झूठ के पैर नहीं होते लेकिन टेक्नालॉजी ने झूठ को ताकतवर बना दिया है. अभी ही हम जैसे लोग परेशान हैं कि जो बात कहीं नहीं होती वो भी तस्वीर के साथ लिखकर वायरल हो रहा होता है. आल्ट न्यूज़ जैसी साइट वायरल तस्वीर और वायरल वीडियो के पीछे का झूठ तो पकड़ लेते हैं लेकिन वो उन सभी के पास नहीं पहुंच पाता है जिनके व्हाट्स ऐप के इनबाक्स में झूठ पहुंचा होता है.
जैसे एक तस्वीर को यह बताकर चला दिया गया कि मैं हूं और शाहीन बाग के प्रोटेस्ट में बैठा हूं. पहले ये मज़ाक के तौर पर चलना शुरू हुआ लेकिन धीरे-धीरे मज़ाक के नीचे गाली दी जाने लगी. इसके झांसे में मेरे दोस्त परिचित भी आ गए और पूछने लगे कि कब गए थे. मेरे पास यह तस्वीर कई ज़रिए से पहुंचने लगी. फेसबुक पर पोस्ट किया तो कमेंट में यह तस्वीर पोस्ट किया जाने लगा. यह कहकर कि पहचानो कौन है. हमने कई ऐसे ट्विटर हैंडल देखे तो एक राजनीतिक धारा के लगते हैं. जिनके हैंडल से यह तस्वीर शेयर की गई. मज़ाक के तौर पर, रवीश कुमार बताकर.
बहुत लोग जानते हैं कि फेक है, लेकिन बहुत लोग जिनकी गर्दन इनबाक्स में गड़ी रहती है बाहर नहीं देख पाते कि सही भी है या नहीं. कुछ को पता होता है कि गलत है मगर फिर भी वो स्वीकार करने लगते हैं कि सही होगा. ये वो लोग होते हैं जो कई साल से मेरे बारे में ऐसी फेक तस्वीरों और लतीफों से देखते देखते धारणा बना चुके होते हैं. वो तय कर बैठते हैं कि मैं ऐसा ही हूं. इसलिए उन्हें ऐसी तस्वीरें सही लगने लगती हैं. क्योंकि उन्हें लगता है कि जो वो पहले से जानते हैं वो तो कम से कम इस तस्वीर से सही साबित होती है. इस तरह से झूठ का एक मनोवैज्ञानिक जाल बिछाया जाता है जिससे आप बाहर नहीं निकल पाते हैं.
ये और बात है कि जिस महिला को मेरी तस्वीर बताकर प्रचलित किया गया है वो हैं शकीला बेगम. बहुत मुश्किल से खोज निकाला. सोचिए मेरे जैसे मिलते चेहरे को ढूंढने के लिए कितनी मेहनत की जा रही है. शाहीन बाग में बैठे एक एक शख्स की तस्वीरों को स्कैन किया गया होगा. और फिर मुझे वहां बैठा हुआ बताने के लिए इस महिला की तस्वीर का इस्तेमाल किया गया.
अपनी कहानी से बता रहा हूं, ताकि आप समझ सकें कि फेक न्यूज़ कभी मज़ाक बनकर आता है, कभी झांसा बनकर आता है. अभी तक जो हो रहा है वो तस्वीरों के ज़रिए होता है. मीम बनाकर होता है. लेकिन सोचिए कि आपको एक ऐसा वीडियो मिले, जिसमे मेरे चेहरा हो, मेरे ही हाव-भाव हों, आवाज़ भी मेरी हो तब आप क्या करेंगे? आम तौर पर ऐसी टेक्नालॉजी अच्छाई के सहारे आती है, मतलब ये कहेगी कि जनता तक पहुंचना था, लोगों को अच्छा लगा कि उनका नेता अलग-अलग भाषा में बोल रहा है. सवाल यही है कि जब उनका नेता अलग-अलग भाषा में नहीं बोल सकता है तो टेक्नालॉजी के ज़रिए यह झूठ क्यों फैलाया जाए. अब आते हैं मनोज तिवारी के उस वीडियो पर जिसे 'डीप फेक' कहा जाता है.
आपने टीवी पर मनोज तिवारी के इतने इंटरव्यू देखे, अंग्रेज़ी बोलते शायद ही सुना हो. उनके सारे बयान अंग्रेज़ी के अखबार में छपते तो थे ही. फिर एक आर्टिफीशियल वीडियो बनाने की ज़रूरत क्यों पड़ी जिसमें वे अंग्रेज़ी और हरियाणवी बोल रहे हैं. टेक्नालॉजी के खेल से हो सकता है. अब सोचिए. दावा किया जा रहा है कि बीजेपी के आईटी सेल ने इस वीडियो को 5800 व्हाट्स ऐप ग्रुप में शेयर किया. यकीन तो नहीं होता लेकिन यह भी दावा किया जा रहा है कि 15 मिलियन यानी डेढ़ करोड़ लोगों तक पहुंचा. अगर इतने लोगों तक पहुंचा तो भारत के मीडिया को इसकी खबर तक नहीं लगी. जो चीज़ पब्लिक में इस तरह से फैली हो उसकी खबर ही न हो तो फिर आप सोच सकते हैं. इस स्टोरी को ब्रेक करती है अमेरिका की वेबसाइट वाइस. वाइस की यह स्टोरी जब से आई है, टेक्नालॉजी और फेक न्यूज़ को लेकर अध्ययन करने वालों के कान खड़े हो गए हैं. बीजेपी मानती है कि इस टेक्नालॉजी का इस्तेमाल किया गया है.
अलगोरिदम के सहारे अब ऐसा करना मुमकिन है. इस टेक्नालॉजी को डीप फेक कहा जाता है. यानी झूठ की ऐसी गहराई जिसका अंदाज़ा लगाना पहले से और मुश्किल हो जाएगा. आप जानते हैं कि अब चुनाव कार्यकर्ता जितना नहीं लड़ता है उससे ज्यादा उनके बदले राजनीतिक प्रचार करने वाली कंपनियां करती हैं. वो चर्चा के लिए माहौल बनाती हैं. मनोज तिवारी का यह वीडियो साफ सुथरा है लेकिन जैसे ही इस टेक्नालॉजी का इस्तेमाल विरोधी खेमे में तूफान मचाने में होगा, चुनाव में बदहवासी फैल जाएगी. सोचिए कोई इस तरह का वीडियो अरविंद केजरीवाल का बना देता या केजरीवाल खेमे का कोई मनोज तिवारी का बना दे तो सारा चुनाव इन्हीं सबमें निकल जाएगा. यह कहानी जानते हुए आप यह भी सोचें कि क्या आपने जो वोट दिया है वो सही सूचना पर आधारित था? कहीं ऐसा तो नहीं कि आप झूठ के जंजाल में फंसकर वोट देने लगे हैं.
सन 2017 में डीप फेक का वीडियो आ गया था. पोर्न वीडियो बनाने में इसका इस्तेमाल किया जाता है. अप्रैल 2018 में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ओबामा का एक ऐसा ही वीडियो आया था जिसमें वे ऐसी बातें कह रहे थे जो कभी नहीं बोलते. बज़फीड वेबसाइट और फिल्म निर्देशक एक्टर जार्डन पील ने ओबामा का वीडियो बनाया, यह बताने के लिए कि ऐसी टेक्नालॉजी से सावधान रहने की ज़रूरत है.
उस वीडियो में ओबामा नहीं कह रहे थे. उनकी आवाज़ का इस्तेमाल कर वो बातें उनके चेहरे पर प्लांट की गई थीं जो उनके खिलाफ काम आ सकती थीं. बाद में जार्डन पील ने सामने आकर बता दिया कि राष्ट्रपति ओबामा नहीं बोल रहे हैं. यह खतरनाक समय है. हमें पहले से भी ज्यादा सावधान होने की ज़रूरत है. हम इंटरनेट पर जो देख रहे हैं उसे लेकर सतर्क रहना होगा. बज़फीड ने लिखा है कि मशीन को 56 घंटे की ट्रेनिंग देने के बाद इसे तैयार किया गया. इस रिपोर्ट में लिखा गया है कि आप किसी की आवाज़ लेकर ओबामा की आवाज़ बना सकते हैं. बस आवाज़ मिलती-जुलती हो. पिछले साल अमेरिका की स्पिकर नैन्सी पिलोसी का ही डीप फेक वीडियो जारी हुआ था जिसमें ऐसा लग रहा था कि वे शराब के नशे में हैं, बोल नहीं पा रही हैं. यह वीडियो काफी वायरल हो गया था. यह उदाहरण इसलिए बताया जा रहा है कि मनोज तिवारी को पता नहीं कि उनके सहारे किस खतरनाक चीज़ का भारत की राजनीति में परीक्षण हुआ है.
फेक न्यूज़ के दौर में एक मुश्किल और है. भारत में ही आपने देखा होगा. मुख्यधारा का मीडिया बहुत कम ऐसी फेक न्यूज़ की छानबीन करता है. आल्ट न्यूज़ बूम लाइव, फैक्ट चेकर करते हैं. फेक न्यूज़ एक राजनीतिक तंत्र का हिस्सा है. अगर सरकार में रहते हुए कोई पार्टी फेक न्यूज़ फैलाए, टेक्नालॉजी का इस्तेमाल करे तो उसका पलड़ा ज़्यादा भारी होगा. भारत में चुनावों में ऐसी टेक्नालॉजी के इस्तेमाल को लेकर साफ कानूनी समझ नहीं बन पाई है. चुनाव आयोग पेड न्यूज़ से लड़ता है लेकिन बात फेक न्यूज़ तक पहुंच गई है.
आल्ट न्यूज़ ने बताया था कि कैसे शाहीन बाग से आठ किमी दूर वीडियो शूट किया गया. इस वीडियो को बीजेपी के नेता ट्वीट करते हैं और फिर यह टीवी चैनलों पर बहस का मुद्दा बन जाता है. और आपकी चर्चा का हिस्सा भी कि शाहीन बाग में औरतें पैसे लेकर धरने पर बैठ रही हैं. इस तरह से आप एक झूठ को जीने लगते हैं. हमें नहीं जानकारी है कि आल्ट न्यूज़ के पर्दाफाश कर देने के बाद चुनाव आयोग ने क्या कदम उठाए. क्या उसके पास झूठ फैलाने से रोकने के लिए कोई कानून है. न्यूज़ चैनल जामिया की लाइब्रेरी की हिंसा के मामले में ही एक लड़के के हाथ में पत्थर बताकर चलाते रहे. जबकि कोई भी अपनी एडिटिंग टेबल पर स्लो मोशन में देख सकता था कि पत्थर है या पर्स. लेकिन किसी ने ऐसा नहीं किया. इस तरह न्यूज़ चैनलों के ज़रिए यह झूठ करोड़ों दर्शकों तक पहुंच गया. आल्ट न्यूज़ ने इसका पर्दाफाश किया लेकिन उसे उन चैनलों ने नहीं चलाया जिन्होंने पर्स को पत्थर बताकर चलाया था. तो इस तरह से करोड़ों दर्शकों के दिमाग में यह बात रह गई कि जामिया की लाइब्रेरी में दिखने वाला यह शख्स पत्थर लिए था जो कि गलत था. यह अपवाद नहीं है. दिल्ली चुनाव से पहले न्यूज़ चैनलों पर शाहीन बाग को लेकर फेक वीडियो चल चुका था. फिर भी जामिया को लेकर चला.
एक दर्शक की चुनौती है कि वह क्या करे. उसे यही करना होगा कि हर दिन नए सिरे से भरोसा बनाना होगा. अब आपको टीवी देखने और अखबार पढ़ने का तरीका बदलना होगा. आपको टीवी के एंकर या अखबार के संपादक से ज्यादा मेहनत करनी होगी. टेक्नालॉजी लोकतंत्र के सामने नई चुनौतियां पेश कर रही है. अमेरिका में डीप फेक रिपोर्ट एक्ट 2019 का मसौदा पेश किया गया है. यह कानून बना तो वहां के गृह विभाग को हर साल डीप फेक टेक्नालॉजी के असर पर रिपोर्ट जारी करनी होगी. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, डीप फेक वीडियो को पकड़ने के लिए कई तरह के इनाम भी घोषित किए गए हैं. अमेरिका के कैलिफोर्निया में पिछले साल अक्टूबर में ही डीप फेक को गैर कानूनी घोषित किया जा चुका है.
कैलिफोर्निया के कानून एबी 730 में कहा गया है कि चुनाव के साठ दिन के अंदर कोई भी डीप फेक वीडियो नहीं बना सकता है. जो किसी राजनीतिक दल के नेता की छवि को नुकसान पहुंचाता हो. अगर किसी ने ऐसा किया तो उसके खिलाफ वो नेता वित्तीय मानहानि का केस कर सकता है. एक और कानून है एबी 602, इसमें कहा गया है कि पोर्न वीडियो में डीप फेक का इस्तेमाल कर किसी का चेहरा लगाया जाता है तो वह व्यक्ति वीडियो बनाने वाले के खिलाफ मानहानी का मुकदमा चला सकता है.
हमने मिशी चौधरी से बात की जो इंटरनेट कानून की जानकार हैं. मिशी ने बताया कि अमेरिका के चुनाव में डीप फेक को लेकर किस तरह की हलचल है.
चीन में भी एक जनवरी 2020 से एक कानून लागू हुआ है. जिसके तहत जो भी डीप फेक का इस्तेमाल करेगा या अपने प्लेटफार्म से शेयर करेगा उसके खिलाफ कार्रवाई होगी. डीप फेक से अराजकता फैल सकती है. राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पहुंच सकता है. अमेरिका के चुनाव से पहले अमेरिकी खुफिया विभाग ने एक चेतावनी जारी कर कहा है कि अमेरिकी चुनावों को प्रभावित करने के लिए अमेरिका के विरोधी डीप फेक का इस्तेमाल कर सकते हैं. चुनाव को प्रभावित करने या और भी बुरी नीयत से इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. मनोज तिवारी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि भारत में पहली बार इस खतरनाक टेक्नालॉजी का इस्तेमाल उनके ऊपर होगा जिसे दुनिया के कई देश राष्ट्रीय सुरक्षा और लोकतंत्र के लिए खतरा मान रहे हैं.
पहले नेता अपने हैंडल से फेक न्यूज़ फैलाने के आरोप में विवादों में आए, अब नेता ही फेक न्यूज़ बन गए हैं. अब मनोज तिवारी को होने की ज़रूरत नहीं है, उनका फेक वीडियो आपसे बातें करेगा. कुछ दिनों में नेताओं का हाल दीवाली के मावे के जैसा हो जाएगा. आप खरीदेंगे मगर खाएंगे नहीं, यह सोच कर कि असली है या नकली.
चिन्मयानंद हाल ही में बलात्कार के मामले में ज़मानत पर बाहर आए हैं. एक तस्वीर में वे एक कार के शो रूम का उदघाटन कर रहे हैं. इनकी तस्वीर के साथ शो रूम ने विज्ञापन भी दिया था. आप देख सकते हैं कि इस विज्ञापन में चिन्मयानंद कितने आदरणीय तरीके से प्रतिष्ठित किए गए हैं. उनके साथ होना भी कितने गौरव की बात है. आखिर हाईकोर्ट से ज़मानत जो मिल गई है. उधर पीड़िता भी ज़मानत पर बाहर है. लेकिन वह अपनी जान के खतरे को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची है. जहां 23 फरवरी को इस मामले की सुनवाई होगी. पीड़िता संघर्ष की राह पर है और चिन्मयानंद शो रूम के उद्घाटन के सफर पर.
इस देश में परीक्षाओं को लेकर आंदोलन स्थायी हो चुका है. राजस्थान में एलडीसी परीक्षा, यूपी में 69000 शिक्षकों की भर्ती, बिहार में लाखों नियोजित शिक्षकों का मामला हो या उत्तराखंड में फ़ॉरेस्ट गार्ड की परीक्षा का मामला हो. अनगिनत आंदोलनों के बाद भी इनकी समस्या का समाधान कहीं नहीं है. सुप्रीम कोर्ट को इन छात्रों के आंदोलन के लिए भी वार्ताकार नियुक्त करना चाहिए. मध्यप्रदेश में 15-20 साल से अतिथि विद्वान पढ़ा रहे हैं, घूम-घूम कर मुख्यमंत्री को खोज रहे हैं, लेकिन इनकी समस्या का समाधान नहीं हो रहा है.