मिर्ज़ा ग़ालिब की शमा की तरह कुलदीप नैयर हर लौ में तपे हैं, हर रंग में जले हैं. शमा के जलने में उनका यक़ीन इतना गहरा था कि 15 अगस्त से पहले की शाम वाघा बॉर्डर पर मोमबत्तियां जलाने पहुंच जाते थे. उस सहर के इंतज़ार में, जिसे शमा के हर रंग में जल जाने के बाद आना ही है. कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा 'Beyond the Lines' में लिखा है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच नफ़रतों और दुश्मनी का समंदर फैला दिखता है, मगर मोहब्बत की लौ जलेगी, यह उम्मीद भी दिखती रहती है. एक दिन दक्षिण एशिया के लोग शांति, सदभाव और सहयोग को समझेंगे. हम होंगे कामयाब, एक दिन.
कामयाबी का दिन आया भी और नहीं भी आया, मगर कुलदीप नैयर अपनी उम्मीद से कभी अलग नहीं हुए. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने जिन्ना की तक़रीर भी सुनी और गांधी की भी. बंटवारे ने उनका पेशा बदल दिया, वर्ना वह सियालकोट में वकालत की प्रैक्टिस करने वाले थे, लेकिन इतिहास ने उनके हाथ में कलम थमा दी.
"मेरी सहाफ़त का आग़ाज़ अंजाम से हुआ..." उर्दू अख़बार 'अंजाम' से शुरू हुआ पत्रकारिता का सफ़र कभी अंजाम तक नहीं पहुंचा. वैसे नैयर साहब लाहौर में डिप्लोमा इन ज़र्नलिज़्म के कोर्स में फेल हो गए थे. उनकी आत्मकथा एक इतिहास है, जिसे रोली बुक्स ने अंग्रेज़ी में छापा है. लिखते हैं कि बंटवारे के बाद भी नहीं लगा कि अपनी मिट्टी से जुदा होना पड़ेगा. जिन्ना ने पाकिस्तानी राष्ट्रगान लिखने के लिए जब कवि जगन्नाथ आज़ाद को बुलाया, तब यह भरोसा और भी पुख़्ता हुआ कि न पाकिस्तान से हिन्दू उधर जाएंगे और न उधर से मुसलमान पाकिस्तान आएंगे. पर एक दिन सियालकोट के ट्रंक बाज़ार का वह घर छूट गया. 13 सितंबर, 1947 को दिल्ली के शरणार्थी शिविर में आ गए. 17 साल के थे, जब 1940 में पाकिस्तान का प्रस्ताव पास हुआ था.
कुलदीप नैयर भारत के पहले पत्रकार हैं, जिनका सिंडिकेट कॉलम शुरू हुआ. यही उनकी जीविका का साधन भी था. कई दशकों तक कई भाषाओं के अख़बारों के ज़रिये अनगिनत पाठकों तक पहुंचते रहे और एक बेहतर समाज की गुंज़ाइश को ज़िंदा किए रहे.
उन्होंने जिन्ना को भी देखा, गांधी, नेहरू को भी. शास्त्री को भी और इंदिरा गांधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक को भी. अपनी ज़िन्दगी में हिंसा सिर्फ एक बार नहीं देखी. आपातकाल से लेकर आपरेशन ब्लू स्टार, 1984 के सिख विरोधी नरसंहार को भी देखा. 2002 के गुजरात दंगों को देखते हुए लिखा है कि 1947 के बंटवारे की हिंसा याद आ गई. ठीक उसी तरह की नफ़रत, वैसे ही राहत शिविर. गुजरात की घटना को लेकर वह एक बार सोचते हैं कि साठ साल पहले भारत को बदलने की जो प्रतिज्ञा ली थी, उससे मैं अभी भी बहुत दूर हूं.
कुलदीप नैयर की कलम नफ़रतों से नहीं हारी. नफ़रत की हर आंधी के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए. उन्हें पाकिस्तान से लेकर मुसलमानों का समर्थक कहा गया. धमकियां दी गईं और गालियां भी. मगर वह उस उम्मीद के लिए लिखते रहे, बोलते रहे, जिसकी बुनियाद पर मोहब्बत का ज़माना आना था. यक़ीनन आएगा.
उन्हें पता था कि उम्मीद सिर्फ पालने का शौक़ नहीं होता है, बल्कि वह जज़्बा है, जिससे आप नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ ख़ुद को दांव पर लगा देते हैं.
"मुझे सबसे ज़्यादा जिस बात से निराशा होती है, वह यह है कि पत्रकार अपने करियर के लिए समझौता करने लगे हैं... जितना ज़्यादा चुप रहते हैं, उतना ज़्यादा सफ़ल होते हैं... अगर आपको किसी से बनाकर चलना आता है, तो आप जीवन में आगे निकल जाते हैं और आपको लगने लगता है कि प्रतिभा का नहीं, समझौते का मोल है... मुझे तकलीफ होती है यह देखकर कि बहुत सारे पत्रकार झुकने लगे हैं... मालिकों के आगे झुकते हैं, दूसरी तरफ सत्ता के आगे झुकते हैं..."
आज़ाद भारत की पत्रकारिता के इतिहासकार की यह बात वे लोग याद रखें, जो आज के लिए उन्हें याद रखने वाले हैं. जिन मोमबत्तियों की लौ का मज़ाक उड़ाया जाता है, वह कुलदीप नैयर के लिए मात्र कैंडल मार्च नहीं था. वह इसी मज़ाक के ख़िलाफ़ था कि कभी तो इनकी नफ़रतें मोहब्बत की सहर देखेंगी. शमा हर रंग में जलती है, सहर होने तक.
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