कांग्रेस के मीडिया प्रभारी रणदीप सुरजेवाला ने एक महीने के लिए चैनलों में प्रवक्ता न भेजने का एलान किया है. कांग्रेस का यह फैसला मीडिया और राजनीति के हित में है. कम से कम कांग्रेस के हित में तो है. क़ायदे से कांग्रेस को यह काम चुनाव के पहले करना चाहिए था जब तेजस्वी यादव ने ऐसा करने के लिए विपक्षी दलों को पत्र लिखा था. चुनाव हारने के बाद समाजवादी पार्टी ने अपने प्रवक्ताओं की टीम भंग कर दी ताकि वे किसी डिबेट में अधिकृत तौर पर जा ही न सकें. यह फ़ैसला कहीं से मीडिया विरोधी नहीं है. वैसे भी मीडिया से संपर्क रखने का एकमात्र तरीक़ा डिबेट नहीं है. कांग्रेस के इस फ़ैसले को 2014 के बाद मीडिया की नैतिकता में आए बदलवा के संदर्भ में देखना चाहिए.
कांग्रेस का यह फ़ैसला अच्छा है मगर कमज़ोर है. उसे प्रवक्ताओं के साथ खलिहर हो चुके सीनियर नेताओं पर भी पाबंदी लगा देनी चाहिए. अगर वे जाना बंद न करें तो अमित शाह से बात कर बीजेपी में ज्वाइन करा देना चाहिए. प्रधानमंत्री ने भरी सभा में अपने सांसदों से कहा कि छपास और दिखास से दूर रहें. किसी ने नहीं कहा कि एक जनप्रतिनिधि को चुप रहने की सलाह देकर प्रधानमंत्री सांसद की स्वायत्ता समाप्त कर रहे हैं. मतलब साफ़ था कि पार्टी एक जगह से और एक तरह से बोलेगी. आपने पांच साल में बीजेपी सांसदों को चुप ही देखा होगा जबकि उनमें से कितने ही क़ाबिल थे. बिना मीडिया से बोले एक सांसद अपना कार्यकाल पूरा करे यह भयावह है.
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कांग्रेस को चुनावों के समय मीडिया के स्पेस में मिली जगह का अध्ययन करना चाहिए. राहुल गांधी को थोड़ी बहुत जगह तो मिली लेकिन बाकी नेताओं को बिल्कुल नहीं. राहुल गांधी की सभा को सिंगल और आधे कॉलम में छापा गया जबकि बीजेपी के हर नेता की सभी को बड़ा कर छापा गया. सरकार की असफलताओं पर पर्दा डाला गया और विपक्ष का निरंतर मज़ाक़ उड़ाया गया. पूरे पांच साल यही चला है. सारी बहस बीजेपी के थीम को सही मानते हुए की गई. स्क्रीन पर बीजेपी का एजेंडा फ़्लैश करता रहा और कांग्रेस के प्रवक्ता वहां जाकर उस बहस को मान्यता देते रहे.
एक सवाल आप सभी पूंछें. क्या मीडिया में विपक्ष दिखता था? वह मार खाते लुटते पिटते दिखता था. खुलेआम एंकर विपक्ष के नेता को पप्पू कहता था. मज़ाक़ उड़ाया गया. मीडिया ने एक रणनीति के तहत विपक्ष और कांग्रेस को ग़ायब कर दिया. कांग्रेस के प्रेस कांफ्रेंस को स्पीड न्यूज़ में सौ ख़बरों के बीच चलाया गया और बीजेपी नेताओं की हर बात बहस हुई. बहस भी एकतरफ़ा हुई. मीडिया ने सरकार के सामने जनता की बात को भी नहीं रखा. एंटी विपक्ष पत्रकारिता की शुरूआत हुई ताकि लोगों को लगे कि मीडिया आक्रामक है. सवाल सरकार से नहीं विपक्ष से पूछा गया. विपक्ष नहीं मिला तो लिबरल को गरियाया गया.
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कांग्रेस में नैतिक बल नहीं है. वरना हिन्दी प्रदेशों के तीनों मुख्यमंत्री अब तक व्हाइट पेपर रख सकते थे कि बीजेपी की सरकारों में किस मीडिय को पैसा दिया गया. पैसा देने का मानक क्या था और किस तरह भेदभाव किया गया. कांग्रेस की टीम अब तक अपनी रिपोर्ट लेकर तैयार होती कि कैसे इस चुनाव में मीडिया ने एकतरफ़ा बीजेपी के लिए काम किया. अज्ञात जगहों से आए निर्देशों के मुताबिक़ न्याय पर चर्चा नहीं हुई. कांग्रेस बग़ैर मीडिया से लड़े कोई लड़ाई नहीं लड़ सकती है. उसके मैनिफ़ेस्ट में मीडिया में सुधार की बात थी मगर उसके नेता ही चुप लगा गए.
मैं तो बीजेपी से भी अपील करता हूँ कि वह अपना प्रवक्ता न भेजे. अभी तक गोदी मीडिया के एंकर कम लागत वाली चाटुकारिता और प्रोपेगैंडा कर रहे थे. स्टूडियो में तीन लोगों को बिठाया और चालू. बीजेपी अब कहे कि मोदी सरकार की कामयाबी को ज़मीन से दिखाइये. जब ज़मीन से रिपोर्ट बनेगी तो कई सौ रिपोर्टरों को नौकरी मिलेगी. भले ही संघ की विचारधारा के रिपोर्टर को ही मिले. पर क्या यह संघ के हित में नहीं है कि उसकी बीन पर नाचने वाले एक एंकर न होकर कई रिपोर्टर हों. कम से कम वह अपने समर्थकों को रोजगार तो दिलाए. बीजेपी ने मेरा बहिष्कार किया है फिर भी मैं चाहता हूँ कि वह प्रवक्ता किसी भी चैनल में न भेजे. जब बहिष्कार नहीं किया था और एंकर नहीं बना था तब से इस डिबेट के ख़िलाफ़ लिख रहा हूं.
क्या 2019 के चुनाव में मैं भी हार गया हूं
डिबेट की प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है. इसकी उपयोगिता प्रोपेगैंडा फैलाने तक ही सीमित है. इसमें सूचना नहीं होती है. सिर्फ धारणा होती है. डिबेट के कारण किसी चैनल के पास कंटेंट नहीं हैं. मेहनती रिपोर्टर हटा दिए गए हैं. एंकरों को लाया गया है जो पूरी सैलरी लेकर चौथाई काम करते हैं. डिबेट में कोई काम नहीं करना होता है. सिर्फ प्रवक्ताओं के आने के समय पर नज़र रखनी होती है. अपना पेट कम रखना होता है और कपड़े ठीक पहनने होते हैं. एक एंकर औसतन दो से तीन घंटे ही काम करता है. मेरी मानें तो डिबेट करने वाले सारे एंकर की सैलरी आधी कर दी जानी चाहिए. डिबेट ने चैनलों की रचनात्मकता को समाप्त कर दिया है. कंटेंट से ख़ाली चैनल एक दिन न चल पाए अगर बीजेपी और कांग्रेस अपना प्रवक्ता न भेजें. ख़ाली हो चुके चैनलों को भरने की ज़िम्मेदारी कांग्रेस अपनी हत्या की क़ीमत पर क्यों उठाए?
कांग्रेस को यह क़दम कम से कम एक साल के लिए उठाना चाहिए था. एक महीने तक प्रवक्ता न भेजने से दूसरे नंबर के एंकर मारे जाएँगे. क्योंकि इस दौरान बड़े एंकर छुट्टी पर होते हैं. यूपीए के समय एक पद बड़ा लोकप्रिय हुआ था. राजनीतिक संपादक का. संपादक नाम की संस्था की समाप्ति के बाद यह पद आया. तब भी राजनीतिक संपादक महासचिवों और मंत्रियों के नाम और इस्तीफे की ख़बर से ज़्यादा ब्रेक नहीं कर पाते थे. लेकिन अब तो सूत्र भी समाप्त हो गए हैं. शपथ ग्रहण के दिन तक राजनीतिक संपादक बेकार बैठे रहे. मीडिया के मोदी सिस्टम में किसी को हवा ही नहीं लगी कि कौन मंत्री था. चैनलों के सीईओ राजनीतिक संपादकों को निकाल कर भी काफ़ी पैसा बचा सकते हैं. इनका काम सिर्फ मोदी-शाह के ट्वीट को री ट्वीट करना है. इनकी जगह क़ाबिल रिपोर्टरों पर निवेश किया जा सकता है.
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न्यूज़ चैनल तटस्थ नहीं रहे. अब नहीं हो सकते. चैनल सिर्फ सत्ता के प्रति समर्पित होकर ही जी सकते हैं. उन्हें सत्ता में समाहित होना ही होगा. इन चैनलों में लोकतंत्र की हत्या होती है. एंकर हत्यारे हैं. आप खुद भी चैनलों को देखते समय मेरी बात का परीक्षण कीजिए. उम्मीद है मोदी समर्थक भी समझेंगे. वे मोदी की कामयाबी और मीडिया की नाकामी में फ़र्क़ करेंगे. एक सवाल पूछेंगे कि क्या वाक़ई डिबेट में मुद्दों की विविधता है? जनता की समस्याओं का प्रतिनिधित्व है? क्या वाक़ई इन चैनलों की पत्रकारिता पर गर्व होता है?
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