चाय की दुकान में ऑक्सीजन सिलेंडर जैसा पात्र देख मेरी नज़र ठहर गई। दुकानदार राजेश शुक्ला ने बताया कि ये अंग्रेज़ों का सिस्टम है। वो चले गए लेकिन चाय पीने का ये स्टाइल भारत में रह गया। अंग्रेज़ दूध वाली चाय नहीं पीते थे। लिकर ( सिर्फ पत्ती वाली चाय) ही पीते थे। सिलेंडर में खौलता पानी है। "नीचे लगे नलके से जब पानी निकलता है तो हम पत्ती वाली ग्लास नीचे रख देते हैं। ग्लास के भीतर छन्नी लगी हुई जिस पर पत्ती रखी होती है। गरम पानी का रंग बदल जाता है ।"" लेकिन इंडियन लोग को लिकर उतना पसंद नहीं है। " तीन- तीन पीढ़ियों से चाय बेचने की ठसक ने राजेश शुक्ला को चाय का समाजशास्त्री बना दिया है। 100 साल से ज़्यादा समय हो गया है। शुक्ला कहते हैं कि मुझे लिकर चाय बनाने की ही आदत है। अब के टेस्ट के अनुसार....पहले लिकर ही बनाता हूँ बाद में उसमें दूध और चीनी मिला दिया जाता है और फिर थोड़ी देर को लिए उबाल देते हैं। शुक्ला की दुकान पर बहुत भीड़ होती है। अच्छी बात यह है कि वे मिट्टी के कप ( चुक्कड़) का इस्तमाल करते हैं।
बंगाल में चाय का स्तर देश के किसी भी हिस्से से बेहतर है। यहाँ दिल्ली या बाक़ी हिस्से की तरह चूल्हे पर पानी,दूध और पत्ती को साथ-साथ घंटों नहीं खौलाया जाता है। दिल्ली के लोगों ने तेज़ और कड़क चाय के नाम पर चाय पीने की आदत बिगाड़ ली है। वैसे खौला-खौला कर बनाई गई चाय के मामले में भी बंगाल, दिल्ली को टक्कर दे सकता है।
शायद कोलकाता में औपनिवेशिक छाप गहरी रही होगी तभी यहाँ रिक्शावाला से लेकर मछली बेचने वाला लिकर चाय पीता हुआ नज़र आता है। नींबू चाय भी खूब पीते हैं। जबकि उत्तर भारत के लोग लिकर चाय को ऑफ़िसर या कलक्टर चाय समझते हैं। दिल्ली की तुलना में कोलकाता में खुली चाय की दुकानें भी बहुत हैं। इन दिनों दिल्ली का अपर-मिडिल क्लास टशन से ग्रीन टी पी रहा है कोलकाता का लोअर- क्लास कब से ऐसी चाय पी रहा है ।
एक और अंतर है। बंगाल की चाय दुकानों में चाय बनाने की विधि में खूब विविधता दिखेगी। कारीगरी और कलाकारी दोनों ही मामलों में। दिल्ली की सड़कों पर कहीं चलो जाइये एक ही तरीके से चाय बनते दिखेगी ।विजयगढ़ इलाक़े की चाय की यह दुकान मुझे काफी पसंद है। मग के नीचे छन्नी लगी है। उसके ऊपर लीफ़ रखी होती है। दुकानदार खौलते पानी को इस मग से पास कराता है। गरम पानी के संपर्क में आकर पत्ती अपना रंग और स्वाद छोड़ती है। इसे दूसरी केतली में जमा कर लिया जाता है। पहले से ग्लास में गरम दूध रखा होता है जिसमें पत्ती वाले पानी को डाल दिया जाता है। चाय तैयार । दूध की चाय का स्वाद भी लिकर जैसा लगता है।
बिना दूध वाली लिकर चाय की विधि भी आसान है। पहले दुकानदार ने मग वाली छन्नी पर रखी पत्तियों के ऊपर से खौलते पानी को पास कराया। मग के नीचे एक बड़ा मग रखा होता है जिसमें इस पानी को रोक लिया जाता है। अब यह एक तरीके से सोल्यूशन बन जाता है जिसे तीन तीन चम्मच के हिसाब से ग्लास में डाल दिया जाता है। इसमें अलग से खौलते पानी को डाला जाता है। चीनी अलग-अलग हिसाब से मिला दी जाती है।
बड़ा बाज़ार में चाय बनाने की इस टेक्नोलॉजी को देखिये। इसने तो खौलाने के मामले में दिल्ली को भी पीछे छोड़ दिया है। बक़ायदा चूल्हे के नीचे एक बंदा बिठाया गया है जो लगातार इस देसी मशीन से हवा पैदा कर रहा है। मशीन की टोटी से निकलने वाली हवा चूल्हे की आँच को तेज़ रखती है और ऊपर चाय इस कदर खदकती रहती है कि बेचारी पत्तियाँ जलकर ख़ाक हो जाती होंगी। स्वाद का तो पता ही नहीं चलता होगा। लेकिन इस स्वाद के रसिया भी काफी हैं। चाय का बर्तन काफी बड़ा है । यहाँ से छोटी-छोटी केतलियों में भरकर दुकानदार का आदमी बड़ा बाज़ार की तंग गलियों में ले जाता है। एक तरह से यह चाय बनाने का औद्योगिक तरीक़ा है। बनाने और वितरण के काम में कई लोग लगे हैं ।
चाय भारत का ' राष्ट्रीय रास्ता पेय' ( नेशनल स्ट्रीट ड्रिंक ) है। किसी नुक्कड़ पर चाय की दुकान न मिले तो लगता है कि यहाँ आबादी ही नहीं है....और हाँ दाम के मामले में कोलकाता काफी सस्ता है। चार से पाँच रुपये में दूध चाय मिल जाती है । तीन रुपये में लिकर चाय । दिल्ली में आपको दूध चाय के आठ से दस रुपये देने पड़ते हैं।