प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रीनगर में कहा, "30 साल में पहली बार मोदी सरकार का कमाल देखिए कि सेना ने पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि जो नौजवान मारे गए, उसमें सेना की गलती थी। इनक्वायरी कमीशन बिठाया गया और जिन्होंने गोली चलाई, उन पर केस दर्ज किया गया। यह मेरे नेक इरादों का सबूत है..."
खास बात यह है कि पीएम ने यह बात चुनावी भाषण के दौरान कही... किसी बंद कमरे या किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में नहीं... यह शायद पहला मौका था, जब किसी प्रधानमंत्री ने फौज को कश्मीर की चुनावी राजनीति में घसीटा हो।
सवाल उठता है कि महज चुनावी फायदे के लिए प्रधानमंत्री का सेना का जिक्र करना कहां तक सही है...? वह भी कश्मीर जैसी संवेदनशील जगह पर... अगर यहां प्रधानमंत्री यह जतलाना चाह रहे हों कि उनके कहने पर 30 सालों में पहली बार बेगुनाहों की हत्या को लेकर माफी मांगी गई, तो वह गलत हैं। जम्मू-कश्मीर में सेना के पहले आर्मी कमांडर रहें लेफ्टिनेंट जनरल एचएस पनाग कहते हैं कि 2007-08 में उनके कार्यकाल के दौरान भी ऐसी गलतियां हुई थीं तो उन्होंने अवाम से मांफी मांगने में कोई देरी नहीं की थी।
अब जबकि फौज कश्मीर में चुनावी मुद्दा बन चुकी है तो सवाल ये भी उठ रहे हैं कि बड़गाम में हुई दो मौतों को लेकर 20 दिन के अंदर ही आनन-फानन जांच क्यों पूरी कर दी गई, जबकि ऐसी जांच पूरी होने में तो दो-तीन महीने लग जाते हैं। और तो और, चुनाव के दौरान ही मच्छल एनकाउंटर मामले में पांच फौजियों को दोषी करार देने का फैसला क्यों सामने आया। इन दोनों की टाइमिंग को लेकर चर्चाएं जोरों पर हैं, जो कई सवाल भी खड़े कर रही हैं। क्या आनन-फानन अब सेना की ऐसी कार्रवाई राजनीति से प्रेरित तो नहीं है...?
सैन्य मामलों के कानूनी जानकार मेजर एसएस पांडे कहते हैं कि सेना में अमूनन ऐसी कार्रवाई चुपचाप होती है और बाहर कोई इसके बारे में चर्चा नहीं करता, तो फिर क्यों इस मामले में खबरों को राजनीतिक रंग दिया जा रहा है, और कैसे ये खबरें लीक हो रही हैं...?
इतना ही नहीं, अब तो सेना के शीर्ष से लेकर नीचे तक के अफसर कोई भी कार्रवाई करने से पहले 10 बार सोचेंगे कि उनके काम पर सीधे प्रधानमंत्री की नज़र है। हो सकता है, वे अपना काम पहले की तरह ईमानदारी से नहीं कर पाए, क्योंकि पहले तो वे सेना के कायदे और ज़मीनी हालात देखकर फैसला लेते थे, लेकिन अब तो कुछ और सोचकर भी फैसला लेंगे, और इसका नतीजा क्या होगा, इसका पता तो वक्त आने पर ही चलेगा।
हालांकि सोशल साइट्स पर यह बात जोर-शोर से चल रही है कि उरी में जो कुछ हुआ, वह मौजूदा नार्दर्न आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुड्डा के बड़गाम में सेना की कार्रवाई पर सेना की गलती मान लेने का नतीजा है। कहा यह जा रहा है कि जब आतंकी उरी की संतरी पोस्ट के पास आए तो जवान को उन पर संदेह तो हो गया था, लेकिन उस पर सीधे फायर नहीं कर पाए और इसकी कीमत सेना के आठ जवानों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। गौरतलब है कि बड़गाम में उस वक्त सेना ने कहा था कि उसके दो संतरी पोस्ट पर लोगों को रोका गया था, लेकिन वे नहीं रुके और उन पर गोली चलाई गई, जिससे दो लोगों की मौत हो गई।
वैसे जब सेना के लोगों से इस बारे में बात की गई तो उनका कहना है कि नरेंद्र मोदी जम्मू-कश्मीर में केवल बीजेपी के नेता बनकर ही नहीं गए थे, बल्कि उससे पहले वह देश के प्रधानमंत्री हैं। उनसे सब लोगों की तरह सेना की भी खास उम्मीदें हैं। उम्मीदें, न केवल सेना के मान-सम्मान को फिर बहाल करने को लेकर हैं, बल्कि उसके हौसले को भी बुलंद करना है, ताकि वक्त आने पर सेना हर तरह की चुनौती का सामना कर सके। लेकिन अगर प्रधानमंत्री ऐसे सेना का हौसला बढ़ाएंगे, तो उसका नतीजा क्या होगा, यह कहने की ज़रूरत नहीं है।
सुरक्षा को लेकर सरकार का रवैया कितना लचर है, इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है देश की सबसे बड़ी पैरामिलिट्री फोर्स सीआरपीएफ अभी भी मुखिया विहीन है, यही हालत प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार एसपीजी की भी है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।