हिन्दी अख़बारों के संपादकों ने अपने पाठकों की हत्या का प्लान बना लिया है. अख़बार कूड़े के ढेर में बदलते जा रहे हैं. हिन्दी के अख़बार अब ज़्यादातर प्रोपेगैंडा का ही सामान ढोते नज़र आते हैं. पिछले साढ़े चार साल में हिन्दी अख़बारों या चैनलों से कोई बड़ी ख़बर सामने नहीं आई. साहित्य की किताबों से चुराई गई बिडंबनाओं की भाषा और रूपकों के सहारे हिन्दी के पत्रकार पाठकों की निगाह से बच कर निकल जाते हैं. ख़बर नहीं है. केवल भाषा का खेल है. आख़िर जब बात ख़बरों को खोज निकालने और पहले पन्ने पर छापने के लिए लगातार पड़ताल की होती है तब हिन्दी का पत्रकार नज़र क्यों नहीं आता है? ऐसा नहीं है कि उसके पास ख़बर नहीं है, उसकी योग्यता किसी से कम है मगर अख़बारों के मालिक और ग़ुलाम संपादक उनकी धार कुंद कर देतेहैं. क्या आपका हिन्दी अख़बार या चैनल आलोक वर्मा के मामले की ख़ुद से पड़ताल कर रहा है?
आधी रात से पहले हाई पावर कमेटी बैठती है. आलोक वर्मा को हटा दिया जाता है. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई उस कमेटी से खुद को अलग कर लेते हैं. इस आधार पर कि फैसला उन्होंने लिखा है. मगर उस कमेटी में प्रधानमंत्री बैठ जाते हैं. जबकि संदेह की सुई उन पर है कि वे ख़ुद को और अंबानी को बचाने के लिए रफाल मामले को दबा सकते हैं. कायदे से प्रधानमंत्री को भी इस कमेटी से अलग हो जाना चाहिए था. कहना चाहिए था कि सुप्रीम कोर्ट ही फैसला करे ताकि जनता को संदेह न हो. जिस सीवीसी की रिपोर्ट के आधार पर फैसला हुआ, उस पर सुप्रीम कोर्ट भी फैसला ले सकती थी.
दि वायर में रोहिणी सिंह का खुलासा तो और भी गंभीर है. रोहिणी सिंह ने लिखा है कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के वी चौधरी आलोक वर्मा के घर गए थे. चौधरी चाहते थे कि आलोक वर्मा राकेश अस्थाना के खिलाफ अपनी शिकायत वापस ले लें. आलोक वर्मा ने यह बात जस्टिस पटनायक को लिखकर दी थी. जब राकेश अस्थाना ने वर्मा पर आरोप लगाए तो सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस पटनायक को काम दिया कि वर्मा पर लगे आरोपों की जांच हो. रोहिणी सिंह की खबर का अभी तक सीवीसी चौधरी ने खंडन तक नहीं किया है. सोचिए ये हालत हो गई है.
रोहिणी सिंह ने लिखा है कि आलोक वर्मा प्रधानमंत्री कार्यालय के एक अफसर भास्कर कुल्बे पर मुकदमा दायर करने का फैसला लेने वाले थे. कोयला घोटाले में भास्कर कुल्बे की भूमिका की जांच करना चाहते थे. राकेश अस्थाना इसका विरोध कर रहे थे. इसी को लेकर वर्मा और अस्थाना में लड़ाई छिड़ गई. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद जब 36 घंटे के लिए बहाली हुई तब आलोक वर्मा ने भास्कर कुल्बे के ख़िलाफ़ फैसला ले लिया मगर उनके हटने के बाद नए कार्यवाहक निदेशक ने वर्मा के सारे फैसले पलट दिए.
रोहिणी सिंह लिखती हैं कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के वी चौधरी ने सुप्रीम कोर्ट से भी यह बात छिपाई कि वे आलोक वर्मा के घर गए थे और अस्थाना की तरफ से बात की थी. यह जानकारी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वर्मा के खिलाफ सीवीसी ने जो रिपोर्ट दी है वह पूरी तरह से अस्थाना की शिकायतों के आधार पर है. चौधरी चाहते थे कि अस्थाना की सालाना करियर रिपोर्ट में जो प्रतिकूल टिप्पणी की गई है, वर्मा उसे बदल दें. प्रतिकूल टिप्पणी के कारण प्रमोशन रुक जाता है. आलोक वर्मा के मना कर देने के बाद राकेश अस्थाना ने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को वर्मा के खिलाफ शिकायतें भेजनी शुरू कर दीं. उसी के आधार पर वर्मा को हटाया गया. वर्मा ने अस्थाना के खिलाफ जो शिकायतें की उस पर कोई संज्ञान नहीं लेता है.
जस्टिस पटनायक ने भी इंडियन एक्सप्रेस की सीमा चिश्ती से कहा है कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की रिपोर्ट में जो आरोप हैं वे सही नहीं हैं. निराधार हैं. जस्टिस पटनायक ने रोहिणी सिंह से भी कहा है कि उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस से जो कहा है उस पर कायम हैं. अस्थाना के खिलाफ सीबीआई में जांच के छह-छह मामले लंबित हैं. अस्थाना दिल्ली हाईकोर्ट गए थे कि एफआईआर ख़ारिज की जाए मगर हाईकोर्ट ने उल्टा सीबीआई को ही दस हफ्ते के भीतर जांच करने के आदेश दे दिए.
अब आप बताइये कि क्या आपको लगता है कि आलोक वर्मा को हटाने के फैसले में प्रधानमंत्री को पड़ना चाहिए था? नैतिकता का तकाज़ा क्या कहता है? क्या अंबानी के लिए हुकूमतें कुछ भी कर जाएंगी? अब इसी ख़बर को आप अपने किसी भी हिन्दी अख़बार में खोजें. क्या कोई अख़बार इस ख़बर का फॉलो अप कर रहा है? ऐसी नहीं है कि हिन्दी अख़बारों के पास मंझे हुए पत्रकार नहीं हैं, मगर ऐसी ख़बरें कहां हैं? सरकार और सीवीसी को फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें पता है कि ऐसी खबरें हिन्दी अख़बारों और चैनलों के ज़रिए जनता तक पहुंचेंगी ही नहीं.
आज टेलिग्राफ अख़बार ने पूर्व चीफ जस्टिस टी एस ठाकुर ने भी कहा कि आलोक वर्मा को अपनी बात रखने का मौका देना चाहिए. किसी भी सरकार का मूल्यांकन उसके दौर की मीडिया की हालत से शुरू होना चाहिए. अगर मीडिया ही आज़ाद नहीं है तो फिर आप किस सूचना के आधार पर उस सरकार का मूल्यांकन कर रहे हैं, यह सवाल ख़ुद से पूछें और अपने हिन्दी अख़बार और न्यूज़ चैनलों से पूछें. सबकुछ बर्बाद हो जाए, इससे पहले यह सवाल ज़रूर पूछें.
नोट- एक अफवाह फैलाई जा रही है कि आलोक वर्मा ने माल्या को भगाने में मदद की. तथ्य यह है कि माल्या के भागने के एक साल बाद वर्मा चीफ बने. माल्या पूरी सरकार के तंत्र की मदद से भागा था. इतने भी भोले न बनें. कोई मूर्ख बनाए तो कम से कम मूर्ख न बनें.
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