बेअदबी, हत्या और चुप्पी की साज़िश

यह बात सबसे ज़्यादा डराने वाली है. दो हत्याओं पर हमारे धार्मिक ही नहीं, राजनीतिक संगठन भी चुप हैं. उन्हें मालूम है कि बेअदबी के ऐसे मामलों से सिखों का ख़ून खौलता है. वे इस जज़्बात को अपनी जान से ज़्यादा अहमियत देते हैं. इसके लिए जान ले भी सकते हैं और दे भी सकते हैं.

बेअदबी, हत्या और चुप्पी की साज़िश

नवजोत सिद्धू ने कहा है, बेअदबी के दोषियों को सार्वजनिक तौर पर फांसी दी जानी चाहिए

धार्मिक उन्माद हमें क्या से क्या बना देता है- यह पंजाब में दो अलग-अलग मामलों में गुरु ग्रंथ साहेब की बेअदबी के नाम पर हुई दो हत्याओं से पता चलता है. कपूरथला में जिस आदमी को पुलिस की मौजूदगी में गुरुद्वारे के भीतर भीड़ ने घुस कर मार डाला, उसने बेअदबी की कोशिश की थी, इसके प्रमाण पुलिस के पास भी नहीं हैं. इसके पहले अमृतसर में हुई एक हत्या के बाद दावा किया जा रहा है कि उसने बेअदबी की.

लेकिन क्या भारतीय संविधान राज्य द्वारा नियत एजेंसियों के अलावा किसी और को यह अधिकार देता है कि वह अपनी ओर से किसी का गुनाह तय करे, उसकी सज़ा तय करे और उसे मार भी डाले? किसी धर्म ग्रंथ या धर्म गुरु का अपमान वाकई नहीं होना चाहिए, लेकिन अगर कोई ऐसा करे तो क्या उसे चौराहे पर फांसी दी जा सकती है जिसकी बात पंजाब प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू कर रहे हैं? क्या भारतीय संविधान में सिद्धू की आस्था नहीं है? या वे किसी भीड़ के सामने यह साबित करना चाहते हैं कि उनका धार्मिक उन्माद उनकी संवैधानिक आस्था से बड़ा है?

यह बात सबसे ज़्यादा डराने वाली है. दो हत्याओं पर हमारे धार्मिक ही नहीं, राजनीतिक संगठन भी चुप हैं. उन्हें मालूम है कि बेअदबी के ऐसे मामलों से सिखों का ख़ून खौलता है. वे इस जज़्बात को अपनी जान से ज़्यादा अहमियत देते हैं. इसके लिए जान ले भी सकते हैं और दे भी सकते हैं.

लेकिन क्या यह जुनून उचित है? क्या पंजाब में ऐसे सभ्य लोग नहीं बचे हैं जो समझें कि यह उन्माद घातक है, कि धर्मगुरु भी ऐसी हरकत से नाराज़ होते, कि गुरुओं के लिए सेवा और मनुष्यता सबसे बड़ा मूल्य रही है?

सिखों ने बहुत दुख झेले हैं. 1947 का विभाजन जैसे उनकी भी छाती पर हुआ. 1984 की हिंसा ने बहुत सारे घर उजाड़े, बहुत सारे नौजवानों को विक्षिप्त छोड़ दिया.

लेकिन यह सब क्यों हुआ? इसके पीछे वह उन्माद था जिसने मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने दिया था, धर्म को धर्म नहीं रहने दिया था. धर्म अगर जड़ सिद्धांत हो जाता है तब वह किसी ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता नहीं रह जाता, वह मनुष्य होने की आभा और गरिमा को भी कुंद करता चलता है. धर्म की इस जड़ता को गुरु नानक पहचानते थे. वे बहुत अंधेरे समय में आए थे. राजनीतिक अस्थिरता, सामाजिक अराजकता, धार्मिक कर्मकांड से पटे पड़े इस समय में उन्होंने पुरानी जड़ताओं को ख़ारिज किया. नया पंथ बनाया जो प्रेम और सेवा का पंथ था. प्रेम और सेवा की यह परंपरा आज तक चली आ रही है. दुनिया भर में गुरुद्वारे संकट में पड़े लोगों को आश्रय देने के लिए, भूखों को भोजन कराने के लिए जाने जाते हैं. पिछले कई आंदोलनों में, लॉकडाउन के दौरान, ऑक्सीजन की कमी के दौरान उन्होंने जो काम किया, उसने सिखों के प्रति नई आस्था जगाई, धर्म के परिसर को कुछ और बड़ा बना दिया.

ऐसे गुरु और ऐसे पंथ की बेअदबी नहीं हो सकती. कोई चाहे भी तो नहीं कर सकता. वे बहुत ऊंचे हैं- किताबों, तख़्तों और इमारतों से बहुत ऊंचे. लेकिन जब उनकी इज़्ज़त के नाम पर, उनके अदब के नाम पर कोई अपने हाथ में कानून लेता है, निर्ममता से किसी की हत्या करता है तो धर्म जैसे कुछ छोटा हो जाता है, कुछ सिकुड़ जाता है.  

ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित पंजाबी लेखक गुरदयाल सिंह का एक उपन्यास है- 'परसा'. उपन्यास का नायक परसा किसी कर्मकांड में भरोसा नहीं करता. लेकिन वह अपने खेतों में काम करता हुआ सबद और कीर्तन गाता चलता है. उसकी अपनी धार्मिक आभा है जो किन्हीं कर्मकांडों से नहीं, अपने भीतर धर्म और मनुष्य के प्रेम से उपजी है. उसके बेटे फैशन में बाल कटाते हैं तो वह नाराज़ होता है- इसलिए नहीं कि उन्होंने बाल कटा लिए, बल्कि इसलिए कि यह काम उन्होंने नक़ल में किया, किसी विश्वास या प्रतिबद्धता की वजह से नहीं. लेकिन धर्म को आवरण की तरह लपेटे रहने वाले लोगों की भी वह आलोचना करता है. उसे मालूम है कि ये भीतर से खोखले होते लोग हैं.

हमारे पूरे समाज में ऐसे खोखले लोग बढ़ रहे हैं. करीब एक सदी पहले, टीएस एलियट ने 'हॉलो मेन' जैसी कविता लिखी थी. करीब तीन दशक पहले हम अपने स्कूल में उसे पढ़ा करते थे. लेकिन तब यह अंदाज़ा नहीं था कि खोखले मनुष्यों का यह संसार इतना हिंसक और वीभत्स हो सकता है.

इस मामले में चिंता की बातें दो हैं. सभी धर्मों की तरह सिख धर्म में अगर कुछ उन्मादी हैं तो बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जिनके लिए धर्म प्रेम का ही पर्याय है, कट्टरता का नहीं. ऐसे अवसरों पर उनको बोलना चाहिए. लेकिन वे चुप हैं. वे मानते हैं कि घटना दुखद है, लेकिन वे न इसकी निंदा करने को तैयार हैं न ऐसे तत्वों को किनारे करने को जो इस हद तक जा सकते हैं. जाहिर है, इसके पीछे समाज में ऐसे तत्वों की बढ़ती ताक़त है.

चिंता की दूसरी बात राजनीतिक दलों की ख़ामोशी है. लगभग सभी राजनीतिक दल इन हत्याओं पर चुप हैं. उन्हें डर है कि उन्हें पंजाब में आने वाले चुनावों में इसका नुक़सान उठाना पड़ सकता है. बल्कि सिद्धू जैसे नेताओं ने बिल्कुल उल्टी भाषा बोलनी शुरू की है- वे इस कटटरता की पीठ ही नहीं थपथपा रहे, उसे और ज़्यादा कट्टर-क्रूर होने के लिए उकसा रहे हैं.

यह चीज़ बताती है कि संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना पर, सांप्रदायिक आधार पर लोगों की भावनाएं भड़का कर वोट लेने की जो राजनीति होती है, वह कितनी ख़तरनाक और अंततः लोकतंत्र विरोधी होती है. पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रवाद से गठजोड़ से जो नया सांप्रदायिक वातावरण हमारे यहां तैयार हुआ है, वह सिर्फ़ एक धर्म तक सीमित नहीं है, उसके छींटे छलक कर दूसरी जगहों पर भी जा रहे हैं. और हमारा राजनीतिक प्रतिष्ठान इसे या तो बढ़ावा दे रहा है या इस पर चुप है. यह चुप्पी ख़तरनाक है.

बरसों पहले पंजाबी की ही कवयित्री अमृता प्रीतम ने एक छोटी सी कविता लिखी थी- ‘चुप की साज़िश'. वे लिखती हैं- ‘रात ऊँघ रही है / किसी ने इन्सान की / छाती में सेंध लगाई है / हर चोरी से भयानक / यह सपनों की चोरी है। / चोरों के निशान —/ हर देश के हर शहर की / हर सड़क पर बैठे हैं / पर कोई आँख देखती नहीं, / न चौंकती है / सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह / एक ज़ंजीर से बँधी / किसी वक़्त किसी की / कोई नज़्म भौंकती है.‘ 

चुप्पी की इस साज़िश में हमारे धर्मगुरुओं की बेअदबी भी शामिल है, हमारे संविधान की भी और हमारे लोकतंत्र की भी.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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