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This Article is From Jul 06, 2016

विकास का एजेंडा, और नरेंद्र मोदी कैबिनेट के नए मंत्री...

Ratan Mani Lal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 06, 2016 11:33 am IST
    • Published On जुलाई 06, 2016 11:33 am IST
    • Last Updated On जुलाई 06, 2016 11:33 am IST
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार, 5 जुलाई को अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल किया, कई राज्यों से कई मंत्री बनाए गए, कुछ हटाए गए, लेकिन इस पूरी कवायद को उत्तर प्रदेश में कुछ महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव के नज़रिये से ही देखा जा रहा है। उत्तर प्रदेश के किस क्षेत्र और किन जातियों से किसे मंत्री बनाया गया, इनमें आगामी चुनाव के समीकरण साधने के प्रयास नजर आ रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के जिन तीन सांसदों को मंत्री बनाया गया है, उनमें दो पूर्वी और एक मध्य (या अवध) क्षेत्र से हैं, और तीनों ही पहली बार लोकसभा के लिए 2014 में चुने गए। यदि प्रशासनिक क्षमता और पार्टी में सक्रियता के नजरिये से देखा जाए, तो तीनों ही भारतीय जनता पार्टी में स्थानीय और सीमित प्रभाव के नेता हैं, लेकिन अपने क्षेत्र में अपनी जाति के लोगों पर प्रभाव डालने में सक्षम माने जाते हैं। मिर्जापुर की सांसद अनुप्रिया पटेल अपनी पार्टी 'अपना दल' के आतंरिक विवादों के कारण चर्चित रही हैं, और कुछ समय पहले उनके बारे में यह भी सुनने में आता रहता था कि वह केंद्र में मंत्री न बनाने के कारण असंतुष्ट चल रही थीं। अनुप्रिया को कुछ दिन पहले ही उनकी मां कृष्णा पटेल ने अपना दल से निष्कासित किया है। अनुप्रिया कुर्मी समुदाय की प्रमुख नेता हैं और पिछले कुछ दिनों से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार – जो स्वयं एक कुर्मी नेता हैं – उत्तर प्रदेश में वाराणसी और आसपास के क्षेत्रों में शराबबंदी अभियान के तौर पर अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, और अनुप्रिया के ज़रिये इस जाति/समुदाय को संदेश दिया गया है।

इसी प्रकार, शाहजहांपुर से सांसद कृष्णा राज भी अपने क्षेत्र में दो बार विधायक रह चुकी हैं और दलित समुदाय में अपनी जाति की प्रभावशाली नेता मानी जाती हैं। दलित समुदाय को लुभाने में लगी बीजेपी का यह निर्णय भी जाति के समीकरण से ही प्रभावित लगता है। लगभग यही विवरण चंदौली के सांसद महेंद्र पाण्डेय पर भी लागू होता है, जो अपने क्षेत्र में तो अपने ब्राह्मण समुदाय के प्रभावशाली नेता हैं, लेकिन प्रदेश बीजेपी में उनका प्रभाव सीमित है। चूंकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने हालिया मंत्रिमंडल फेरबदल में एक ब्राह्मण नेता को हटाकर दूसरे ब्राह्मण नेता को जगह दी, ऐसे में पाण्डेय को मंत्री बनाना बीजेपी द्वारा भी ऐसा करने के रूप में देखा जा सकता है।

कुछ महीने पहले इलाहाबाद के निकट फूलपुर से सांसद केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष बनाया गया। इस निर्णय में भी ऐसा लगा कि उनकी कार्यकुशलता, संगठनात्मक या प्रशासनिक क्षमता से ज्यादा उनकी जाति के आधार पर उन्हें यह पद दिया गया। माना गया कि यह अति पिछड़े समुदाय को संदेश देने की कोशिश थी।

लेकिन जाति के आधार पर बुरी तरह बंटे हुए उत्तर प्रदेश से यदि किसी भी सांसद को मंत्री बनाया जाए, तो उसके पीछे जातिगत आधार तो होगा ही, यह अब शोध या विश्लेषण का विषय नहीं रह गया है। इस फेरबदल के पीछे जो एक अलग सोच दिख रही है, वह यह हो सकती है कि इन तीन मंत्रियों से अब कम से कम अपने क्षेत्र में कुछ काम कराए जाने की अपेक्षा की जाएगी। ऐसा इसलिए है कि प्रदेश में 73 लोकसभा सदस्य होने के बावजूद बीजेपी के सांसदों पर – कुछ अपवादों को छोड़कर – अपने क्षेत्र में ही निष्क्रिय होने के आरोप लगते रहते हैं। हाल ही में ऐसी रिपोर्ट भी आई हैं कि कई सांसदों ने गोद लिए हुए गांवों में भी कोई विशेष काम नहीं करवाया है, और कई ने अपनी सांसद निधि का भी उचित इस्तमाल नहीं किया है।

आने वाले कुछ महीनों में पार्टी को प्रदेश में अपने चुनाव प्रचार के लिए एक चेहरे की ज़रूरत पड़ सकती है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के चेहरे या लोकप्रियता पर नहीं लड़े जा सकते। यदि इसी सिद्धांत को आगे बढाया जाए, तो क्या ऐसा हो सकता है कि किसी ऐसे अप्रत्याशित चेहरे को सामने लाया जाएगा, जिसकी क्षमता या प्रभाव से ज्यादा उसकी व्यक्तिगत अपील और जाति/समुदाय की कड़ियां ज्यादा मजबूत हों...?

और अंततः, केवल विकास का एजेंडा होने का दावा करने के बावजूद केंद्र में सत्तारूढ़ दल को भी यदि जातिगत समीकरणों का सहारा लेना पड़ ही जाता है, तो यह हमारे समाज और राजनीतिक तंत्र की आवश्यकता नहीं तो और क्या है...? दूसरी ओर, कहीं यह भी तो संकेत हैं कि केंद्र की सरकार चलाने और निर्णय लेने का जिम्मा तो फिलहाल प्रधानमंत्री का ही है, ऐसे में यदि मंत्रिमंडल में नए सदस्यों में अनुभव की कमी हो भी, तो कुछ विशेष अंतर नहीं पड़ने वाला।

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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