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This Article is From Oct 27, 2020

यह कैसी भाषा है नीतीश कुमार जी? इसका असली मतलब क्या है?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 06, 2021 18:39 pm IST
    • Published On अक्टूबर 27, 2020 19:46 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 06, 2021 18:39 pm IST

यह शायद 2016 का साल था, जब नीतीश कुमार की ओर से अचानक केसी त्यागी ने हम कुछ लेखकों-पत्रकारों को न्योता भेजा. वे कुछ ही दिन पहले चुनाव जीत कर आए थे और बिहार का साहित्यिक-सांस्कृतिक मानचित्र बदलना चाहते थे. उन्हें लग रहा था कि तब लेखकों ने जो पुरस्कार वापसी की मुहिम चलाई थी, इसका उनको लाभ मिला है. कुल 11 या 12 लेखक-पत्रकारों की उस बैठक में नीतीश बार-बार कहते रहे कि वे बिहार की बौद्धिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को बीजेपी और संघ परिवार के सांप्रदायिक हमले से बचाना चाहते हैं. लेकिन ज़्यादा दिन नहीं बीते, जब नीतीश कुमार ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए बीजेपी से समझौता किया और उसके सांप्रदायिक हमले को सुविधापूर्वक भूल गए.

नीतीश कुमार के इस अवसरवादी रुख़ को देखकर पैदा हुई हताशा के बावजूद मुझे उम्मीद नहीं थी कि कभी नीतीश अपनी राजनीतिक शब्दावली का स्तर गिरा कर वहां तक ले आएंगे, जहां आज उनके भाषण दिख रहे हैं. लालू यादव के कई बच्चों को लेकर की जाने वाली उनकी छींटाकशी बस एक निजी हमला नहीं है, वह उस समय के सामाजिक यथार्थ से आंख मूंदने की जानी-बूझी कार्रवाई भी है. चार-पांच दशक पहले भारत के गांव-देहातों में ही नहीं, शहरों में भी ऐसे घर मिल जाते थे, जहां परिवार में सात-आठ बच्चे आम होते थे. जिसे जनसंख्या वृद्धि कहते हैं, वह ज़्यादा बच्चे पैदा करने की प्रक्रिया का नतीजा नहीं है, बल्कि किसी समाज की गरीबी और उसके पिछड़ेपन की भी निशानी है- इस संवेदनशील समझ के लिए जनसंख्या-विशेषज्ञ या समाजशास्त्री होने की अब ज़रूरत नहीं है. तो नीतीश का हमला दरअसल एक गरीब समाज पर हमला है.

लेकिन नीतीश कुमार को हम क़सूरवार क्यों मानें? दरअसल हमारी राजनीति ही नहीं, हमारे समूचे सार्वजनिक विमर्श की भाषा बहुत सपाट और निरर्थक हो चुकी है. इस विमर्श में शब्द अपने अर्थ जैसे खो चुके हैं. वे तभी चुभते या तंग करते हैं जब वे बहुत अश्लील या फूहड़ ढंग से इस्तेमाल किए जाते हैं. या तब भी वे चुभते नहीं हैं, बस हमारे राजनीतिक इस्तेमाल के लायक हो जाते हैं. हम अपना पक्ष देखकर उनका विरोध या बचाव करते हैं. अगर आप ध्यान से देखेंगे तो भारतीय राजनीति में एक बहुत उद्धत पितृसत्तात्मकता हावी दिखेगी- नीतीश कुमार के ताज़ा बयान में यह थी और कमलनाथ के कुछ दिन पहले के बयान में भी थी. लेकिन जो नीतीश कुमार की भाषा पर एतराज़ कर रहे हैं, वे कमलनाथ की भाषा को लेकर चुप थे. जो कमलनाथ की भाषा पर छाती पीट रहे थे उन्हें यह बात याद दिलाया जाना नहीं भाता कि इस देश के मौजूदा प्रधानमंत्री ने किसी महिला को पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड कहा था या फिर संसद में एक महिला की हंसी पर उसे शूर्पनखा से जोड़ा था और पूरा सत्ता-पक्ष उनके साथ ठठा कर हंसा था. सोनिया गांधी को लेकर दिए जाने वाले कई फूहड़ बयान तो एक समय जैसे राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन गए थे. मायावती को भी ऐसे हमले झेलने पड़े. लेकिन फिर कहने की ज़रूरत है कि यह बीजेपी-कांग्रेस या जेडीयू-आरजेडी का मामला नहीं है, कभी भी कोई भी- यहां तक कि कोई महिला भी- अपने भीतर बसे भाषिक पूर्वग्रहों का ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकती है. मायावती ने एकाधिक बार यह काम किया है.

दरअसल यह भाषा का नहीं, समाज का संकट है. हम सूक्ष्मता और गहराई में सोचने और जीने का अभ्यास खो बैठे हैं. राजनीतिक दलों के घोषणापत्र देख जाइए, या नेताओं के बयान देख जाइए, उनमें कोई समग्र सोच नहीं मिलती, बस कुछ लोकलुभावन बयानबाज़ी दिखती है. मसलन, बिहार के लिए बीजेपी ने जो संकल्प पत्र जारी किया, उसमें कहा कि बिहार में हिंदी में मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कराई जाएगी. लेकिन हिंदी या भारतीय भाषाओं में पूरी पढ़ाई क्यों नहीं? या फिर जो हिंदी में मेडिकल इंजीनियरिंग पढ़ेंगे, क्या उनको भी उतना ही महत्व मिलेगा जो अंग्रेज़ी में पढ़ कर आते हैं? मध्य प्रदेश में हिंदी में खुले मैनेजमेंट स्कूल का अनुभव बिल्कुल हास्यास्पद हो चुका है? मगर इन सवालों पर सोचे कौन?

दरअसल एक समाज के रूप में हम लगातार ऐसे उपभोक्तावादी समाज हुए जा रहे हैं जहां सबकुछ उपभोग या दिखावे के लिए है- भाषा तक. विज्ञापनबाज़ भाषा हमें सबसे ज़्यादा बांधती है. वह सच्ची हो न हो, लुभावनी लगती है- यह समझते हुए भी हम उससे आकर्षित होते हैं. भाषा की अंदरूनी परतों से हमारा परिचय नहीं बचा है. प्रधानमंत्री मोदी की भाषा में एक नाटकीय आकर्षण है, लेकिन कभी-कभी उसमें चुपचाप सत्ता का दर्प भी चला आता है, इसे कोई संवेदनशील व्यक्ति लक्ष्य कर सकता है.

जब भाषा अपने अर्थ खोने लगती है तो उसका दुरुपयोग आसान हो जाता है. पिछले दिनों हमारे यहां एक शब्द खूब चला- गो-तस्कर. यह शब्द उन लोगों के लिए चला जो मवेशियों का कारोबार करते हुए सड़कों पर पकड़े गए- भले उनमें से कुछ का सौदा वैध हो या कुछ का अवैध. लेकिन गो तस्कर शब्द में जो अपराध की संगीनी निहित है- तस्कर होने का भाव है- वह अपनी तरफ़ से भी एक फ़ैसला कर और जड़ रहा है, इस पर हमने सोचा ही नहीं. इस तरह एक शब्द हमारी सुरक्षा एजेंसियां ख़ूब इस्तेमाल करती हैं- मास्टरमाइंड. दंगों के मास्टरमाइंड, साज़िश के मास्टरमाइंड, हमलों के मास्टरमाइंड, चोरी के मास्टरमाइंड. अक्सर ये मास्टरमाइंड बहुत निरीह क़िस्म के लोग निकलते हैं, और कई बार तो एक ही अपराध के कई-कई मास्टरमाइंड निकल आते हैं. लेकिन हमारी पत्रकारिता बिना सोचे-समझे इस शब्द का इस्तेमाल करती है.

ऐसे शब्द ढेर सारे हैं जिनसे पता चलता है कि हमारे खोखले विमर्श के भीतर हमारे पुराने पूर्वग्रह कैसे सक्रिय रहते हैं. लेकिन यह शब्दों का संकट नहीं, हमारी राजनीति, हमारे समाज का संकट है.सवाल है, इस संकट से उबरने का कोई रास्ता दिखता है? यह अनायास नहीं है कि हमारे नेताओं की नई पीढ़ी अपनी भाषा में कहीं ज़्यादा संयत-सावधान और शालीन है. कुछ दिन पहले याद कर सकते हैं कि राजस्थान में अशोक गहलौत ने सचिन पायलट को लेकर बहुत आक्रामक भाषा इस्तेमाल की. लेकिन सचिन ने जब मुंह खोला तो हर बात का शालीनता से जवाब दिया. अखिलेश यादव और राहुल गांधी भी शालीन भाषा के सहज इस्तेमालकर्ता हैं. बल्कि चिराग पासवान ने भी नीतीश पर लगातार हमले के बावजूद अपनी भाषिक मर्यादा नहीं खोई है. और तेजस्वी यादव ने तो नीतीश के आरोप का जितनी शालीनता से जवाब दिया, उसका कोई जवाब नहीं.

लेकिन याद रखने की बात है कि शालीनता बस मुद्रा भी हो सकती है. इस शालीनता पर हम मुग्ध हों, लेकिन यह ज़रूरी है कि वह भाषा में ही नहीं, सार्वजनिक व्यवहार में भी परिलक्षित होती रहे.रहा नीतीश कुमार का सवाल, तो उन्होंने साबित किया कि कभी जिस समाजवादी विरासत से वे निकले थे, उसे वे पीछे छोड़ चुके हैं. उनकी मौजूदा भाषा झुंझलाहट से निकली है जिसका भी अर्थ समझना मुश्किल नहीं है. वैसे जिन लेखकों को कभी उन्होंने न्योता देकर बुलाया था, इस बार वही उनके विरोध में एक सार्वजनिक पत्र लिखकर उन्हें वोट न देने की अपील कर रहे हैं.

यह अलग बात है कि सत्ता प्रतिरोध की इस भाषा को भी व्यर्थ करने का तरीक़ा खोजने में कामयाब रही है. अब यह पैटर्न बन गया है कि अगर 200 लोग सरकार के ख़िलाफ़ अपील जारी करते हैं तो 400 लोग सरकार के पक्ष में अपील जारी करते हैं- इस दलील के साथ कि लोकतंत्र में हर किसी को अपना पक्ष चुनने का हक़ है- लेकिन यह बात भूल कर कि लेखक, पत पत्रकार या बुद्धिजीवी को किसी भी लोकतंत्र में अंततः प्रतिपक्ष की ही भूमिका चुननी चाहिए, उसे सत्ता का चारण नहीं होना चाहिए. मगर दरअसल ऐसी प्रतिस्पर्द्धा से बस सत्ता का भला होता है- उसका विरोध कर सकने वाले शब्द निरर्थक होते जाते हैं. कभी-कभी नीतीश कुमार जैसे नेता जब नेताओं से लड़ते-लड़ते उनके बाल-बच्चों की गिनती तक चले आते हैं तो याद आता है कि हमने अपनी भाषा और अपने सार्वजनिक संस्कारों का क्या कर लिया है?

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...)

(डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.)

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