रवीश कुमार : आवाज़ पटेलों की है, मगर दर्द तो सबका है

रवीश कुमार : आवाज़ पटेलों की है, मगर दर्द तो सबका है

अहमदाबाद में पटेलों की महारैली (फाइल फोटो)

नई दिल्ली:

जिस समय सेना और पुलिस पटेल आंदोलनकारियों की हिंसा को नियंत्रित करने के लिए अहमदाबाद की सड़कों पर उतर रही थी, उसी शाम दिल्ली में मोदी सरकार की कैबिनेट बैठक से ओबीसी की केंद्रीय सूची में संशोधन की ख़बर आ रही थी। केंद्र सरकार ने गुजरात और उत्तराखंड से दो जातियों को ओबीसी सूची में शामिल कर लिया है। सिपाई और पट्नी जमात गुजरात की ओबीसी सूची में पहले से शामिल हैं। ये दोनों ही समुदाय ग़रीब ओबीसी जातियां हैं। दोनों में कुछ हिन्दू होते हैं और कुछ मुस्लिम होते हैं। जैसे पश्चिम उत्तर प्रदेश में कुछ राजपूत हिन्दू होते हैं तो कुछ मुस्लिम होते हैं।

ओबीसी कोटा में शामिल किए जाने की मांग करने वाले पटेल नौजवानों को सोचना चाहिए कि सिपाई और पट्नी जमात ने तो लाखों की रैली नहीं की फिर भी इन्हें गुजरात और अब केंद्र की ओबीसी सूची में जगह कैसे मिल गई। क्या पटेल भी सामाजिक आर्थिक आधार पर इन जातियों के समकक्ष हो सकते हैं। दिक्कत यह है कि हम कॉपीराइटरों के लिखे विज्ञापन में देख नेताओं को लौह पुरुष मानने लगे हैं, लेकिन सबको समझना चाहिए कि आरक्षण का आधार आर्थिक करने के लिए उनमें राजनीतिक साहस नहीं है। जब तक ऐसा नहीं होता आरक्षण का आधार जातिगत भेदभाव ही रहेगा और इस पैमाने पर पटेल नौजवान शोषक हैं या शोषित उन्हें खुद सोचना होगा।

आज भी समाज की कई जातियां इस भेदभाव को भुगत रही हैं। गुजरात में ही दलित लड़कियों के साथ बलात्कार की घटना में 500 प्रतिशत की वृद्धि की हुई है। बिहार में एक दलित को मज़दूरी मांगने पर थ्रेसर में डाल दिया गया। दलित दूल्हों को आज भी घोड़ी चढ़ने नहीं दिया जाता है। मैंने नहीं देखा कि आरक्षण विरोधी ट्वीट करने वाले बड़ी संख्या में ऐसी यातनाओं के खिलाफ सड़कों पर निकले हों। इन सवालों के सामने आते ही सब चुप हो जाते हैं।

हर समाज में कुछ अमीर और ज़्यादातर ग़रीब होते हैं। पटेल समाज के लोगों ने अपनी हाड़तोड़ मेहनत से कामयाबी की कई बेमिसाल कहानियां गढ़ी हैं। परदेस जाकर भावनात्मक रूप से विस्थापित भी हुए। वे जब पलायन करते हैं तो कोई नहीं कहता कि गुजरात की स्थिति खराब है। बिहार, यूपी का करता है तो उसे मारा-पीटा जाता है कि वहां के नेताओं ने परदेस को लूट लिया है। इसलिए एक बिहारी प्रवासी और एक पटेल प्रवासी के प्रति समाज का नज़रिया भी एक नहीं है जबकि दोनों गरीबी के सताये हुए हैं।

जो भी है पटेलों की आर्थिक ताकत और आबादी में अठारह फीसदी की हिस्सेदारी ने गुजरात में राजनीतिक रूप से उन्हें प्रभावशाली बनाया है। राज्य के तमाम संसाधनों पर इस समाज के लोगों का प्रभाव है। इसके बावजूद अगर पटेल युवा यह चीख-चीखकर कह रहा है कि उसकी ग़रीबी देखिये। बेरोज़गारी देखिये तो मैं समझता हूं कि उसकी आवाज़ सहानुभूति से सुनी जानी चाहिए। लेकिन यहां भी भेदभाव है। अगर उनकी तरह इन्हीं सवालों के लेकर आदिवासी या मुसलमान सड़कों पर आ गए होते तो समाज और राजनीति की प्रतिक्रिया क्या होती। पटेल आंदोलन पर बीजेपी कांग्रेस ने अपने प्रवक्ता टीवी स्टुडियो नहीं भेजे लेकिन मुसलमानों की मांग के वक्त भी दोनों पार्टियां चुप रहतीं।

खुद पटेल भी मानते हैं कि गुजरात की अन्य जातियों से सामाजिक भेदभाव करने के जो आरोप लगते हैं, उसमें सच्चाई है। अहमदाबाद, सूरत और मेहसाणा के जिन मोहल्लों या इलाकों में हिंसा हुई है, उनकी डिटेल निकालिए। मुसलमानों की बस्ती की बात तो सब कहते हैं, लेकिन अहमदाबाद और सूरत में पटेल बहुल इलाके किसी को नज़र नहीं आते। पटेल बहुल इलाके के बनने की प्रक्रिया पर भी विचार करना चाहिए। कैसे हो गया कि पटेल बहुल इलाकों के अपार्टमेंट में दलितों को प्रवेश नहीं मिला। ओबीसी जातियों को भी नाम मात्र ही प्रवेश मिला। कई पटेल युवाओं ने कहा कि इसमें बदलाव आ रहा है। लेकिन पुलिस भी अहमदाबाद के बापूनगर को पटेल बहुल इलाके के रूप में जानती है। मातृछाया सोसोयटी की एक महिला ने हमारे सहयोगी राजीव पाठक को बताया कि पुलिस भीतर तक आ गई। घर में घुसकर हम सबको मारा है। मीडिया भी कहने लगा कि पटेल बहुल इलाकों से हिंसा और टकराव की खबरें आ रही हैं।

अहमदाबाद और सूरत जैसे कारोबारी शहरों में पटेलों का अपना इलाका बता रहा है कि आर्थिक और राजनीतिक आत्मविश्वास के कारण वे अलग इलाका बसा सकते हैं। यही वजह है कि उनकी अमीरी और आवाज़ दोनों दिखाई और सुनाई देती है, लेकिन ऐसा क्या हो गया कि जो समाज अपने अपार्टमेंट के बगलवाला फ्लैट किसी दलित और ओबीसी के साथ साझा नहीं कर सकता वह ओबीसी सूची में इनके नामों के साथ खुद को देखना चाहता है।

ठीक है कि पटेल नौजवानों की रैली में आरक्षण की मांग हुई तो यह भी उतने ही ज़ोरदार तरीके से कहा गया कि आरक्षण समाप्त कर दिया जाए। ऐसी मांग करने वाले दिल्ली में भी दिखते हैं मगर किसी राजनीतिक दल ने उन्हें नहीं अपनाया। आरक्षण मिटाने की मांग कर पटेल अपनी राजनीतिक ताकत खो देंगे। ओबीसी और दलित एक तरफ आ जाएंगे और फिर उनकी मांग का कोई खुलकर समर्थन भी नहीं करेगा। क्या पटेल नौजवान इस जोखिम के लिए तैयार हैं। इसी जोखिम के कारण पटेल विधायक साथ नहीं दे रहे हैं।

 फिर भी पटेल नौजवानों की बात सुनी जानी चाहिए। उनकी बातों से वो सच्चाई सामने आ रही है जो अक्सर हिन्दुत्व की समग्र पहचान के कारण नज़र नहीं आती।  भले ही दूसरे समाज की भी यही व्यथा हो मगर पटेल नौजवानों ने आवाज़ उठाने की पहल तो की ही है। वो अगर आरक्षण छोड़ इन सवालों पर निकलते तो शायद आज दूसरी स्थिती होती। जो भी है बेरोज़गारी और खेती के संकट के सवाल पटेल नौजवानों के ही नहीं हैं। सबके हैं।

पटेल नौजवानों का आंदोलन जितना गुजरात सरकार के खिलाफ है उतना ही अपने समाज के नेतृत्व के खिलाफ भी। गुजरात विधानसभा में चालीस पटेल विधायक हैं। मुख्यमंत्री भी पटेल हैं और उनके अलावा कई मंत्री भी। इसके बाद भी पटेल नौजवानों का किसी ने साथ नहीं दिया। आरक्षण का सवाल मुश्किल था तो महंगी फीस तो कम की ही जा सकती थी। काफी लंबा वक्त लग जाता है मगर अंत में सबको दिखने ही लगता है कि पटेल ब्राह्मण या यादव के नाम पर नेता बने लोग पार्टी के काम आते हैं, समाज के नहीं।

पटेल नौजवानों को यह दिख गया है कि पटेल विधायक नाम के ही हैं। गुजरात में आवाज़ तो एक ही थी। उस आवाज़ ने जिसके सिर पर हाथ रखा लोगों ने उसे नहीं देखा, नरेंद्र मोदी को देखकर वोट दे दिया। इन बेअवाज़ नेताओं को आप भले चालीस पटेल या सत्तर पटेल में गिन लीजिए, लेकिन सबकी खामोशी बता रही है कि एक भी न होते तो खास फर्क नहीं पड़ता।

यही कारण है कि कई जगहों पर पटेल मंत्रियों से लेकर विधायकों के घर और कार्यालयों को निशाना बनाया गया। हिंसा पटेल बहुल इलाकों में ही हुई और वहां पटेल नेताओ के घर और पार्टी कार्यालयों में तोड़फोड़ की गई। ऊंझा में बीजेपी विधायक नारायण भाई पटेल के दफ्तर में आग लगा दी गई। नारायण भाई पटेल समाज के प्रतिष्ठित नेता हैं। गृहमंत्री रजनी पटेल के घर को जलाने का प्रयास हुआ। मेहसाणा की सांसद जयश्री बेन पटेल के घर पर भी हमला हुआ। मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को अपने निवास की सुरक्षा बढ़ानी पड़ी। गुजरात सरकार में नंबर दो माने जाने वाले नितिन पटेल के घर भी भीड़ पहुंच गई। विसनगर के बीजेपी के विधायक के घर हमला हुआ।
 
पटेल विधायकों के सामने दिक्कत दूसरी है। उन्हें लगता है कि गुजरात में बीजेपी का और बीजेपी में ही उनका राजनीतिक भविष्य है। हिन्दुत्व की राजनीति ने उन्हें बंद रास्ते तक पहुंचा दिया है। अब वे इस पार्टी में अपनी स्थिति बनाए रखना चाहते हैं। इसलिए चुप हैं। सामने नहीं आ रहे हैं, लेकिन निचले स्तर के पटेल नेताओं में बेचैनी बढ़ रही है। कुछ जगहों से पार्षदों या पंचायत सदस्यों के इस्तीफा देने की ख़बरें आईं हैं। राजकोट के पास जसदन तालुका पंचायत के कुछ पटेल सदस्यों ने इस्तीफा दिया है। बीजेपी किसान मोर्चा के उपाध्यक्ष बेचर भादानी ने पद से इस्तीफा दे दिया है। वे पटेल नौजवानों की मांग का समर्थन करने लगे हैं।

इस बीच, गुजरात जैसे छोटे राज्य में 125 से ज्यादा प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गए। ज़्यादातर संस्थान पटेल लोगों के ही हैं। इन कॉलेजों में 60,000 से ज्यादा सीटें हैं। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार छह सरकारी इंजीनियरिंग कालेजों में इस साल एक भी सीट खाली नहीं है, लेकिन प्राइवेट कालेजों में योग्यता नियमों में ढील देने के बाद भी 22,000 से अधिक सीटें खाली रह गईं। गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा है कि स्वपोषित कॉलेजों की फीस इतनी महंगी हो गई है कि वह भी एक कारण हो सकता है।

अमीर पटेलों ने समाज की संख्या के दम पर सत्ता से लाभ लेकर स्कूल कालेज तो खोल लिए मगर फीस बढ़ा कर अपने ही समाज के लड़कों पर कर्ज़े का बोझ डाल दिया। नतीजा पटेल नौजवानों ने कर्ज़ लेकर फीस भरनी शुरू की या फिर फीस भरते भरते कर्ज़ में चले गए। यही हाल दूसरे समाज का भी हुआ होगा मगर शायद उनके बीच पटेलों जैसा आत्मविश्वास नहीं होगा कि वे गुजरात सरकार की घंटी बजा सकते हैं।

जो इंजीनियर बनकर निकले उनका समाधान नौकरी पाकर भी नहीं हुआ। कुछ बेरोज़गार रह गए और कुछ को मिली बेहद कम तनख्वाह। अब इसका समाधान तो आरक्षण से नहीं होगा। आरक्षण के बाद भी ये समस्या रहेगी। फेसबुक पर किसी ने लिखा है कि मई 2015 में राजस्थान में चपरासी के पद के लिए 143 भर्तियां निकली थीं। कृषि विभाग के सामने 77000 आवेदन आ गए। यही हकीकत बिहार यूपी या किसी भी राज्य की है। बेरोज़गार उबल रहे हैं मगर रास्ता नहीं मिल रहा। हिन्दू मुस्लिम की आग में कूद तो जाते हैं मगर हिन्दू होकर भी नौकरी नहीं मिलती। राजनीति बचने के नए-नए रास्ते खोज लेती है और लोग रात अंधेरे में रास्ता खोजने लगते हैं।

यही कारण था कि 25 अगस्त की रैली से पहले की रात अहमदाबाद के मोहल्लों में बड़ी संख्या में औरतें भी निकल कर आईं। ये औरतें अपने बेटों की तकलीफ जानती हैं। अगर बीजेपी की हिन्दुत्व राजनीति ने पटेलों को आत्मविश्वास या संरक्षण नहीं दिया होता तो पटेल भी चुप ही रह जाते। इसलिए नए और पुराने पटेलों के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई। पटेल नौजवानों अगर आरक्षण के सवाल पर अड़े रहे तो इसका मिट जाना तय है। अगर इनके सवाल नौकरी और शिक्षा के निजीकरण और फसलों के बेहतर मूल्य में बदलते हैं तो ये बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं। अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी। योगेंद्र यादव ने ठीक ही कहा है, सब बचने का रास्ता खोज रहे हैं। आरक्षण आसान जवाब नहीं है।

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अगर किसी को लगता है कि आरक्षण खत्म होने का वक्त आ गया है तो एक सवाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी से पूछ लीजिए। उनका जवाब अभी बता देता हूं। हम मानते हैं कि आरक्षण ज़रूरी है और इसमें कोई बदलाव नहीं होगा। बहस तो तभी शुरू होगी जब ये नेता पहल करेंगे। वर्ना किसी बहस की मान्यता नहीं होगी। इनकी ईमानदारी का इम्तिहान ये भी है कि आर्थिक आधार पर गरीब सवर्णों के आरक्षण देने के सवाल पर कम से कम पहल तो करके दिखाएं। इस पर सबकी सहमति है।