लखनऊ से दिल्ली की दूरी लगभग 500 किमी है, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजधानी में दिल्ली के राजनीतिक घटनाक्रम का असर रोज और लगातार पड़ता रहता है। क्या भला ऐसा हो सकता है कि 15 वर्षों तक अपनी बहू के दिल्ली के मुख्यमंत्री बने रहने का प्रभाव उत्तर में कांग्रेस पार्टी पर न पड़ा हो?
इस प्रभाव का स्पष्ट संकेत उस घोषणा में देखा जा सकता है जिसके द्वारा कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के नाम को यूपी में कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किया। यदि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार शीला दीक्षित के नेतृत्व में बनती है तो यह देश में पहली बार होगा कि एक व्यक्ति दो राज्यों का मुख्यमंत्री बनेगा। इससे पहले नारायण दत्त तिवारी को यह गौरव मिला था जब वे उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तराखंड (तब उत्तरांचल) के भी मुख्य मंत्री बने, लेकिन उत्तराखंड का गठन, उत्तर प्रदेश के विभाजन से हुआ था। शीला दीक्षित का राजनीतिक करियर इस मायने में भी अलग है कि वे उत्तर प्रदेश के कन्नौज से लोकसभा सदस्य रह चुकी हैं, केंद्र में मंत्री रह चुकीं हैं और दिल्ली के गोल मार्केट से विधायक रहने के साथ 1998 से 2013 तक दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं।
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शीला और राज बब्बर को ला कांग्रेस ने दिए नए समीकरण के संकेत
शीला दीक्षित के उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अभियान का नेतृत्व करने और इसके कुछ दिन पहले राज बब्बर को यूपी कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस ने एक बिलकुल नए तरह के समीकरण के संकेत दिए हैं। बड़ी ही सफाई से किसी भी पिछड़ी या दलित जाति के नेता को न चुन कर पार्टी ने अपनी अलग सोच दिखाने की कोशिश की है, साथ ही सवर्ण जातियों को यह संदेश देने की कोशिश भी की है कि सभी अन्य दल की तुलना में कांग्रेस उनके हितों को समझती है। साथ ही, राज बब्बर के मुस्लिम परिवार में विवाहित होने का भी लाभ लिया जा सकता है। बड़ी बात यह है कि जहां राज बब्बर को चुनने में कोई जातिगत समीकरण नहीं नज़र आते, वही बब्बर किसी खेमे या गुट से जुड़े हुए नहीं माने जाते। लेकिन उ.प्र. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष निर्मल खत्री भी इसी तरह युवा नेता माने जाते थे, और उनका भी किसी जातिगत या क्षेत्रीय गुट से प्रत्यक्ष जुड़ाव नहीं था, इसके बावजूद वे प्रभावी अध्यक्ष कभी नहीं बन पाए।
देखना यह होगा ये नेता यूपी में कितना समय दे पाएंगे
एक और संयोग यह है कि यूपी में कांग्रेस के प्रभारी गुलाम नबी आज़ाद और प्रदेश अध्यक्ष, दोनों ही राज्यसभा सदस्य हैं और दीक्षित पिछले कई दशकों से दिल्ली में ही स्थापित रही हैं। संसद के आगामी सत्र में हो सकता है कि पार्टी को राज्यसभा में अपने सभी सदस्यों की जरूरत दिल्ली में हो और वही समय होगा जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव प्रचार की रणनीति बनाने के लिए इन नेताओं को लखनऊ या प्रदेश में कहीं अन्यत्र बैठक करना पड़े। देखना यह होगा कि दिल्ली-आधारित ये नेता लखनऊ या उत्तर प्रदेश को कितना समय दे पाएंगे। पूर्व प्रभारी मधुसुदन मिस्त्री भी मूलतः लखनऊ आधारित नहीं थे और केवल बैठक आदि करने के लिए कुछ दिनों तक लखनऊ में रहते थे।
प्रशांत किशोर के फार्मूले के सभी शर्त होती जा रहीं पूरी
आज भी प्रदेश के कई दिग्गज कांग्रेस नेता लखनऊ स्थित यूपीसीसी के कार्यालय में आते ही नहीं हैं और अपने समर्थकों के साथ बैठ कर कार्यालय की गतिविधियों पर टिप्पणी करते रहते हैं। आज़ाद, दीक्षित और बब्बर इस तरह की गतिविधियों पर कैसे रोक लगा पाएंगे, यह अगले कुछ हफ़्तों में मालूम होगा। अब यह भी लगभग तय है कि प्रियंका वाड्रा प्रदेश में व्यापक तौर से कांग्रेस का प्रचार करेंगी और इसी के साथ प्रशांत किशोर के फार्मूले की सभी शर्तें पूरी होती दिखाई दे रहीं हैं। कुछ दिनों पहले तक जीत के लिए रणनीति की तलाश करते कांग्रेस कार्यकर्ताओं को लग रहा है कि अबकी बार उनके पास ऐसी टीम और समीकरण हैं जिससे प्रदेश में उनकी सरकार बनी ही समझो।
केंद्र सरकार के साथ सपा सरकार पर भी साधना होगा निशाना
लेकिन पार्टी के ही कुछ वरिष्ठ नेता और प्रवक्ता मानते हैं कि इतना ही काफी नहीं है। जिस तरह से समाजवादी पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आक्रामक प्रचार में उतर गए हैं, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के अमित शाह और अन्य नेता इसका जवाब उसी तर्ज पर देने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस के लिए सिर्फ भाजपा और केंद्र सरकार पर हमला बोलना ही शायद काफी न हो, उसे सपा सरकार की कमियों और कमजोरियों पर भी जोरदार हमला बोलना होगा। भाजपा नेता ओपी पाण्डेय पूछते हैं, 'क्या कांग्रेस पार्टी के नेता अखिलेश यादव, उनके मंत्रियों शिवपाल यादव और मोहम्मद आजम खान, सपा कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी, पुलिस की नाकामी और भ्रष्टाचार पर भी बोलेंगे या केवल नरेंद्र मोदी की सरकार को ही निशाना बनाते रहेंगे?' जवाब में कांग्रेस के प्रवक्ता कहते हैं कि पार्टी के लिए सपा और भाजपा, दोनों ही को निशाने पर रखना जरूरी है क्योंकि दोनों ही पार्टियां लोगों की अपेक्षा पर खरी नहीं उतर पाई हैं।
पूर्व मंत्रियों-सांसदों को भी विधानसभा चुनाव में उतारने पर विचार
हाल में यह भी खबर मिली है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने पूर्व मंत्रियों और सांसदों को भी विधानसभा चुनाव में उतारने पर विचार कर रही है। ऐसे में क्या जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, सलमान खुर्शीद, प्रदीप जैन आदित्य, श्रीप्रकाश जायसवाल और पीएल पूनिया समेत कुछ और नेता भी विधानसभा चुनाव लड़ेंगे, यह भी देखना दिलचस्प होगा। अपने आक्रामक और अक्सर आपत्तिजनक टिप्पणियों के बावजूद राज बब्बर अपने सिनेमाई व्यक्तित्व की वजह से भीड़ जुटाकर भीड़ को पसंद आने वाली बातें करतें हैं और शीला दीक्षित व आज़ाद अपने शालीन व्यवहार के लिए जाने जाते हैं। संप्रदाय, जाति और वर्ग के समीकरण साधने के बाद अब बारी है प्रचार में ताकत दिखाने की, और कांग्रेस के सामने कम समय में ज्यादा हासिल करने की चुनौती है...।
रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...
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This Article is From Jul 14, 2016
जाति+अनुभव = कांग्रेस का यूपी में जीत का फार्मूला
Ratan Mani Lal
- ब्लॉग,
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Updated:जुलाई 14, 2016 19:54 pm IST
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Published On जुलाई 14, 2016 18:29 pm IST
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Last Updated On जुलाई 14, 2016 19:54 pm IST
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