ब्रिटेन के लिए शहीद भारतीय सैनिकों को सलामी दी जा सकती है, तो भीमा-कोरेगांव के महार सैनिकों को क्यों नहीं?

महार जाति के सैनिक अंग्रेजी हुकूमत के लिए लड़े थे. सो, उनकी वीरता का गौरव गान आज कैसे हो सकता है. प्रधानमंत्री मोदी जब ब्रिटिश सेना में शामिल भारतीय जवानों की वीरता का सम्मान कर सकते हैं, तो फिर कोरेगांव की गाथा का भी सम्मान सबको करना चाहिए.

ब्रिटेन के लिए शहीद भारतीय सैनिकों को सलामी दी जा सकती है, तो भीमा-कोरेगांव के महार सैनिकों को क्यों नहीं?

पिछले दिनों हुए महाराष्ट्र में दलितों के प्रदर्शन के दौरान की तस्वीर

अप्रैल 2015, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फ्रांस के लिल (LILLE) स्थित NEUVE-CHAPELLE युद्ध स्मारक गए थे. वहां उन्होंने ब्रिटिश सेना की तरफ से फ्रांस की जमीन पर मारे गए 10,000 भारतीय सैनिकों की शहादत को सलामी दी थी. ऐसा करने वाले वह पहले प्रधानमंत्री बने थे. उन्होंने कहा था कि "हमारे जवानों ने विश्वयुद्ध में विदेशी जमीन पर लड़ाई लड़ी... अपनी निष्ठा, बहादुरी और त्याग के लिए दुनिया की प्रशंसा हासिल की... मैं उन्हें सलाम करता हूं..."
 
प्रधानमंत्री भारतीय सैनिकों की जिस निष्ठा और बहादुरी को सलाम कर रहे थे, वह ब्रिटिश हुकूमत के प्रति थी, न कि हिन्दुस्तान के प्रति. किसी भी लिहाज से प्रधानमंत्री मोदी का यह कदम साहसिक था और अच्छा था. उन्हें याद नहीं रहा होगा, वरना सबसे पहले वही भीमा-कोरेगांव जाकर महार सैनिकों की बहादुरी का सम्मान करते. भीमा एक नदी का नाम है, कोरेगांव एक गांव का नाम है.
 
मैंने कई जगहों पर पढ़ा है कि महार जाति के सैनिक अंग्रेजी हुकूमत के लिए लड़े थे. सो, उनकी वीरता का गौरव गान आज कैसे हो सकता है. प्रधानमंत्री मोदी जब ब्रिटिश सेना में शामिल भारतीय जवानों की वीरता का सम्मान कर सकते हैं, तो फिर कोरेगांव की गाथा का भी सम्मान सबको करना चाहिए. मराठाओं को भी, चितपावनों को भी और प्रधानमंत्री को सबसे पहले. उस जलसे में जिग्नेश के साथ प्रधानमंत्री को भी मंच साझा करना चाहिए था.
 
इतिहास हमारी दुविधा का इम्तिहान ले रहा है. इसका एकमात्र कारण यह है कि जब इतिहास पढ़ने का वक्त होता है, तब हम उसे हिकारत की निगाह से देखते हैं, फालतू विषय समझते हैं. जब राजनीति के लिए इतिहास का इस्तेमाल होता है, तब हम ऐसे बर्ताव करते हैं, जैसे इतिहास में आचार्य की डिग्री ली हो.
 
'गोदी मीडिया' के 'गुंडा एंकरों' और चाटुकार राजनीतिक पत्रकारों ने इस बात का मजाक उड़ाया है कि ब्रिटिश सेना के लिए लड़ते हुए कोई बहादुरी का गौरव गान कैसे कर सकता है. उन्हें प्रधानमंत्री मोदी की फ्रांस यात्रा के समय दी गई सलामी याद नहीं रही. प्रथम विश्वयुद्ध में 11 भारतीयों को विक्टोरिया क्रॉस मिला था, जिनमें से छह फ्रांस और फ्लैंडर्स में लड़ते हुए शहीद हुए थे. हाल ही में एक फिल्म आई थी 'डनकर्क', जिसमें भारतीय सैनिकों का पक्ष न दिखाए जाने की बहुत आलोचना हुई थी. इस बात के बावजूद फिल्म बेहद शानदार थी.
 
बहुत साल पहले मैंने 1857 की क्रांति पर एक स्पेशल रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें मेरठ के डॉक्टर और इतिहासकार और झांसी की मिसेज कैंटम के प्रयासों की चर्चा थी. इन लोगों ने 1857 की क्रांति में मारे गए ब्रिटिश अफसरों और उनकी पत्नियों के कब्रिस्तान को फिर से ठीक-ठाक कर दिया था. इन कब्रों को 1857 से जुड़ी स्मृतियों के नक्शे पर ला दिया था. उन कब्रों पर अंग्रेज अफसर और उनकी पत्नियों के साथ हुई हिंसा की दास्तान लिखी है. आज भी ब्रिटेन से उन अफसरों के खानदान के नाती-पोते जत्थों में आते हैं और इन कब्रों का दर्शन करते हैं.
 
इतिहास का अपराधबोध किसी भी समाज को जकड़ लेता है. वह इतिहास को समझने लायक नहीं रह जाता है. नासमझी में वह वर्तमान से इतिहास का बदला लेने लगता है. इतिहास विषय की ट्रेनिंग से मैं इस अपराधबोध से उबर सका कि मैंने कोई गलती नहीं की है. इतिहास को हमेशा नए-नए नजरियों से देखते रहना चाहिए. सच बात यह है कि जब मैंने यह रिपोर्ट की थी, तब लगा कि मुझसे कोई अपराध हो गया है. मुझे खुशी है कि मैंने वह रिपोर्ट की. सिपाहियों पर भी अलग से की.
 
यह सही है कि 1857 में ब्रिटिश सेना ने कई हजार भारतीयों को तोप से उड़ा दिया था, पेड़ से लटका दिया था. दिल्ली में लालकिला और जामा मस्जिद के इलाके में रहने वाले हजारों हिन्दुस्तानियों को उड़ा दिया गया था. यह भी सही है कि जवाबी हमले में ब्रिटिश हुकूमत के अफसरों और पत्नियों पर भी ज़ुल्म ढाए गए.
 
मेरठ के सेंट जॉन सेमिट्री में मैंने देखा कि ईस्ट इंडिया कंपनी के बहादुर अफसर गिलेस्पी की कब्र पर लोग फूल-अगरबत्ती चढ़ाते हैं और मन्नतें मांगते हैं. गिलेस्पी की बहादुरी के हिसाब से उसकी कब्र काफी भव्य और विशाल है. इन सभी पहलुओं का जिक्र करना वतन के साथ गद्दारी नहीं, बल्कि इतिहास के साथ एक अच्छा इंसाफ है. इतिहास का मतलब होता है, जो हुआ है, उसे जानना.
 
इतिहास की किसी घटना को आप मौजूदा पहचान की राजनीति का हिस्सा बनाएंगे, तो समस्याएं पैदा होंगी. आनंद तेलतुम्बडे ने इस बारे में विस्तार से लिखा है कि भीमा कोरेगांव की घटना बहादुरी की मिसाल है, मगर इसे अन्य मिसालों का प्रतीक बनाना भी एक तरह से मिथक रचना है. पर यह मिथक नाकाबिले-बर्दाश्त अब क्यों हो रहा है...?
 
न्यूज़ चैनलों पर तीन साल से तरह-तरह के इतिहास को ठीक किया जा रहा है. कुतर्कों और सत्ता के दम पर इतिहास थोपा जा रहा है. महाराणा प्रताप को विजेता घोषित कर दिया गया. टीवी पर किस दमदार तरीके से दावा करने वालों ने इतिहास के अनुशासन की धज्जियां उड़ाईं, आपने देखा होगा. रानी पद्मिनी के इतिहास के साथ राजस्थान में जो हुआ, वह भीमा कोरेगांव की घटना की इतिहासबाजी से कैसे अलग है.
 
अगर एक जाति विशेष को एक फिल्म के बहाने तमाम मिथकों के ऐतिहासिक बना देने का दावा सही है, तो एक जाति विशेष को अपने शानदार इतिहास से नए-नए मिथकों के गढ़ने की छूट क्यों नहीं है...? इस अंतहीन सवाल का कोई ठोस जवाब नहीं है. इतिहास को गौरव गाथा की किताब में आप जितना समेटेंगे, अपना वर्तमान उतना ही संकुचित करेंगे.
 
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