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This Article is From Nov 24, 2017

गुजरात चुनाव : CD छोड़िए, इन मुद्दों का तो पोस्टर भी नहीं बनता

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 11, 2017 12:06 pm IST
    • Published On नवंबर 24, 2017 14:58 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 11, 2017 12:06 pm IST
जब भी चुनाव आते हैं, एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए CD से लेकर तमाम तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं. भाषायी शुचिता की तो बात ही छोड़ दीजिए, सोशल मीडिया के प्रभुत्व के बाद तो व्यक्तिगत स्तर पर ऐसी-ऐसी सामग्री का प्रयोग होने लगा है, जिसे हम अपनी निजी ज़िन्दगी में कहीं भी इस्तेमाल नहीं करना चाहते. यहां तक कि फोटोशॉपिंग के ज़रिये राजनीतिक पार्टियों के मीडिया सेल ने तस्वीरों में ऐसी गड़बड़ियां तक की हैं, जो भारतीय मूल्य, परंपरा और संस्कृति के एकदम खिलाफ हैं. तो क्या सचमुच अब मुद्दों का अभाव है, ऐसी तीखी भाषा का अभाव है, जिससे भाषायी गरिमा भी बनी रहती है, और बात अंदर तक चुभ जाती है, क्या वास्तव में पार्टियों के मीडिया सेल गंभीर शोधपरक सामग्री को लेकर गरीबी रेखा के नीचे गिने जा रहे हैं, या फिर कुछ ऐसा है कि जनता-जनार्दन को ऐसे मुद्दों के लिए मुफीद नहीं पाया जाता, क्योंकि वह उन्हें कम प्रयासों में आकर्षित नहीं कर पाते हैं.

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अब, जब गुजरात सरीखे राज्य में चुनावी बयार शुरू होकर धीरे-धीरे पूरे मुल्क में इसलिए बिखरेगी, क्योंकि यह तो सीधे तौर पर प्रधानमंत्री की साख का मामला है. विपक्ष इसलिए पूरा ज़ोर लगाएगा, क्योंकि गुजरात जीत लिया तो उनका आधा रास्ता तय हो जाएगा. इसलिए दोनों ही स्तरों पर यह प्रतिष्ठा का विषय तो है ही.

तो क्या गुजरात में भी ऐसे मुद्दों को विषय बनाया जाएगा, जिनकी अमूमन चर्चा होती नहीं दिखती, उन पर कोई CD तो क्या, पोस्टर तक जारी नहीं होता. क्या राजनैतिक पार्टियां इस बात पर गौर करेंगी कि गुजरात में बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य संबंधी ऐसे आंकड़े सामने आए हैं, जो सरकार के कामों पर कई तरह के सवाल उठाते हैं.

यह आंकड़े ज़्यादा पुराने भी नहीं हैं, और न ही किसी ऐसे संस्था-संगठन के हैं, जिन्हें राजनीतिक हथकंडा कहकर झूठा करार दिया जा सके. सरकार खुद ही नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे करवाती है, इसके नतीजे साल भर पहले ही जारी किए गए हैं.

इस सर्वे में बताया गया है कि गुजरात में 39 प्रतिशत बच्चे कम वज़न का शिकार हैं, यानी कुपोषित हैं, यही सर्वे बताता है कि 38.5 प्रतिशत बच्चे नाटे हैं. ये दोनों बातें हमें इसलिए चौंका सकती हैं, क्योंकि यह देश के राष्ट्रीय औसत (कुपोषित बच्चों का राष्ट्रीय औसत 35.7 है, तथा नाटे बच्चों का राष्ट्रीय औसत 38.4 है) से अधिक है. गुजरात जहां विकास के तमाम मानकों को और राज्यों से बेहतर बताया जाता है, वहां लंबे समय से एक स्थायी सरकार है. क्या वहां भी बच्चों के स्वास्थ्य संबंधी ये आंकड़े स्वीकार किए जाने चाहिए. नहीं, लेकिन देखिए कि गंभीर कुपोषित बच्चों के मामले में भी यह 9.5 प्रतिशत बच्चों के साथ राष्ट्रीय औसत (7.2) से करीब दो प्रतिशत तक ज्यादा है.

बच्चों की असमय मौत के पीछे की बड़ी वजह की शुरुआत उनके जन्म से ही होती है. जन्म का संबंध गर्भावस्था और विवाह से भी माना जा सकता है. देखिए कि गुजरात सरीखे संपन्न राज्य में भी 18 साल से पहले 24 प्रतिशत लड़कियों का विवाह हो जाता है. संपन्नता का ज्ञान और सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहारों के साथ भी संबंध होने चाहिए. विकास का मतलब केवल ढांचागत विकास तो नहीं होता. विकास एक व्यवहार का मसला भी है. अब देखिए कि गुजरात के आधे बच्चों का ही पूर्ण टीकाकरण हो पाता है, जबकि देश के स्तर पर यह 62 प्रतिशत हो चुका है. कई पिछड़े माने जाने वाले राज्यों में यह मानक कहीं बेहतर स्थिति में है.

माना जाता है कि टीकाकरण से बच्चों की असमय होने वाली मौतों को 60 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है. पर क्या बाल मृत्युदर को कम करना हमारी प्राथमिकता में है. होता तो हम इस बात पर ज़रूर काम करते, जिससे बाल विवाह रुक गया होता, गर्भवती महिलाओं को बेहतर सुविधाएं मिलतीं और जो आधी से ज्यादा आबादी खून की कमी, यानी एनीमिया से पीड़ित है, उसकी हालत सुधर गई होती.

यह ज़रूर है कि सरकार ने संस्थागत प्रसव को 88 प्रतिशत तक लाकर प्रसव के दौरान होने वाली मौतों की दर को कम कर दिया, लेकिन जन्म के एक घंटे के अंदर शिशु को स्तनपान और केवल छह माह तक केवल स्तनपान का प्रतिशत क्रमश: 50 और 55 तक ही सिमटकर रह गया है. इसलिए सुरक्षित बाल और मातृ स्वास्थ्य अब तक एक चुनौती बने हुए हैं. रूरल हेल्थ स्टैटिस्टिक्स 2016 की रिपोर्ट बताती है कि गुजरात राज्य में बच्चों के 322 स्वीकृत पदों के विरुद्ध 44, महिला रोग विशेषज्ञों के स्वीकृत 322 पदों में से केवल 51 और शल्य चिकित्सकों इतने ही स्वीकृत पदों में से 41 ही भरे गए हैं.

...तो यदि इन आंकड़ों को ठीक करना है, और वास्तव में स्वास्थ्य संबंधी मानकों को लेकर आदर्श स्थापित करना है तो इन पदों को पूरा किए बिना तस्वीर बदलने वाली नहीं है. क्या हम गुजरात सरीखे राज्य से यह उम्मीद करते हैं कि वहां बच्चों के स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े कई गरीब राज्यों से भी पीछे होंगे. शायद नहीं... फिर गुजरात की विकास यात्रा में बच्चे कहां हैं...?

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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