शांतिपूर्ण तरीके से विरोध प्रदर्शन करना ग़ैर कानूनी नहीं है और न ही आतंकी कार्रवाई है. भड़काऊ भाषण और चक्का जाम करना ऐसे अपराध नहीं हैं कि Unlawful activities prevention act (UAPA) की संगीन धाराएं लगा दी जाएं. दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश का यह सार दिल्ली पुलिस के अलावा उन लोगों के सामने आइने की तरह खड़ा है जो सिर्फ इसी बात के लिए अभियान चला रहे थे कि नागरिकता कानून के विरोधी आतंकी साज़िश कर रहे थे. दिल्ली दंगों के साज़िशकर्ता हैं. गोदी मीडिया चैनलों के स्क्रीन के आगे बैठकर आपने जिन छात्रों के बारे में ये सब कहा या सोचा आज उन्हीं के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने ये टिप्पणी करते हुए करते हुए ज़मानत दे दी.
नताशा नरवाल, देवांगना कालिता, सफूरा ज़रगर, गुलफिशां फ़ातिमा, इशरत जहां, ख़ालिद सैफी, आसिफ इक़बाल तन्हा, उमर ख़ालिद को दिल्ली दंगों के कई मामलों में आरोपी बनाया गया, गिरफ्तार किया गया. अगर आप पिछले एक साल की अदालतों की टिप्पणियों और आदेशों को देखेंगे तो पाएंगे कि एक साल से यह बात कही जा रही है कि पुलिस ने कोई ठोस सबूत पेश नहीं किए हैं. सबूत न तब थे और न अब हैं. इसके बाद भी इन्हें जेल में रखने के लिए UAPA की धाराएं लगा दी गईं, ताकि ज़मानत आसानी से मिले ही न. एक साल पहले इसी जून में सफ़ूरा ज़रगर को ज़मानत इसलिए मिल गई क्योंकि सफ़ूरा गर्भवती थीं. पूरा एक साल इनका निकल गया सलाखों के पीछे. आज दिल्ली हाई कोर्ट ने नताशा नरवाल, देवंगाना कालिता और आसिफ इक़बाल तन्हा को UAPA के मामले में ज़मानत दे दी है.
दिल्ली हाई कोर्ट ने जो कहा है कि भड़काऊ भाषण और चक्का जाम करना आतंकी कार्रवाई नहीं है. क्या यह बात पुलिस नहीं जानती थी, क्या यह बात गोदी मीडिया नहीं जानता था? इन नौजवानों पर जो बीती है, उसकी भरपाई कोई नहीं करेगा. हम जानते हैं कि ज़मानत मिली है, फैसला नहीं आया है, लेकिन अदालत की कई टिप्पणियां इस बात से भरी पड़ी है कि इन पर जो आरोप लगाए गए हैं उनके ठोस साक्ष्य नहीं हैं. जिन धाराओं में गिरफ्तार किए गए हैं उसके स्पष्ट आरोप भी नहीं है चार्जशीट में.
इन अफसरों की तरक्की हो जाएगी, नेता शायद कुछ और हो जाएंगे लेकिन इन लोगों के साथ जो हुआ उसकी भरपाई कौन करेगा. दरअसल यह सवाल ही बेमानी है. किसी को पता नहीं जम्मू कश्मीर पुलिस के डीएसपी देवेंद्र सिंह के केस में क्या हुआ जिन्हें आतंकी हमले की साज़िश के तहत गिरफ्तार किया गया था. कौन सा सवाल ग़ायब कर दिया जाता है और कौन सा थोप दिया जाता है लेकिन लोग इस तरह से व्यवहार करते हैं कि पता नहीं चलता है.
इतनी यातना झेलने के बाद कोई इस तरह मुस्कुराते हुए हवा में हाथ लहरा सकता है, यह बात सभी को समझ नहीं आएगी. उन्हें तो बिल्कुल नहीं जो न पहले शर्मिंदा हुए और न अदालत के फैसले के बाद शर्मिंदा होंगे. एक तस्वीर उस वक्त की है जब नताशा नरवाल अपने पिता महावीर नरवाल के अंतिम संस्कार के बाद तिहाड़ लौटी थीं. तिहाड़ के बाहर नताशा नरवाल की मुस्काराती हुई तस्वीर उस दिन के लिए है जब वो आपके सामने होंगी और आपकी नज़र नीची. दिल्ली हाईकोर्ट की टिप्पणी सामान्य नहीं है कि नताशा पर लगाए गए आरोप आतंकी कार्रवाई की पुष्टि नहीं करते हैं. विरोध प्रदर्शन कर सामान्य नागरिक धर्म निभाने वाली नताशा जैसी लड़की को आतंकवादी बनाने की नाकाम कोशिश हुई है. आज के इस दिन को देखने के लिए नताशा के पिता महावीर नरवाल इस दुनिया में नहीं हैं जिन्हें अपनी बेटी की बेगुनाही और इंसाफ़ के सिस्टम पर यकीन था. कोविड ने जब उन्हें जकड़ा तो बेटी को उनसे मिलने के लिए ज़मानत नहीं मिली. उनके निधन के बाद नताशा को ज़मानत मिली थी ताकि वह अंतिम संस्कार में शामिल हो सके. नताशा ने ही अंतिम संस्कार किया. 32 साल की नताशा जानती होगी कि राज्य ऐसी यातनाएं न जाने कितने निर्दोष नागरिकों को देता है. वह भी उन्हीं असंख्य लोगों में से एक है. इस देश में आम नागरिकों को फर्ज़ी मुकदमों में फंसाना जितना आम है उतना दुनिया में शायद ही किसी देश में हो. फर्ज़ी मुकदमों में लोग बीस बीस साल तक जेल में रहने के बाद बरी हुए हैं. तिहाड़ के बाहर उसकी मुस्कुराती हुई तस्वीर दरअसल आपके लिए है कि इसी आसानी से किसी को भी आतंकी बना दिया जाता है. जेल में बंद किया जा सकता है. इस पर हंसने के सिवा कोई और क्या कर सकता है.
नताशा नरवाल को FIR 48 और FIR नंबर 50, में ज़मानत मिल चुकी थी. आज FIR नंबर 59 में ज़मानत मिली है. इसी FIR में UAPA की धाराएं लगाई गईं हैं. आतंक के मामले में इसकी धाराएं लगाई जाती हैं ताकि ज़मानत मुश्किल हो जाए. नताशा नरवाल, देवंगाना कालिता और आसिफ इक़बाल तन्हा को ज़मानत देते हुए हाई कोर्ट ने कहा है कि हमें यह कहना पड़ रहा है कि ऐसा लगता है कि असहमति को कुचलने की बेचैनी में राज्य की सोच में प्रदर्शन करने के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधियों के बीच अंतर की रेखा धुंधली हो गई है. अगर इस तरह की सोच को और बढ़ावा मिला तो वह हमारे लोकतंत्र के लिए एक उदास दिन होगा. कोर्ट ने कहा है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन एक संवैधानिक अधिकार है और ग़ैरक़ानूनी नहीं है. अगर उनके द्वारा किए गए कृत्य और उसके सबूत प्रत्यक्ष रूप से UAPA की धाराओं के तहत इल्ज़ाम नहीं हैं तो शांतिपूर्ण प्रदर्शन को UAPA के तहत आतंकवादी गतिविधि क़रार नहीं किया जा सकता है.
पिछले साल सितंबर में जब दिल्ली पुलिस ने 17,500 पन्नों की चार्जशीट दायर की थी तब कहा था कि चक्काजाम लोकतांत्रिक नहीं है. चार्जशीट में लिखते हुए उस अफसर ने खुद को शाबाशी दी होगी या इतिहास का डर लगा होगा कि आने वाले वक्त में जब इस चार्जशीट पर किताबें लिखी जाएंगी तो उसका नाम किस तरह से दर्ज होगा. दरअसल उसने इतना नहीं सोचा होगा. आखिर दिल्ली पुलिस ठोस सबूत क्यों नहीं पेश कर पाई? दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि नताशा के ऊपर भड़काऊ भाषण देने, चक्का जाम की प्लानिंग करने, महिलाओं को प्रदर्शन करने के लिए उकसाने जैसे आरोप लगाए गए. लेकिन अदालत को कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला जिससे पता चले कि याचिकाकर्ता ने हिंसा भड़काने की कोशिश की. आतंकी कार्रवाई की तो बात ही छोड़ दीजिए. तो यही मतलब हुआ न कि कागज कलम का इस्तेमाल कर नताशा नरवाल को आतंक विरोधी कानून की धारा में जेल में बंद किया गया.
उम्मीद है आम नागरिक जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और जस्टिस अनूप जे भंभानी का यह जजमेंट पढ़ेंगे तो इस बात के लिए शर्मिंदा होंगे कि एक कानून के खिलाफ प्रदर्शन करने के जायज़ संवैधानिक अधिकारों के लिए किसी नागरिक को इतनी सख्त सज़ा मिली. इन छात्रों को आतंकी बनाने का प्रयास हुआ. नताशा के पिता महावीर नरवाल के एक एक पल की कल्पना कीजिए जब उनकी इकलौती संतान जेल में होगी और उनकी सांसें उखड़ रही होंगी.
महावीर नरवाल को याद किए बग़ैर नताशा नरवाल की कोई कहानी पूरी नहीं होती है. न जेल की और न बेल की. कारवां-ए-मोहब्बत ने उन पर यह डाक्यूमेंट्री न बनाई होती तो आपके सामने ऐसा अद्भुत पिता होता ही नहीं. उनकी कहानी भी ग़ायब कर दी जाती.
महावीर नरवाल कभी नहीं डरे कि बेटी को पुलिस ले गई. 13 साल की थी नताशा जब उनकी मां गुज़र गईं. 32 साल की उम्र में उनके पिता नहीं रहे. अपनी बेटी के साथ किस तरह कोई खड़ा हो सकता है ये उन पिताओं के लिए आश्चर्यजनक है जो नताशा की कहानी देखकर अपनी बेटियों को रोकने की सोच रहे होंगे कि तुम्हें बोलने की ज़रूरत नहीं है. उन्हें खुद से पहले यह पूछना चाहिए कि क्या उन्हें ऐसा सिस्टम चाहिए? नहीं चाहिए तो उन्होंने ऐसी कहानी के सामने आने पर क्या किया था?
नताशा और देवांगना की गिरफ्तारी के वक्त कैसी-कैसी खबरें चलाई गईं कि ताहिर के दंगा ब्रिगेड से पिंजड़ा तोड़ का कनेक्शन है, पिंजड़ा तोड़ और दिल्ली दंगों की फंडिंग का सोर्स एक ही है. इस तरह की खबरें चलाई गईं. और अब कोई सबूत नहीं है पेश करने के लिए? दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि हमने स्पेशल कोर्ट के तर्कों से गुज़रते हुए एक ख़ास नज़रिया देखा है. याचिकाकर्ता पिंजरा तोड़, Delhi Protests Support Group, Warriors और Auraton ka Inquilab जैसे कई समूहों और whatsapp group कि सदस्य थी और एक बड़ी साज़िश का हिस्सा थी और सजीशकर्ताओं से सम्पर्क में थी. और इस वजह से उन्हें दोषी पाया गया.
लेकिन कोर्ट ने आगे कहा है कि किसी independent authority का ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचने का कोर्ट के ख़ुद के निष्कर्ष पर कोई असर नहीं होना चाहिए, फिर चाहे ऐसे रिव्यू के तहत UAPA की कार्यवाही करने की अनुमति केंद्र सरकार ने ही क्यों ना दी हो. कोर्ट के अपने क़ानूनी आकलन में ऐसी किसी authority के रिव्यू और संतुष्टि का असर नहीं पड़ना चाहिए, और ख़ास तौर पर जब वो UAPA जैसे गम्भीर मामले में आकलन कर रहा हो क्योंकि इसके तहत इल्ज़ाम बहुत संगीन होता है और सज़ा बेहद कठोर.
नताशा अब जिस घर में जाएंगी कमरा तो ठीक ठाक मिलेगा लेकिन पिता महावीर नरवाल नहीं होंगे. मैं दरअसल नताशा के बारे में बिल्कुल नहीं सोच रहा. मैं उन अफसरों के बारे में सोच रहा हूं जिन्होंने ऐसी चार्जशीट लिखी. काश मैं आज की एंकरिंग उनके घर से कर रहा होता. उनके परिवार के साथ और आपको दिखाता कि ऐसे लोग भी कम खुशहाल नहीं होते हैं. हम आप जैसे लोग अदालत की जिन टिप्पणियों को लेकर लोकतंत्र और उम्मीद का जश्न मनाते हैं दरअसल ऐसे अफसरों को कोई फर्क नहीं पड़ता है. हमें तो यह भी नहीं पता कि इस फैसले के बाद डाइनिंग टेबल पर उनके बच्चे उनसे क्या सवाल करेंगे.
दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा है कि जिन संगठनों को खतरनाक रूप में पेश किया गया है उनमें अदालत को ऐसा नहीं लगा कि ये सब UAPA की धाराएं 15, 16, 17 के तहत अपराध बनते हैं. मतलब UAPA के तहत आतंकवाद के दोष लगाने का कोई आधार नहीं बनता है. ना ही कोई ठोस इल्ज़ाम लगाया गया है. सोचिए 17,500 पन्ने की चार्जशीट बनाई जाती है और इन धाराओं के संबंध में कोई ठोस आरोप तक नहीं होते हैं. कोई साक्ष्य नहीं होता लेकिन इतनी संगीन धाराएं लगा दी जाती हैं. राज्य का इसमें कुछ नहीं जाता है. पुलिस का कुछ नहीं जाता है. गोदी मीडिया का कुछ नहीं जाता है. जाता है तो उनका जिन्हें बिना कुछ किए इतने साल जेल में रहना पड़ता है. मानसिक यातना भुगतनी पड़ती है. रोहतक की नताशा नरवाल जेएनयू से पीएचडी कर रही हैं और असम से 31 साल की देवांगना जेएनयू से ही एमफिल कर रही हैं. दोनों ही पिंजरा तोड़ की सदस्य रही हैं.
नताशा और देवांगना को 22 फरवरी 2020 को गिरफ्तार किया गया था. FIR 48 में इन पर नागिरकता संशोधन कानून के विरोध में नारे लगाने के आरोप हैं. तब उसमें कहीं नहीं लिखा था कि किसी ने हिंसा की बात की. बस इन पर पुलिस के अफसर पर हमला करने की धारा लगाई गई. इस मामले में नताशा को ज़मानत मिल गई. कोर्ट ने कहा कि उन पर ये मामला बनता नहीं है. लेकिन उसके बाद भी नताशा नरवाल तुरंत गिरफ्तार कर ली गईं. तब नताशा पर पहले से और गंभीर आरोप लगा दिए गए. हत्या के प्रयास के. इस FIR का नंबर है 50. इसमें नरवाल या कालिता या किसी के नाम नहीं है. उसके बाद नरवाल पर भी UAPA लगा दिया जाता है. आरोप लगता है कि दिल्ली में दंगों के पीछे साज़िश रच रही थीं. इन दोनों के नाम भी FIR नंबर 59 में जोड़ दिए जाते हैं और गिरफ़्तार कर लिया जाता है. इसके अलावा गुलफिशां फातिमा, जो एमबीए की छात्रा हैं, को भी राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है. इशरत जहां को भी.
तो क्या इन्हें लंबे समय तक जेल में रखने के लिए UAPA की धाराएं लगाई गईं. ज़मानत न मिले इसके लिए इतनी मेहनत की गई? लेकिन इस दौरान पुलिस ने ही कौन से मज़बूत साक्ष्य जुटा लिए? पिछले साल अदालत जो कहती आ रही है वही हाई कोर्ट के आदेश में भी है. पिछले साल सितंबर में FIR नंबर 50 यानी जाफराबाद मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने देवांगना कालिता को बेल देते हुए कहा था कि जांच ऐजेंसिया ऐसा कोई भी साक्ष्य नहीं दे पाई हैं जिससे ये साबित होता हो कि देवांगना के किसी भाषण ने एक समुदाय की महिलाओं भड़काया हो या फिर उनके भाषण से हिंसा भड़की जिससे जान माल का नुक़सान हुआ. इसी कोर्ट ने नताशा नरवाल के मामले में “जो वीडियो दिल्ली पुलिस ने कोर्ट में दिखाए हैं उनसे नहीं साबित होता कि नताशा हिंसा में शामिल थी या हिंसा को भड़का रही थीं.“
नताशा नरवाल और दिव्यांगना कालिता के साथ जामिया के छात्र आसिफ इक़बाल तन्हा को भी बेल मिली है. 24 साल के आसिफ़ इक़बाल तन्हा झारखंड में हज़ारीबाग़ से हैं. ग़रीब परिवार से आते हैं और दिल्ली में अपनी पढ़ाई के ख़र्च को ख़ुद उठाते रहे हैं. जामिया मिल्लिया इस्लामिया में फ़ारसी भाषा की पढ़ाई करते हैं. दिल्ली दंगों के मामले में आरोपी बनाए गए हैं. एक साल से जेल में हैं. कोर्ट ने आसिफ को बेल देते हुए कहा है कि चार्जशीट में जिन बातों का हवाला दिया गया है, उसमें ऐसा कुछ नहीं जिससे लगे कि आसिफ साज़िशकर्ताओं का नेतृत्व कर रहा था. इस आदेश को पढ़ते हुए अफसोस भी होता है और शर्म भी आती है कि एक आंदोलन को कुचलने के लिए तमाम मर्यादाओं को कुचल कर इन्हें आरोपी बनाया गया. दिल्ली पुलिस न वीडियो पेश कर पाती है और न ऐसे सबूत पेश कर पाई जिससे लगे कि उसके आरोपों में दम है.
फिर भी दिल्ली पुलिस को चिन्ता इस बात की थी कि उमर ख़ालिद और ख़ालिद सैफ़ी को हथकड़ियों में बांधकर पेशी के लिए लाया जाए. अप्रैल के महीने में पुलिस ने अपनी याचिका में बताया है कि उमर खालिद के हाथ कैसे बांधे जाएं. पीछे से हथकड़ी लगाने की बात कही थी. तब एडिशनल जज विनोद यादव ने कहा था कि पुलिस अपना पक्ष और स्पष्ट करे. 6 जून को जज विनोद यादव ने कहा कि दिल्ली पुलिस की याचिका में कोई दम नहीं है. उमर ख़ालिद और ख़ालिद सैफ़ी कोई गैंगस्टर नहीं हैं. और न ही अपराध का पुराना रिकार्ड है. दिल्ली पुलिस और जेल की याचिका बिना सोचे समझे दी गई है. यह प्रसंग इसलिए बताया ताकि आप समझ सकें कि इस केस में क्या हो रहा है.
अब आप एक काम करें. यू ट्यूब में जाएं और पिछले साल इनकी गिरफ्तारी के वक्त न्यूज़ चैनलों का कवरेज़ देखें. इनके लिए बिल्कुल न देखें. अपने लिए देखें. और पूछें खुद से कि क्या आप ऐसा भारत चाहते हैं जो आपमें से किसी को इस तरह उठाकर आतंकी बना कर पेश कर दे और सैकड़ों चैनलों के एंकरों को लगा कर साबित कर दे. आप उनके कार्यक्रमों के सवाल और बातों को सुनिए, दहशत हो जाएगी. कि ऐसा भी हो सकता है.
फिर आप सोचिए कि राजधानी दिल्ली में दंगा हुआ. 53 से अधिक लोग मारे गए और 400 से अधिक घायल हुए. कितने स्कूल जला दिए गए. दुकानें ख़ाक हो गईं. लोगों की ज़िंदगी बर्बाद हो गई. लेकिन साज़िशकर्ताओं के नाम पर जो पकड़े गए उनके खिलाफ सबूतों और जांच की ये हालत है. तो फिर दंगा करने वाले कौन हैं. जब दिल्ली में हुए दंगों की जांच का ये आलम है तो सोचिए कि आप सुरक्षित कहां हैं.
हरियाणा के नूह में 21 साल की जुनैद की मौत के मामले में फरीदाबाद पुलिस के 7 पुलिसकर्मियों पर हत्या का मामला दर्ज किया गया है. आरोप है कि जुनैद को ठगी के मामले में पुलिस पूछताछ के लिए ले गई, उसे थर्ड डिग्री टॉर्चर किया गया जिससे उसकी मौत हो गई.
अमेरिका की पुलिस ने नस्लभेदी टिप्पणी करते हुए जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या कर दी तो वहां आंदोलन खड़ा हो गया. वहां का समाज हिल गया. भारत एक शांतिप्रिय देश है. यहां शांतिपूर्ण आंदोलन करने पर लड़कियों को आतंकी बताकर जेल में डाल दिया जाता है.
जुनैद हो या नताशा किसी से सहानुभूति मत कीजिए बस इतना याद कीजिएगा कि ऐसी घटनाओं पर चुप रहने के बाद भी आपको अस्पताल में जगह नहीं मिली. ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं मिला. वेंटीलेटर नहीं मिला और आपके अपने मर गए. इतना याद कर लें वही काफी है. एक तीसरी ख़बर और ताकि आप आश्वस्त हो सकें कि आप बिल्कुल सही जगह रहते हैं.
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में एक साल के भीतर 200 अस्पताल खुल गए हैं. सरकार को पहले से चल रहे सरकारी अस्पतालों के लिए 5000 डाक्टर नहीं मिल रहे हैं. अनुराग द्वारी ने सोचा कि 200 अस्पतालों कैसे खुल गए, इनके लिए डॉक्टर कहां से मिल रहे हैं. बस इसी एक सवाल से शुरू हुई रिपोर्ट जहां पहुंची है वहां आपको ले जाना चाहते हैं. एक ही डॉक्टर 8-10 अस्पतालों में रेसिडेंट डॉक्टरों के नाम से रजिस्टर्ड हैं. मल्टी स्पेशियलिटी अस्पताल का लाइसेंस मिला है लेकिन अस्पताल में एक डॉक्टर तक नहीं.
मुझे पूरा भरोसा है कि आप महंगाई से परेशान नहीं हैं. 200 रुपये सरसों तेल ख़रीद रहे हैं और 100 रुपया लीटर पेट्रोल भरा रहे हैं. गैस का सिलेंडर भी आप सस्ता नहीं ले रहे हैं. पिछले साल दिसंबर में आप 549 रुपये में सिलेंडर ले रहे थे जो अब 813 रुपये का ले रहे हैं. सरकार के पास पैसे नहीं हैं लेकिन आपके पास इतने पैसे कहां से आ रहे हैं लगता है सरकार भी नहीं समझ पा रही है. महंगाई की दर 12.9 प्रतिशत हो गई है.