थोड़ी किरकिरी तो सबकी हो जाती है। इसी बहाने हम जैसे लोगों को केरल की जनजाति और सोमालिया का अध्ययन करने का मौका मिला, उसके लिए प्रधानमंत्री का शुक्रिया। कई बार किसी का नहीं जानना किसी और के जानने का मार्ग प्रशस्त कर देता है।

नोट : केरल को लेकर इतना भी छुईमुई होने की ज़रूरत नहीं। वहां की राजनीतिक हिंसा की क्रूरता किसी भी राज्य से भयावह है। केवल बीजेपी और संघ ही नहीं, कांग्रेस-बीजेपी के कार्यकर्ता भी इसकी चपेट में आए हैं। यह उस पढ़े-लिखे राज्य का हाल है, जो 100 फीसदी साक्षरता का दावा करता है, मगर राजनीति में महिलाओं की भागीदारी का स्तर अन्य राज्यों की तरह ख़राब है।

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