बाज़ार में कुछ भी बिक सकता है. लो साहब! पातालकोट भी बिक गया. महज़ 11 लाख में मध्य प्रदेश की अनूठी दुनिया 'पातालकोट' का वह हिस्सा बेच दिया गया, जहां से इस खूबसूरत वादी का विहंगम हिस्सा दिखाई देता था. बिकवाल कोई और नहीं, वही था, जिस पर बचाए रखने की ज़िम्मेदारी थी.
कुदरत ने हज़ारों सालों से अपने विकास में अपनी सभी संतानों को समानता का नैसर्गिक हक दिया होगा. राजशाही के इतिहास में भी तानाशाहों ने आम आदमी के लिए नदी, पहाड़, जंगल, वायु जैसी चीजों पर टैक्स नहीं लगाया, उसे सर्वसुलभ बनाए रखा, बिना किसी लिखित संविधान के.
सत्तर साल पहले के भारतीयों ने भी जब संविधान की प्रस्तावना आत्मार्पित की, तब समता, स्वतंत्रता, न्याय की बात का बड़ा ध्यान रखा. लेकिन उदारीकरण के बाद के केवल तीसरे दशक तक ही पूंजी के तांडव ने वह तमाशा किया, जिसमें केवल अपने लाभ के लिए संसाधनों पर कब्जा, कब्जे से अधिकतम लूट. लूट किसी भी कीमत पर. इसकी ताजा मिसाल पातालकोट का वह हिस्सा है, जिसे किसी और ने नहीं, सरकार ने एक कंपनी को साहसिक गतिविधियों के नाम पर दिया. कंपनी ने बहुत बेहयाई से वहां अपने कब्जे की बागड़ भी लगाकर 'लाभ कमाने की फैक्टरी' भी चालू कर ली.
वह तो भला हो मध्य प्रदेश की जनता का, जिसने सरकार बदल दी. भला हो अखबार 'पत्रिका' का, जिसने दम से यह मुद्दा उठा दिया. और भला हो कांग्रेस सरकार और मुख्यमंत्री का, जिन्होंने इस मामले पर संज्ञान ले लिया. वरना, बहुमत की ताकत पाने के बाद धरोहरों को गिरवी रखने के कई उदाहरण हमने पहले भी देखे हैं, छत्तीसगढ़ में कुछ साल पहले शिवनाथ नदी को एक कंपनी को बेच डालने की कवायद हम पहले भी देख चुके हैं. भारी विरोध के चलते वह नहीं हो पाया, लेकिन यह इस संसाधनों को पूंजी के हवाले कर डालने के लिटमस टेस्ट ज़रूर हैं. यदि आप बोलेंगे नहीं, विरोध नहीं करेंगे, तो बेच दिए जाएंगे.
पातालकोट पर नज़र क्यों...? पातालकोट शब्द सुनकर आपके ज़हन में एक रहस्यमयी संसार की छवि आती है. इसके बारे में तरह-तरह की कहानियां हैं. सुनते हैं, यहां सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती, लोग अब भी आदिमानव की तरह रहते हैं. यह छिंदवाड़ा जिले के तामिया विकासखंड का इलाका है. यहां प्रमुख रूप से भारिया आदिवासी रहते हैं. प्रिमिटिव ट्राइबल ग्रुप अर्थात् आदिम जनजाति समूह यानी PTG. जनगणना, 2011 के अनुसार यहां की कुल आबादी बारह आबाद गांवों में 3,820 है.
यह इलाका 79 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. समुद्र सतह से इसकी ऊंचाई 2,750 से 3,250 फुट है. सतपुड़ा के पठार पर छिंदवाड़ा से उत्तर में 62 किलोमीटर और तामिया विकासखंड मुख्यालय से 23 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. तीन तरफ से ऊंची पहाडि़यों से घिरा यह क्षेत्र आवागमन के पर्याप्त साधनों से वंचित है. पातालकोट के किसी भी गांव में जाने के लिए 1,200 से 1,500 फुट नीचे उतरना पड़ता है.
इसकी भौगोलिक परिस्थिति ही इसे विचित्र बनाती है, लेकिन इसके साथ ही उन 3,000 लोगों का जीवन भी है, जिसे हम मुख्यधारा से बाहर का जीवन मानते रहे हैं. यह अलग बात है कि उन लोगों के लिए उनकी मुख्यधारा तो वही है, क्योंकि वह उसी में खुश थे, उनकी ज़रूरत का उनको वहीं मिल ही जाया करता था और यह बहुत पुरानी बात नहीं है.
पत्रकार मित्र साकेत दुबे ने भारिया जनजाति पर शोध करते हुए जानकारी निकाली थी कि 1960-61 में टाटा इंस्टीट्यूट की रिसर्च ऑफिसर सरला देवी राय ने लिखा था कि '60 के पूरे दशक तक और उसके बाद भी काफी समय तक यहां कुपोषण नहीं था. चिंतक कपिल तिवारी ने भी अपने शोध अध्ययन से बताया था कि जनजातियों में खाद्य असुरक्षा और कुपोषण नहीं था. यह मामला पिछली डेढ़-दो सदियों में अंग्रेज़ी शासन और आज़ादी के बाद हुए तथाकथित विकास के नतीजे में आया. इन दो कथनों के बराबर से देखते हैं, तो विकास का एक ऐसा चेहरा हमारे सामने आता है, जिसने उस समुदाय का तो विनाश ही किया है, जो ऐसे संसाधनों पर नैसर्गिक रूप से टिका हुआ है, लेकिन हम तो उसे पिछड़ा ही मानते हैं.
...और हमारा विकास जब ऐसे सोचने लग जाता है कि पर्यटन के आने से उस क्षेत्र का भला हो जाएगा, उस क्षेत्र के लोगों को आजीविका मिल जाएगी, तब दरअसल उसके साथ अन्याय ही हो रहा होता है. पातालकोट भी इसकी एक नज़ीर बनता नज़र आ रहा है, क्या हम उस क्षेत्र के लोगों को चिड़ियाघर का प्राणी मानकर उसके दर्शन करने के लिए ऐसे व्यू प्वाइंट तैयार कर रहे हैं.
सोचने की बात यह है कि इसी पातालकोट के पास 18 जून, 1978 को भारिया विकास प्राधिकरण खोला गया था. इसका मुख्यालय भी तामिया में ही बनाया गया था. इस प्राधिकरण बनने के 40 साल बाद भारिया समुदाय का क्या कुछ हो पाया, कहा नहीं जा सकता. पर यह ज़रूर है कि अब पातालकोट में वे संसाधन नहीं बचे हैं, न ही वैसा रहन-सहन बचा है, जिसके लिए पातालकोट जाना जाता था.
आपत्ति पर्यटन पर नहीं है. सभ्यता की शुरुआत से ही देशाटन होता रहा है. देशाटन में केवल मनोरंजन नहीं होता. वहां की शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता का प्रसार भी होता है. इब्नेबतूता की यात्रा ऐसे ही तो याद नहीं रखी जाती. पर्यटन के ही कितने ही ऐसे स्थान ऐसे ही भगीरथ प्रयासों से खोजे गए, जिन्होंने दुनिया के लिए रहस्यमयी संसार के रास्ते खोले. वह भीमबैठका, अजंता-एलोरा, कोणार्क, खजुराहो न जाने कहां तक फैला संसार है, लेकिन जब से इस देशाटन को पर्यटन के रूप में विशुद्ध मनोरंजन के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है, तब से इसकी चिंता और बढ़ गई है. केवल वहीं नहीं, पर्यटन के बदले में उन संसाधनों पर सबसे पहला हक भी किसका होना चाहिए, यह भी चिंता का एक और विषय है. और यदि उनकी बलि ली भी जा रही है, तो उसको बदले में क्या और कैसे दिया जाएगा, यह भी तय किया जाना चाहिए.
संसाधनों पर पहला हक उसके स्थानीय लोगों का ही है, यह समझा जाना चाहिए कि वह उसके उपभोक्ता नहीं, संरक्षक हैं. इसलिए किसी नदी, किसी तालाब, किसी पेड़, किसी पातालकोट पर कोई कंपनी स्थानीय लोगों के लिए पाबंदी नहीं ही लगा सकती है.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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