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This Article is From Jun 25, 2021

तब की इमरजेंसी अब की इमरजेंसी...

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    June 25, 2021 22:01 IST
    • Published On June 25, 2021 22:01 IST
    • Last Updated On June 25, 2021 22:01 IST

46 साल पहले आज के ही दिन, यानी 25 जून, 1975 को लगाई गई इमरजेंसी वाकई बहुत बुरी थी. आम लोगों के नागरिक अधिकार छीन लिए गए थे और खास लोगों को जेल में डाल दिया गया था. इंदिरा गांधी का विरोध करने वाला पूरा का पूरा विपक्ष जैसे सलाखों के पीछे था. हज़ारों राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं के 19 महीने क़ैद में कट गए. जिस रात इमरजेंसी लागू हुई थी, उस रात प्रमुख अखबारों की बिजली काट दी गई थी और अगले दिन से उन पर ऐसी सेंसरशिप लादी गई जिसने अभिव्यक्ति की आज़ादी को मखौल में बदल कर छोड़ दिया. इस दौरान इंदिरा गांधी के युवा बेटे संजय गांधी की ज़िद पर फ़ैसले होते रहे. दिल्ली के सुंदरीकरण के नाम पर तुर्कमान गेट को ढहा दिया गया. लोगों की जबरन नसबंदी की गई. सलमान रुश्दी ने अपने उपन्यास मिडनाइट्स चिल्ड्रेन में इसे 19 महीने लंबी रात की संज्ञा दी. 

निस्संदेह वह भारतीय लोकतंत्र का सबसे अंधेरा समय था. संसदीय लोकतंत्र जैसे अप्रासंगिक हो चुका था, संविधान जैसे चीथड़े-चीथड़े था. उस दौरान इंदिरा गांधी ने विवादास्पद 42वां संविधान संशोधन पारित कराया था जिसमें अदालतों के अधिकार सीमित किए गए थे, राज्यों की शक्तियां छीन कर केंद्र को दी गई थीं, और प्रधानमंत्री को बहुत सारे अधिकार सौंप दिए गए थे. जब जनता पार्टी की सरकार आई तो 43वें और 44वें संविधान संशोधनों के ज़रिए इनके कई प्रावधान वापस किए गए. इस इमरजेंसी के लिए इंदिरा गांधी को माफ़ नहीं किया जा सकता. जनता ने भी माफ़ नहीं किया. 1977 में इंदिरा गांधी का सफाया हो गया और जनता पार्टी की सरकार आई. यह अलग बात है कि वह अपने अंतर्विरोधों और अपनी दुराभिसंधियों की वजह से ढाई साल भी टिक नहीं पाई और जनता फिर इंदिरा गांधी को सत्ता में ले आई.

लेकिन एक बात ईमानदारी से स्वीकार करनी चाहिए. इसमें संदेह नहीं कि इंदिरा गांधी में व्यक्तिवादी राजनीति के बहुत सारे तत्व थे और संस्थाओं का दख़ल उन्हें बहुत मंज़ूर नहीं था. उनके रहते लोकतांत्रिक संस्थाओं में अवमूल्यन की शुरुआत हुई. लेकिन इसके बावजूद लोकतंत्र उनको अंतिम पैमाना लगता रहा. वे 15 साल प्रधानमंत्री रहीं और इस दौरान उन्होंने कई जनवादी फ़ैसले किए. इमरजेंसी भी किसी दबाव में नहीं हटाई, बल्कि इस उम्मीद में हटाई कि जनता उनका साथ देगी. दरअसल 19 महीने की यह इमरजेंसी उनकी नीतिगत महाभूल रही जिसके पीछे उनके अक्खड़-अहंकारी बेटे संजय गांधी और उनकी पत्नी मेनका गांधी के अलावा जगमोहन जैसे कुछ और करीबी सहयोगी थे. यह महाभूल उनकी पूरी राजनीति पर और आज़ादी के बाद की कांग्रेसी विरासत पर लगा काला धब्बा है. लेकिन यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि इंदिरा गांधी जब इमरजेंसी हटाने पर विचार कर रही थीं तो कौन लोग इमरजेंसी के पक्ष में बयान दे रहे थे? अगर विकीपीडिया पर भरोसा करें तो इमरजेंसी हटाए जाने की घोषणा के महज चार महीने पहले- यानी नवंबर 1976 में माधवराव मुले, दत्तोपंत ठेंगड़ी और मोरोपंत पिंगले के नेतृत्व में 30 से ज़्यादा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिखकर कहा था कि अगर आरएसएस कार्यकर्ताओं को रिहा कर दिया जाए तो वे लोग इमरजेंसी का समर्थन करेंगे. वाजपेयी भी इसके पक्ष में थे.

बहरहाल, वह इमरजेंसी अब चार दशक पुरानी बात है. इन दिनों इसे दो अलग-अलग छोरों से याद किया जा रहा है. बहुत सारे लोगों को लग रहा है कि इमरजेंसी वाले दिन लौट आए हैं. दूसरी ओर बहुत सारे लोग बता रहे हैं कि जिन लोगों ने इमरजेंसी लगाई, वे आज के लोकतांत्रिक माहौल में इमरजेंसी देख रहे हैं. सच्चाई क्या है? इसमें संदेह नहीं कि मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान इंदिरा गांधी वाली भूल नहीं दुहराएगा. उसे मालूम है कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा कर अपना तात्कालिक नुक़सान भी किया और दीर्घकालिक भी. अगर इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए इमरजेंसी लगाई थी तो वे उसे बचा नहीं सकीं. अंततः उनकी वापसी जनता के आदेश पर ही हुई. लेकिन इस फ़ैसले का नुक़सान यह हुआ कि आज भी इंदिरा इमरजेंसी के लिए याद की जाती हैं.

दूसरी बात यह कि आज की सत्ता को इमरजेंसी लगाने की ज़रूरत नहीं है. दुनिया भर में लोकतंत्र को इन दिनों लोकतांत्रिक तौर-तरीक़ों से ही नुक़सान पहुंचाया जा रहा है. लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमज़ोर कर, व्यक्तिवादी प्रशस्ति को बढ़ावा देकर और लोकप्रियतावादी नारों को हवा देकर, धन-बल और छलबल से चुनाव जीत लेने को लोकतंत्र का पर्याय बना दिया गया है. चुनाव जीत कर सत्ता चलाने वाली बहुत सारी सरकारें अपनी प्रवृत्ति और अपने विश्वासों में लोकतांत्रिक नहीं हैं. वे व्यक्तिपूजा के सहारे, धर्म और राष्ट्र के उन्माद को ज़रिया बनाकर वोट जीतने के तरीक़े विकसित कर चुकी हैं. उनके लिए विचारधारा महज एक कवच है जिसे किसी भी युद्ध में अपनी सुविधा के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है. ऐसी सत्ताओं और सरकारों को हमारे समय के क्रूर पूंजीवाद का भी खुला समर्थन है. इस पूंजीवाद को विचारधारा रास नहीं आती, रोटी और रोज़गार के बुनियादी सवाल रास नहीं आते, न्याय और बराबरी की स्थापनाएं नागवार गुजरती हैं.

हमारे यहां भी यही स्थिति है. लोकतंत्र पूंजीतंत्र पर निर्भर है. चुनाव जीतने के लिए अब एक-एक उम्मीदवार को लाखों नहीं करोड़ों की रकम जुटानी पडती है. फिर इस पूंजीतंत्र का प्रचार माध्यमों पर पूरा क़ब्ज़ा है. जो इसके विरोध में है, उसे किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है. भारतीय संदर्भों में कहें तो आज का सरकार विरोधी पहले बाज़ार विरोधी कहलाता है, फिर नक्सल समर्थक, फिर वह अर्बन नक्सल हो जाता है, कभी-कभी धर्म के हिसाब से आतंकवादी और हर सूरत में देशद्रोही. देश शब्द का ऐसा गंदा और देशविरोधी इस्तेमाल किसी और ने नहीं किया होगा, जैसा इन दिनों सरकारें करती हैं. वे अपने लिए हर असुविधाजनक क़दम को देशद्रोह से जोड़ देती हैं.

दरअसल यह वह अघोषित इमरजेंसी है जो घोषित इमरजेंसी से ज़्यादा डराती है. उस घोषित इमरजेंसी में यह स्पष्ट था कि सरकार आपके किस क़दम पर क्या रुख़ अख़्तियार करेगी. लेकिन इस अघोषित इमरजेंसी में हर असहमति विरोध है और हर विरोधी दुश्मन है. दिल्ली में बैठा एक पत्रकार पाता है कि उस पर हिमाचल प्रदेश में मुक़दमा हो रहा है. नागरिकता क़ानून का विरोध कर रहे नौजवान पाते हैं कि उन्हें दंगाई बता कर जेल में डाल दिया जा रहा है. एक ट्विटर की असावधानी आपको सलाखों के पीछे भेज सकती है. एक कार्टून बनाने पर सरकार दबाव डाल कर आपकी नौकरी ले सकती है.

दूसरी तरफ़ सत्ता-प्रतिष्ठान से जुड़े आइटी सेल तरह-तरह के झूठ फैलाने को आज़ाद हैं. हर रोज़ वर्तमान और इतिहास को लेकर तरह-तरह के झूठ गढ़े जा रहे है. सांप्रदायिक आधार पर देश को जैसे बांट दिया गया है. हर बात हिंदू-मुसलमान के हवाले से कही जा रही है. एक पूरी ट्रोल सेना है जो किसी भी लेखक-पत्रकार या बुद्धिजीवी का पीछा करती है, उसका मजाक बनाती है, उसे गाली देती है, उसके बारे में दुष्प्रचार करती है, जरूरत पड़ने पर उसे धमकी देती है और ऐसे लोगों का सत्ता का संरक्षण हासिल होता दिखता है. लोकतंत्र के अलग-अलग पायों को कमज़ोर किया जा चुका है और बिल्कुल लोकतांत्रिक ढंग से एक अलोकतांत्रिक माहौल बनाया जा रहा है.

पिछले दिनों ट्विटर पर एक लड़की ने अपनी नानी के लिए ऑक्सीजन सिलिंडर दिलाने की अपील की. तुरंत ट्विटर पर ही एक समूह चला आया जिसने आरोप लगाया कि वह माहौल ख़राब कर रही है, सरकार को बदनाम कर रही है. उसे धमकी दी गई कि वह अपनी अपील वापस ले. इस समूह पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. लेकिन दूसरी तरफ़ ट्विटर पर सच लिखने वाले मुक़दमों के शिकार बनाए जा रहे हैं. गुजरात की एक कवयित्री पारुल खक्खर ने गंगा में बहाए जाते शव देखकर एक कविता लिखने की भूल की- 'शववाहिनी गंगा' और गुजरात की साहित्य अकादेमी ने अपनी पत्रिका में उसे 'लिटररी नक्सल' करार दिया.

यह सच है कि यह बहुत गहरी बहुसंख्यक असहिष्णुता का दौर है. इसकी चपेट में सिर्फ अल्पसंख्यक ही नहीं, उदार बहुसंख्यक भी आ रहे हैं. परिवारों के भीतर इसने दरार पैदा कर दी है. इस असहिष्णुता ने एक नया समाज बनाया है जिसे हिंसा आनंद देती है, क्रूरता मूल्य लगती है और करुणा उपहासास्पद वस्तु मालूम पड़ती है. इसके पीछे की विचारधारा को समझना मुश्किल नहीं है. 25 जून 1975 को एक असुरक्षित प्रधानमंत्री ने इमरजेंसी घोषित की थी. लेकिन जून 2021 में एक मज़बूत सरकार अपने मनमाने फ़ैसले मनवाने के लिए बिल्कुल उन्हीं औजारों का सहारा ले रही है और हर असहमति को कुचलने पर आमादा है. इसे आप इमरजेंसी मानें न मानें, लेकिन यह लोकतांत्रिक कतई नहीं है, बल्कि स्वस्थ लोकतंत्र और स्वस्थ समाज के लिए ख़तरनाक है.

आख़िरी बात- इमरजेंसी इंदिरा गांधी के लिए नीतिगत महाभूल थी. लेकिन यह अघोषित इमरजेंसी इस सरकार के लिए अघोषित नीति है. दबाव इतना बनाए रखो कि लोग सच कहने से, विरोध करने से, असहमति जताने से डरें.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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