पुस्तक दिवस कौन मनाता है?

किताबें तभी बचेंगी जब हमारे भीतर पढ़ने का अभ्यास बचेगा. पढ़ने का अभ्यास तब बचेगा जब हमें अपने इतिहास-भूगोल को लेकर हमारी जिज्ञासा बची रहेगी

पुस्तक दिवस कौन मनाता है?

जैसे-जैसे हम किताबों से दूर होते जा रहे हैं, किताबों को लेकर हम ज्यादा प्रेम जताने लगे हैं.  जो लोग कहते हैं कि उन्हें किताबें पढ़ना अच्छा लगता है, उनमें वाकई दस फ़ीसदी लोग ही वाकई नियमित तौर पर किताबें पढ़ते हैं. बाकी किताबों के बारे में पढ़ लेते  हैं.

हिंदी में स्थिति और बुरी है. पुस्तक प्रेमी होने का दावा करने वाले किसी शख़्स से पूछिए कि उसने आखिरी किताब कौन सी पढ़ी है तो वह कुछ लड़खड़ाते हुए प्रेमचंद का नाम ले लेगा और किताब का नाम पूछने पर उनकी किसी कहानी का ज़िक्र कर देगा. जाहिर है, यह वह जमात है जो किताब पढ़ती नहीं है, पुस्तक दिवस भले मना ले.

मैंने कई जागरूक दिखने वाले लोगों, पत्रकारों, ऐंकरों को देखा है- वे कुछ मशहूर लेखकों के नाम जानते हैं, लेकिन उनके लेखन या उनकी किताबों के बारे में नहीं जानते. पुस्तक मेलों में, साहित्य समारोहों में वास्तविक लेखक नहीं होते, अक्सर वे मशहूर हस्तियां होती हैं जो किसी और वजह से लोकप्रिय हो गई हैं और इस लोकप्रियता का फायदा उठाते हुए किताबें लिख ले रही हैं. देश में बढ़ते साहित्य समारोहों के केंद्र में अक्सर ऐसी ही फिल्मी हस्तियां होती हैं, टीवी ऐंकर होते हैं और नेता-क्रिकेटर होते हैं. लेखक कहीं हाशिए पर होता है जिसका काम बस इन समारोहों को वैधता प्रदान करना होता है.

वैसे यह सच है कि किताबें हमेशा बहुत ज़्यादा नहीं पढ़ी गईं. कम से कम सौ साल का यही सच है. बीसवीं सदी साहित्य की नहीं, सिनेमा की सदी रही है. फिल्मों के मामूली से मामूली कलाकार किसी भी लेखक से ज़्यादा मशहूर रहे. फिल्मी दुनिया ने जिन किताबों को हाथ लगाया, वे मशहूर हो गईं. शरतचंद का बहुत औसत क़िस्म का उपन्यास 'देवदास' फिल्म बनने के बाद क्लासिक हो गया. 'शेष प्रश्न', 'पथ के दावेदार' या 'चरित्रहीन' जैसे उनके कहीं बेहतर उपन्यासों को कम लोग याद करते हैं. 'तमस' और 'चंद्रकांता' जैसी कृतियों को तब वास्तविक शोहरत मिली, जब उन पर सीरियल बने.

किताबों की दुनिया मूलतः स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों तक सीमित रही. वे सदियों तक शिक्षा और ज्ञान का इकलौता माध्यम बनी रहीं. इसलिए किताबों को कुछ अतिरिक्त श्रद्धा से देखा गया. किताबें पढ़ने वाले बुद्धिमान माने जाते रहे, किताबें लिखने वाले और ज़्यादा विद्वान.

लेकिन शिक्षा-संस्थानों के दायरे के बाहर और अकादमियों गतिविधियों से इतर श्रेष्ठ साहित्य कम पढा जाता रहा. वे किताबें ज्यादा चलीं जो रहस्य-रोमांच, अपराध और सेक्स बेचती रहीं. यह अनायास नहीं है कि दुनिया के कुछ सबसे मशहूर लेखक जासूसी उपन्यासों के लेखक रहे हैं. बेशक, उनमें से कई बहुत श्रेष्ठ लेखक रहे हैं, लेकिन वे उन महानतम लेखकों की सूची में नहीं आते जो कम पढ़े गए, लेकिन जिन्होंने ज़्यादा मूल्यवान दिया.

फिर भी किताबों के हम पर बहुत एहसान हैं. सदियों तक उन्होंने सभ्यताओं को सींचा है. हमारे भीतर की मनुष्यता को बचाए रखने में उनकी भूमिका बहुत बड़ी है. हमारी पीढ़ी तक ऐसे लाखों नहीं, करोड़ों लोग होंगे जिन्हें कोर्स की किताबों से अलग बाकी किताबें छुप-छुप कर, समय निकाल कर पढ़ने की याद होगी. तब हम पुस्तक दिवस नहीं मनाते थे, किताबों के बारे में रोमानी ढंग से नहीं सोचते थे.

दूसरी बात यह कि किताबें पढ़ने के बारे में सोचना जितना सुंदर लगता है, किताबें पढ़ना हमेशा उतना सुंदर काम नहीं हुआ करता. वह बहुत धीरज की मांग करता है. उसमें दिमाग पर ज़ोर लगाना पड़ता है. मनोरंजक किताबें आसानी से पढ़ ली जाती हैं, लेकिन जो किताबें कुछ गहराई की मांग करती हैं, जो हमारे अंतर्द्वंद्वों का सुराग देती हैं, जो हमें ज्ञान देती हैं, उन्हें पढ़ते हुए कई बार बोरियत भी होती है. दुनिया के कई महानतम उपन्यास पहली श्रेणी के पठनीय उपन्यास नहीं हैं. उनकी पठनीयता कुछ शर्तों की मांग करती है. बेशक, वे कम पढ़ी जाएं, लेकिन वे सदियों तक टिकी रहती हैं.

फिर किताबें सिर्फ़ अच्छी बातें ही नहीं, बहुत सारी बुरी बातें भी सिखाती हैं. किताबें दरअसल ज्ञान का स्रोत हैं. वह ज्ञान हर तरह का हो सकता है. किताबें अगर आपको मनुष्य बना सकती हैं तो कभी-कभी अपनी मनुष्यता छोड़ने पर बाध्य भी कर सकती हैं. किताबों के ज़रिए हमने सांप्रदायिकता का प्रचार भी देखा है और झूठ का भी.

बहरहाल, हमारे समय में किताबों के संकट कुछ और हैं. ज्ञान पर छपे हुए शब्दों की, किताबों की इजारेदारी नए माध्यमों ने तोड़ दी है. शिक्षण-संस्थानों में शायद सदियों बाद ऐसा हो रहा है कि किताबों की अहमियत कम हो रही है और कंप्यूटर या ऑनलाइन अध्ययन के विकल्प बढ़ रहे हैं. बेशक, वे किताबों पर ही निर्भर हैं, लेकिन धीरे-धीरे यह दिख रहा है कि युवा पीढ़ी पढ़ने में कम, वीडियो देखने में ज़्यादा दिलचस्पी लेती है. किताबों की जगह भी धीरे-धीरे ई बुक लेते जा रहे हैं. किंडल की बढ़ती लोकप्रियता इस तथ्य की ओर इशारा कर रही है.

बेशक, किताबें- और साहित्यिक किताबें भी- अब तक बहुत बड़ी तादाद में छप और बिक रही हैं. यह देख कर हैरानी होती है कि हिंदी में भी हर रोज़ कवियों-कथाकारों और लेखकों की नई पौध अपनी नई किताबों के साथ आ रही है. दरअसल हमारी पूरी सभ्यता में किताबों की जड़ें इतने गहरे धंसी हुई हैं कि उन्हें आसानी से निकालना तो दूर, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. कोई ऐसा दिन आएगा, जब हम किसी पुस्तकविहीन समाज का हिस्सा होंगे- यह सोचना कम से कम हमारी पीढ़ी के लिए मुश्किल है.

लेकिन पुस्तक दिवस मना कर और पुस्तकों के प्रति नकली प्रेम जता कर हम किताबों को नहीं बचा पाएंगे. किताबें तभी बचेंगी जब हमारे भीतर पढ़ने का अभ्यास बचेगा. पढ़ने का अभ्यास तब बचेगा जब हमें अपने इतिहास-भूगोल को लेकर हमारी जिज्ञासा बची रहेगी. यहीं से किताब की अहमियत खुलती है. किताबें हमारा बौद्धिक पर्यावरण बनाती हैं. हमारे बचे रहने के लिए यह पर्यावरण ज़रूरी है. किताब पढ़िए, ख़ूब पढ़िए, बस यह न कहिए कि किताबों से आपको प्रेम है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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