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This Article is From May 03, 2023

PS2: ऐतिहासिक विषयों पर बनी फिल्मों को इतिहास समझने की भूल ना करें

Keyoor Pathak
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 03, 2023 21:52 pm IST
    • Published On मई 03, 2023 21:52 pm IST
    • Last Updated On मई 03, 2023 21:52 pm IST

इतिहास कभी इतिहास नहीं होता. वह कई रूपों में वर्तमान बनकर हमारे सामने आता है. मणि रत्नम ने भी पोंनियन सेल्वन-2 के साथ इतिहास को वर्तमान में लौटाने का प्रयास किया है. हालांकि, अतीत की गलियां इतनी संकरी होती हैं कि अक्सर इतिहास को हूबहू वर्तमान में लाना आसान नहीं होता. तथ्यात्मक गलतियां होने की संभावना बनी रहती है. इतिहास का विश्लेषण जल्दबाजी में नहीं किया जाना चाहिए. यह गंभीर और जोखिम भरा होता है. सिनेमा लोकप्रियता से प्रेरित होते हैं. ऐसे में सिनेमा में ऐसी जल्दबाजी ऐतिहासिक विकृति के कारण बनते हैं- जैसा कि अनगिनत पूर्व की हिंदी फिल्मों में देखा गया. फिर भी मणिरत्नम का प्रयास सराहनीय है. उन्होंने एक तरह से कम लोकप्रिय “महान” चोल साम्राज्य को लोक चेतना के हिस्से के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया है. हालांकि यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि मणिरत्नम की यह फिल्म कोई डॉक्यूमेंट्री फिल्म नहीं है, और न ही इसने इसके तथ्यों को सम्पूर्ण ऐतिहासिक तथ्य के रूप में होने का दावा किया है, लेकिन आम दर्शक अक्सर इतिहास से प्रेरित फिल्मों को इतिहास ही मान लेते हैं. इस अर्थ में यह एक बड़ा गैप है, दर्शकों और व्यवसायिक सिनेमा के बीच.  

चोल साम्राज्य एशिया में सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाले साम्राज्यों में से एक के रूप में दर्ज है. माना जाता है कि यह सम्राट अशोक के समय से लेकर 13वीं सदी तक अपना अस्तित्व बनाए हुआ था. यह एशिया में एक बड़ी सामरिक, आर्थिक और सांस्कृतिक शक्ति के रूप में स्थापित था. खासकर अपनी नौसेना के लिए प्रसिद्ध था. मणिरत्नम ने चोल साम्राज्य के द्वारा दक्षिण के महान सामरिक और सांस्कृतिक गौरव को दर्ज किया है. खासकर आज के समय में जब इतिहास पर पुनर्विचार और इसकी पुनर्व्याख्या की जा रही है, ऐसे में उन्होंने दक्षिण के इतिहास को भी सिनेमा के सहारे सामने रखा है. भारतीय इतिहास लेखन की धारा में दक्षिण के इतिहास की उपेक्षा की शिकायत लम्बे समय से रही है, इसलिए समय-समय पर सिनेमा उनका प्रभावी माध्यम बनता है अपने कल को आज से साक्षात्कार कराने के लिए. 

भारत में इतिहास का स्वरूप साम्राज्य केन्द्रित ही माना जाता है. माना गया सब सत्ता से ही बदलता है. आम जन की भूमिका नगण्य होती है. उनका संघर्ष महत्व का नहीं होता. ऐसे इतिहास लेखन में जन संघर्षों के तत्व कमतर आंके गए. लेकिन इतिहास की एक धारा जन संघर्षों और बलिदानों पर केन्द्रित थी, जिसे ‘सबल्टर्न हिस्ट्री' के माध्यम से अपने प्रबंधकीय साहित्य में रंजीत गुहा ने रखा. दुर्भाग्य से तीन-चार दिन पहले ही उनकी मृत्यु हो गई. यह इतिहास और समय को बदलने वाले आम जन के एक विचारक का जाना है. खैर! भारत की सभी भाषाओं में सिनेमा के अगर ऐतिहासिक चरित्र को देखें तो उसमें से अधिकांश में जन इतिहास के सरोकार कम दिखते हैं. सिनेमाई दुनिया में जब भी इतिहास पर सिनेमा बनाने की बात होती रही है तो उनका मुख्य विषय बड़े और भव्य साम्राज्य ही रहे हैं. राजाओं और सामंतों की प्रेम कहानियां अधिक भव्यता से प्रस्तुत की गईं. आम जन के प्रेम और उनके त्याग ऐतिहासिक तथ्यों की तरह कभी-कभार ही दिखाए गए. उनकी प्रस्तुति अ-ऐतिहासिक प्रकार की रही. इसके कई कारण हैं, उसमें से एक जन संघर्षों के इतिहास लेखन का अभाव भी रहा है. इसलिए सिनेमा निर्माण में भव्य साम्राज्यों का दर्शन और गौरव ही अधिक मौजूद है. यह गौरव-गान मुगले आज़म, पद्मावती से लेकर पोंनियन सेल्वन में भी देखा जा सकता है. इतिहास मतलब ‘साम्राज्य'- इतिहास मतलब ‘शहंशाह'- यह इतिहास बोध का सबसे बदसूरत चेहरा है.      

21 वीं सदी के प्रख्यात मनोवैज्ञानिक हुए हैं- लाकान. उनकी प्रसिद्ध पंक्ति है- “आदमी एक भाषाई जीव है.” किसी व्यक्ति या समाज को समझने के लिए उसकी भाषा के द्वारा उसके भीतर के चरित्र को समझा जा सकता है. हालांकि हमने इसको अनुवादित हिंदी भाषा में देखा, फिर भी कमोबेश इसके मूल भाव को समझा ही जा सकता है. सिनेमा में अभिनय, शिल्प, तकनीक आदि से अलग संवाद का अधिक महत्व हो जाता है. वैसे भी भारतीय दर्शकों के बीच दमदार संवाद बेहद पसंद किए जाते हैं. अनगिनत अभिनेता तो अपनी संवाद अदायगी के लिए ही जाने जाते हैं, जिनमें राजकुमार, दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन आदि अनेक हैं. ये संवाद भारतीय मन में वाद-विवाद की परम्परा को दिखाते हैं. बाहुबल से अधिक अपने तर्क बल से विजयी लोगों को अधिक पसंद किया जाता है. भारतीय समाज अपने मूल चरित्र में संवाद प्रिय ही रहा है, जिसे अमर्त्य सेन ने अपनी बहुचर्चित किताब ‘आर्गुमेनटेटिव इंडियन' में भी लिखा. यह संवाद की परंपरा इसके लोकतांत्रिक चरित्र को दर्शाती है. विचार, दर्शन में कहीं ठहराव नहीं हुआ. एक के बाद एक आते गए. एक को खारिज कर नए की स्थापना हुई. नया बोझिल हुआ तो उसे भी उतारा गया. बेहतर की तलाश की अनवरत यात्रा. भारतीय दर्शकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए पोनियन सेल्वन-2 में एक्शन के साथ-साथ संवाद को भी जोरदार रखने का प्रयास किया गया है, लेकिन इसके संवाद इसके तकनीकी पक्षों की तुलना में कमजोर प्रतीत होते हैं, इसका तकनीकी पक्ष हॉलीवुड के समक्ष माना जा सकता है. कई बार लगता है यह बिना संदर्भ के लिख दिया गया है, जैसे नंदिनी के संवाद – “राजा अगर झूठ बोले तो वह राजनीति कहलाती है.” यह बेहद अतार्किक लगता है, खासकर जब सिनेमा की कहानी प्राचीन भारतीय इतिहास से ली गई हो. प्राचीन भारतीय समाज में राजा से अधिक नैतिकवान होने की आशा की गई है. जगह-जगह राजा के धर्मपरायण होने के अभिलेख मिलते हैं, ऐसे में ऐसे संवाद फिल्म की ऐतिहासिकता को कमजोर कर देते हैं. यह मेकियावेली के समाज दर्शन पर आधारित समाज की कहानी नहीं है, जिसमें सैद्धांतिक रूप से छल-बल को वैधता मिली हुई थी. प्राचीन भारतीय राजनीति में कम से कम सैद्धांतिक रूप से जनता के साथ छल-बल सर्वमान्य नहीं थे. फिल्म में ऐसा कोई मजबूत संवाद नहीं मिला जो तत्कालीन सामाजिक दर्शन को दिखा रहा हो. लगता है- चलते फिरते हुए संवादों को लिखा गया है. एक संवाद, जिस पर तालियां बजीं, के माध्यम से राज्य के बंटवारे की बात पर आदित्य करिकालन कहता है- “चोल राज का बंटवारा होगा? चोल राज बांटना है!” यह संवाद भी मजबूत नहीं था लेकिन अभिनेता विक्रम ने अभिनय कुशलता से संवाद को शानदार बना दिया. नंदिनी जब कहती है- “चोल वंश को जड़ से मिटा देंगे” तो उसमें किसी तरह के राजसी प्रतिशोध की अग्नि नहीं दिखती. यह बेहद ही सामान्य अदायगी जैसी है. कई बार संवाद अभिनय को संभालते हैं, तो कई बार अभिनय कमजोर संवाद को बचा लेते हैं. फिल्म की मुख्य अदाकारा नंदिनी की भूमिका में यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा. न तो संवाद और न अभिनय एक दूसरे की मदद कर पाए, जबकि वह दोहरी भूमिका में थीं. 

“सांस्कृतिक जागरण” का दौर है. इतिहास की रक्षा संस्कृति की रक्षा मानी जा रही है. फिल्म निर्माता ने जनता की नब्ज को पहचान लिया है. जनता अपना इतिहास तलाश रही, जबकि इतिहास लेखन नगण्य है. ऐसे में मणिरत्नम ने इतिहास की भूखी जनता को इतिहास से सजी रंगीन थाली दी है.  

(केयूर पाठक हैदराबाद के सीएसडी से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. अकादमिक लेखन में इनके अनेक शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हुए हैं. इनका अकादमिक अनुवादक का भी अनुभव रहा है.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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