'मैं मानता हूं कि सरकार की सोच साथ ही साथ मीडिया के लोगों की सोच में पारदर्शिता होनी चाहिए. न्यूज़ छपती है कि नहीं लोकतंत्र में सिर्फ यही एक चीज़ नहीं है.'
यह वचन है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का. उस प्रधानमंत्री का जो मीडिया में न्यूज़ की तरह दिखने और छपने के लिए डेढ़ डेढ़ घंटे का रिकार्डेड इंटरव्यू देते हैं. जिनकी सरकार ने मीडिया में विज्ञापन देने के लिए जनता के हज़ारों करोड़ रुपये फूंक दिए. वो प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि न्यूज़ का छपना लोकतंत्र में सिर्फ यही एक चीज़ नहीं है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री की न्यूज़ को लेकर यह सोच डराने वाली है.
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प्रधानमंत्री ने यह बात इंडियन एक्सप्रेस के रवीश तिवारी और राजमकल झा से कही है. यह इंटरव्यू 12 मई को छपा है. इस इंटरव्यू में प्रधानमंत्री इंडियन एक्सप्रेस को कई बार पत्रकारिता को लेकर लेक्चर देते हैं. एक्सप्रेस के पत्रकार काउंटर सवाल नहीं करते हैं. ऐसा लगता है कि उन्होंने सुनाने के लिए एक्सप्रेस को बुलाया है. वे यह नहीं बताते हैं कि एक्सप्रेस की कौन सी ख़बर ग़लत थी मगर यह बताना नहीं भूलते हैं कि कौन सी ख़बर उसने नहीं की. किसी प्रधानमंत्री का यह कहना है कि न्यूज़ का छपना ही लोकतंत्र में एक मात्र काम नहीं है, डरावना है. आपको डरना चाहिए कि फिर जनता कितने अंधेरे में होगी.
किसी भी लोकतंत्र में सरकार का मूल्यांकन आप तभी कर सकते हैं जब मीडिया स्वतंत्र हो. अगर मीडिया स्वतंत्र नहीं है तो आप किन सूचनाओं के आधार पर सरकार का मूल्यांकन कर पाएंगे. ऐसे में जब प्रधानमंत्री ही कह दें कि न्यूज़ का छपना एकमात्र काम नहीं है. अगर आप इस बात के लिए प्रधानमंत्री का समर्थन करते हैं तो ज़रूर आपने लोकतंत्र के सत्यानाश का ठीक से सपना देख लिया होगा. मेरी राय में प्रधानमंत्री ने यह बात कह कर संविधान की जिस भावना पर भारत का लोकतंत्र खड़ा है, उसका अपमान किया है. बग़ैर सूचना और सवाल के आप लोकतंत्र में नागरिक हो ही नहीं सकते हैं. हो कर दिखा दीजिए.
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यह डर ही होगा कि एक्सप्रेस ने इस लाइन को हेडलाइन में जगह नहीं दी. वर्ना एक्सप्रेस जैसा अख़बार इस बात से नहीं चूकता. दुनिया भर में मीडिया को दबाया जा रहा है. भारत में तो ख़त्म ही कर दिया गया. इंडियन एक्सप्रेस में एक से एक फोटोग्राफर हैं. कमाल है इस इंटरव्यू में फाइल फोटो लगाया गया है. अपनी तस्वीरों को लेकर सजग रहने वाले प्रधानमंत्री को फोटोग्राफर से परहेज़ क्यों हो गया.
प्रधानमंत्री ने जिस खान मार्केट को गैंग के रूप में चिन्हित किया है, उन्हें पता नहीं कि उनके ही कई मंत्री, पार्टी के नेता वहां टहलते खाते नज़र आते हैं. गोदी मीडिया के पत्रकार वहां कॉफी पीने जाते हैं. वहां शापिंग करने जाते हैं. प्रधानमंत्री को अपना विरोधी गैंग नज़र आता है. अवार्ड वापसी गैंग, टुकड़े-टुकड़े गैंग और ख़ान मार्केट गैंग. 90 प्रतिशत मीडिया स्पेस में प्रधानमंत्री की वंदना होती है. इसके बाद भी वे किसी गैंग की कल्पना खड़ा कर ख़ुद को बेचारा दिखाना चाहते हैं. जैसे दुनिया उनके पीछे पड़ी है.
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किसान से लेकर बेरोज़गार तक उनसे सवाल कर रहे हैं. क्या ये लोग भी ख़ान मार्केट गैंग के सदस्य हैं? क्या प्रधानमंत्री ख़ान मार्केट गैंग के प्रभाव में बादलों के बीच से रडार से बचते हुए जहाज़ ले जाने वाला बयान दे रहे हैं?
हर सरकार अपने आस-पास सत्ता तंत्र का कुलीन घेरा बना लेती है. मोदी ने अगर पुराने घेरे को तोड़ा है तो नया घेरा भी बनाया है. उनका गैंग ख़ान मार्केट में न रहता हो लेकिन मीडिया से लेकर बालीवुड में जो गैंग है उसका किरदार उस गैंग से अलग नहीं है जो कथित रूप से ख़ान मार्केट में रहता है. प्रधानमंत्री के लिए गोदी मीडिया क्या गैंग की तरह काम नहीं कर रहा है? न्यूज़ को लेकर प्रधानमंत्री की भाषा क्या गैंग के सरदार की भाषा नहीं लगती है?
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इंडियन एक्सप्रेस के बाद न्यूज़ नेशन को दिया गया उनका इंटरव्यू देखिए. दीपक चौरसिया उनसे कविता सुनाने का आग्रह करते हैं. मोदी अपनी मेज़ की तरफ इशारा करते हैं कि फाइल पड़ी होगी यहां, आज ही एक कविता लिखी है. उसके बाद अगला शाट दिखता है कि फाइल उनकी गोद में है. उस जगह पर शॉट रोककर देखने से पता चलता है कि काग़ज़ पर कविता वाला सवाल लिखा हुआ है. जिसे दीपक चौरसिया ने पूछा है. जनता और बीजेपी के समर्थक एक सवाल खुद से पूछें. प्रधानमंत्री इंटरव्यू दे रहे हैं या झांसा दे रहे हैं?
क्या आप ऐसा इंटरव्यू देखना चाहेंगे जिसमें सवाल पहले से तय हों? प्रधानमंत्री के इंटरव्यू को लेकर पहले से इस तरह के सवाल होते रहे हैं. लेकिन झूठ जब बढ़ जाता है तो सत्य झांकने चला आता है. 5 साल बाद ही सही लेकिन अब तो इसकी पुष्टि हो गई कि प्रधानमंत्री लाइव इंटरव्यू तो नहीं ही देते हैं, इंटरव्यू देने से पहले सवाल मंगा लेते हैं और जवाब देने के बाद एडिट करवाते हैं. क्या एडिट किया हुआ इंटरव्यू चैनल पर दिखाने से पहले प्रधानमंत्री की टीम से पास भी कराया गया था?
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जिस प्रधानमंत्री मोदी की दिल्ली की राजनीति में शुरूआत इस बात से हुई थी कि वे खुलकर इंटरव्यू देते हैं. बिना लिखे हुए पढ़ते हैं. इसी बात को लेकर तो मध्यमवर्ग मनमोहन सिंह का मज़ाक उड़ाता था. कहता था कि बोलने वाला प्रधानमंत्री चाहिए. वही प्रधानमंत्री अब रैलियों में टेलिप्राम्टर से बोल रहे हैं. पहले से तय सवालों का जवाब दे रहे हैं. प्रधानमंत्री से बटुआ रखने वाला सवाल फकीरी वाले सवाल जितना ऐतिहासिक है.
प्रधानमंत्री कहानी बनाने में मास्टर हैं. उन्हें पता है कि जनता को अच्छी शिक्षा नहीं मिली है. उसे कोई भी कहानी बेच दो,जनता यकीन कर लेगी. दिल्ली में कथित रूप से ख़ान मार्केट गैंग भले इस बात की आलोचना कर ले कि बादल होने से जहाज़ को रडार नहीं पकड़ेगा, यह बात बकवास है और इसे प्रधानमंत्री को नहीं कहनी चाहिए क्योंकि दुनिया हंसेगी. लेकिन हो सकता है किआम जनता को लगे कि अरे वाह, हमारे प्रधानमंत्री को कितना दिमाग़ है. जिस वायुसेना को आज तक इतनी सी बात समझ नहीं आई, अगर मोदी जी नहीं रहेंगे तो एयर फोर्स वाले लड़ाकू विमान को बैल से खींचने लगेंगे. उन्हें तो उड़ाना भी नहीं आता होगा.
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'मैंने पहली बार 87-88 में डिजिटल कैमरा का उपयोग किया था. उस समय बहुत कम लोगों के पास ईमेल नहीं रहता था. मेरे यहां आडवाणी जी की सभा थी. मैंने डिजिटल कैमरा पर आडवाणी जी की फोटू ली. तब डिजिटल कैमरा इतना बड़ा आता था, मेरे पास था. मैंने दिल्ली को ट्रांसमिट कर दी. आडवाणी जी को सरप्राइज़ हुआ कि दिल्ली में मेरी तस्वीर आज के आज कैसे छपी.'
भारत में इंटरनेट सेवा 15 अगस्त 1995 को शुरू हुई थी. मोदी जी कह रहे हैं कि 87-88 में ईमेल से तस्वीर दिल्ली भेज दी. क्या ईमेल का आविष्कार भी मोदी जी ने ही किया था. किस अख़बार को ईमेल किया था?
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यह दुखद है. जनता और समर्थकों ने प्रधानमंत्री को प्यार से वोट किया है. प्रधानमंत्री मोदी को उनकी बुद्धिमत्ता का अपमान नहीं करना चाहिए. प्रधानमंत्री देश और विदेश में रहने वाले अपने समर्थकों का भी मज़ाक उड़ा रहे हैं. उनके बहुत से समर्थक इस बात पर सीना ताने घूमते हैं कि वे एक पढ़े-लिखे योग्य व्यक्ति का समर्थन कर रहे हैं. कम से कम वे पप्पू नहीं हैं. लेकिन इस जवाब से समर्थक ही बता दें कि उनके लिए पप्पू होने की परिभाषा क्या है. क्यों प्रधानमंत्री मोदी को कहानी बनाने की ज़रूरत पड़ती है? क्यों उन्हें झूठ बोलना पड़ता है? क्यों मोदी को कहना पड़ता है कि न्यूज़ छपना ही लोकतंत्र में सिर्फ एक चीज़ नहीं है?
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