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This Article is From Feb 18, 2016

आइए, एक बार सोचकर देखें, क्या आत्महत्या फैशन हो सकती है...?

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 18, 2016 17:52 pm IST
    • Published On फ़रवरी 18, 2016 16:58 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 18, 2016 17:52 pm IST
जिस वक्त 'किसान मित्र' प्रधानमंत्री देश को महत्वाकांक्षी फसल बीमा योजना की सौगात दे रहे थे, उससे कुछ घंटे पहले उत्तर मुंबई के बीजेपी सांसद गोपाल शेट्टी अपने बयान से किसान मित्रता की मिट्टी पलीत कर रहे थे। सांसद जी के मुताबिक 'किसान आत्महत्या भूख और कर्ज़ की वजह से नहीं हो रही हैं, बल्कि आत्महत्या को लेकर किसानों में फैशन-सा चल पड़ा है...' समाचार एजेंसी पीटीआई की ख़बर की मानें तो उनका कहना है कि 'किसानों को अगर महाराष्ट्र सरकार पांच लाख रुपये देती है, तो कोई और सरकार सात या आठ लाख रुपये दे देगी... यहां किसानों को पैसे देने की प्रतियोगिता चल रही है...'

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, जब किसानों की आत्महत्याओं पर असंवेदनशील रवैया सामने आया है। बिना कोई बहस किए अपने वेतन-भत्तों को कई-कई गुना बढ़ा लेने वाले जनप्रतिनिधि इससे पहले भी किसानों के मामलों पर गैर-जिम्मेदाराना बयान दे चुके हैं। यहां तक कि किसान आत्महत्याओं के सवाल पर देश की संसद और विधानसभाओं में यह भी बताया गया है कि वे 'प्रेम संबंधों' और 'नामर्दी' के चलते आत्महत्याएं कर रहे हैं।

क्या मायावी नगरी में फिल्मी सितारों के बीच बसने वाले सांसद गोपाल शेट्टी प्रधानमंत्री की कवायद को झुठला रहे हैं, अथवा एक गरीब परिवार में जन्म लेकर भी वह भारत की गरीबी को भूल गए हैं...! किसी की मजबूरी या गरीबी यदि फैशन है तो भारत की 80 फीसदी के लगभग आबादी कई-कई रिपोर्ट में 20 रुपये रोज़ाना से कम में गुज़ारा करके 'बीपीएल' नहीं कहलवा रही होती। विदर्भ से लेकर बुंदेलखंड तक में यदि किसान अपनी पूरी समृद्धि में होता तो किसानों के हित की इतनी बड़ी योजना को लागू करने की प्रधानमंत्री को ज़रूरत ही क्यों होती...?

ज़ाहिर है, जब किसी का भी बीमा किया जाता है तो एक ज़िन्दगी के जोखिम को कम से कम करने की कोशिश की जाती है। जोखिम हुआ भी तो उससे होने वाली हानि की भरपाई करने की कोशिश करते हैं, और जब पिछली तमाम फसल बीमा योजनाओं से बड़ी, महत्वाकांक्षी और बेहतर करार दी जा रही बीमा योजना का आगाज़ कर दिया गया है, तो इसकी पृष्ठभूमि में किसानों के बुरे हालात हैं या नहीं।

पिछली बीमा योजनाओं में हमने देखा कि कैसे फसल बीमा की विसंगतियों के चलते किसानों को सवा रुपये तक का चेक मुआवजे के रूप में मिला, जो योजना का मज़ाक बनकर रह गया। ऐसे में खेती-किसानी को यदि प्रधानमंत्री प्राथमिकता से ले रहे हैं तो यह एक बेहतर पहल मानी जाएगी, लेकिन यदि संवेदना के स्तर पर आप किसानों की आत्महत्याओं को प्रेम संबंध या फैशन मानने लगेंगे (जैसा ख़बरों में कहा गया और इसे मीडिया द्वारा तोड़-मरोड़कर पेश किया गया बयान नहीं बताया गया) तो ज़ाहिर तौर पर यह सही रवैया नहीं है।

क्या आप जानते हैं कि देश में हर घंटे कितनी आत्महत्याएं हो रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो बताता है 13... साल 2014 की रिपोर्ट के मुताबिक एक साल में 1,33,666 लोगों ने मौत को खुद गले लगाया। इनमें से तकरीबन 70 प्रतिशत वे लोग थे, जिनकी आय एक लाख रुपये वार्षिक से भी कम थी। इनमें भी यदि आप शैक्षिक स्तर देखें तो तकरीबन 85 प्रतिशत लोग 12वीं कक्षा से कम और तकरीबन 74 प्रतिशत लोग 10वीं कक्षा से कम पढ़े थे। आत्महत्या करने वाले तकरीबन 54 प्रतिशत लोग आठवीं दर्जा भी पास नहीं कर पाने वाले थे। तो यह कौन लोग हैं, जो मौत को फैशन की तरह गले लगा रहे हैं। ज़ाहिर है, इनकी इहलीला समाप्ति के पीछे एक मजबूरी, बेचारी और लाचारी है, वरना खुद की जिंदगी को कौन खत्म करना चाहता है...?

होना तो यह भी चाहिए कि किसानों की आत्महत्याओं को अब अलग से दर्ज करने का सिस्टम बने, जिसमें हर आत्महत्या का ऑडिट हो, और आत्महत्या की असली वजह का पता लगाया जाए, क्योंकि जब एक किसान मरता है तो पूरा परिवार ही संकट में आ जाता है। बीमा योजना केवल फसल को राहत नहीं देगी, अपने बुनियादी रूप में सिस्टम के भ्रष्टाचार से बचती हुई यह असल में किसानों तक पहुंच पाई तो निश्चित ही देश के लिए राहत की बात होगी।

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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