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This Article is From Nov 25, 2014

प्रियदर्शन की बात पते की : बराबरी की लड़ाई अभी जारी है

Priyadarshan, Saad Bin Omer
  • Blogs,
  • Updated:
    नवंबर 26, 2014 01:20 am IST
    • Published On नवंबर 25, 2014 22:58 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 26, 2014 01:20 am IST

2009 में जब बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो ये सामाजिक बराबरी के ऐतिहासिक संघर्ष में एक बड़ी जीत थी, आख़िर जिन लोगों की पीठ पर कभी कोड़े पड़ते थे, उनके हाथ में अब कमान आ रही थी।

ग़ुलामी से हुक़ूमत तक के सफ़र का यह प्रतीकात्मक मोल काफी बड़ा था, लेकिन अक्सर ऐसी प्रतीकात्मक जीतें एक हद के बाद चुक जाती हैं। क्योंकि इनसे ये भ्रम पैदा होता है कि लड़ाई मुकम्मल और आख़िरी तौर पर जीत ली गई है। लेकिन वास्तविक लड़ाइयां बची रहती हैं, यह फर्ग्युसन बता रहा है। वहां जो कुछ जल रहा है वह अश्वेतों के भीतर की आग है, नाइंसाफ़ी का उनका एहसास है और इससे पैदा होने वाली नस्ली कसक है, जिसके अपने अतिरेक भी हैं।

इस मोड़ पर अमेरिका के बहुलतावादी समाज के सबसे बड़े अल्पसंख्यक तबके की (अफ्रीकी अमेरिकियों की) दबी हुई चिनगारियां अपनी सारी पुरानी तकलीफ़ों के साथ जैसे उबर आई हैं। उनमें पुरानी नाइंसाफ़ियों और पुरानी लड़ाइयों की छायाएं भी हैं।

लेकिन क्या हमें अमेरिकी समाज की छुपी हुई गैरबराबरी पर उंगली उठाने का हक़ है, बराबरी के मामले में शायद हमारा रेकार्ड अमेरिका से कहीं ज़्यादा बुरा है। हमारे संविधान ने जो बराबरी हमारे अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों को दी है, क्या वह हम वास्तविक तौर पर उन्हें दे रहे हैं? क्या हमारी आर्थिक गैरबराबरी में हमारे सामाजिक अन्याय की हक़ीक़त भी नहीं शामिल है?

दरअसल ये सवाल भारत या अमेरिका को ऊंचा या नीचा दिखाने के लिए नहीं हैं, यह याद करने के लिए दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों के भीतर बराबरी की वास्तविक लड़ाइयां बाकी हैं और वे यहीं नहीं सारी दुनिया में बाकी हैं। जो पिट रहे हैं वे कहीं अश्वेत होते हैं, कहीं दलित, कहीं आदिवासी, कहीं मुसलमान और हर जगह स्त्री, लेकिन इन तमाम लोगों को अपने लोकतंत्र से बाहर कर, हम न स्वस्थ रह सकते हैं और न सुखी। समानता सम्मान की भी पहली शर्त है और खुशहाली की भी, यह अमेरिका की जलती हुई बस्तियां नए सिरे से याद दिला रही हैं।

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