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This Article is From Jul 18, 2019

कुलभूषण जाधव को हम कैसे बचाएंगे?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 18, 2019 16:35 pm IST
    • Published On जुलाई 18, 2019 16:35 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 18, 2019 16:35 pm IST

हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय से आए फ़ैसले के बाद भारत में जीत और जश्न का जो माहौल है, उसमें यह बात जैसे छुपी रह जा रही है कि कुलभूषण जाधव की बस फांसी टली है, उन पर संकट नहीं टला है. क्योंकि हेग से आए फ़ैसले ने बेशक भारत के बहुत सारे आरोपों को सही पाया है लेकिन बहुत सारी दूसरी मांगें ठुकरा भी दी हैं. भारत की मांग थी कि कुलभूषण जाधव को भारत भेजा जाए और उन पर कोर्ट मार्शल के तहत सुनाए गए फ़ैसले को अवैध करार दिया जाए.

लेकिन हेग ने ये दोनों बातें नहीं मानीं. उसने बस इतना माना कि पाकिस्तान ने कुलभूषण जाधव को काउंसेलर ऐक्सेस न देकर वियना समझौते का उल्लंघन किया है. उसने कहा है कि पाकिस्तान भारत को ये ऐक्सेस दे. दूसरी बात उसने ये कही कि पाकिस्तान फ़ैसले की समीक्षा करे. साथ में उसने यह जोड़ दिया कि पाकिस्तान ख़ुद यह तय करे कि वह एक निष्पक्ष सुनवाई का क्या रास्ता निकाल सकता है.

ख़तरा इसी मोड़ पर है. पाकिस्तान की मौजूदा न्याय व्यवस्था में हम निष्पक्षता की कितनी उम्मीद कर सकते हैं? ख़ासकर ऐसे मामले में जिसका वास्ता सीधे-सीधे पाकिस्तान की सुरक्षा, पाकिस्तान के राष्ट्रवाद, पाकिस्तान को भारत की ओर से दी जा रही चुनौती से बताया जा रहा है? हेग की अदालत ने यह नहीं कहा है कि कुलभूषण जाधव जासूस नहीं है. यानी पाकिस्तान में उस पर जासूस होने के इल्ज़ाम में ही मुक़दमा चलाया जाएगा. बस यह फौजी मुक़दमा नहीं होगा. अगर फ़ौजी मुक़दमा होगा तो उसमें एक प्रावधान जोड़कर उसे एक वकील मुहैया कराया जाएगा.

लेकिन जिस देश में कुलभूषण जाधव को पहले से ही जासूस, आतंकवादी और पाकिस्तान का दुश्मन घोषित किया जा चुका हो, जिसे पकड़ना या छोड़ना पाकिस्तान की इज़्ज़त और ताक़त का मामला बन चुका हो, वहां कौन सा वकील ऐसा मिलेगा जो 'जनभावना' के विरुद्ध जाकर जाधव का बचाव करेगा? बेशक, भारत के कुछ सिरफिरे मानवाधिकारवादियों की तरह वहां भी कुछ सिरफिरे लोग हैं जो कभी सरबजीत का केस लड़ते हैं, कभी किसी गीता को पालते हैं और कभी लाहौर में भगत सिंह की मूर्ति लगाने का आंदोलन चलाते हैं, और संभव है कि ऐसा कोई सिरफिरा वकील कुलभूषण जाधव के लिए भी खड़ा हो जाए. लेकिन वह जाधव को बचा लाने लायक सबूत और गवाह जुटा पाएगा? क्या वह पाकिस्तान की सेना और वहां के सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा कुलभूषण जाधव के ख़िलाफ़ बनाया गया जो माहौल है, उसे काट पाएगा?

यह काम आसान नहीं है. जिसे हेग ने 'निष्पक्ष जांच' कहा है, उसका नाटक करना तीसरी दुनिया की न्याय व्यवस्थाएं बाखूबी जानती हैं. ऐसी 'निष्पक्ष जांच' में पाकिस्तान ही नहीं, भारत भी माहिर है.
कुलभूषण जाधव को बचाने का दूसरा- लगभग नामुमकिन लगता- रास्ता यह है कि पाकिस्तान पर इतना अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाया जाए कि वह कुलभूषण जाधव को छोड़ दे. लेकिन यह काम भी आसान नहीं है. कुलभूषण जाधव कमांडर अभिनंदन नहीं है जो किसी युद्धबंदी की तरह वापस सौंप दिया जाए. वह हाफ़िज़ सईद जैसा आतंकवादी भी नहीं है जिसे गिफ़्तार करने का अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाया जाए. बेशक, वह पाकिस्तान के लिए जासूस और आतंकवादी है और पाकिस्तान दुनिया के सामने यह दलील दे सकता है कि जब वह हाफ़िज़ सईद को गिरफ्तार कर रहा है तो कुलभूषण जाधव पर मुक़दमा क्यों न चलाए.

यहीं वह असली चुनौती समझ में आती है जिसका वास्ता सिर्फ कुलभूषण जाधव से नहीं, पूरी न्याय व्यवस्था से है. जब न्याय व्यवस्था राजनीतिक दबाव से, राष्ट्रवादी प्रलोभनों से, धार्मिक या जातिगत पूर्वग्रहों से दूर होती है, जब वह एक पेशेवर अभियोजन पक्ष के सहयोग से काम करती है, जब वह गवाहों को तोड़ने और सबूतों को मिटाने की संस्कृति से मुक्त होती है, तब सबसे ज़्यादा न्याय के पक्ष में होती है, अपने नागरिकों के पक्ष में होती है, अपने देश के पक्ष में होती है. लेकिन जब न्याय ताकतवर लोगों का खेल बन जाए, जब वह सत्ता पक्ष के अपराधों को छुपाने का काम करने लगे, जब वह दंगों और तरह-तरह की हिंसा के आरोपियों को डरा तक न पाए, तब देश को कमज़ोर करता है, समाज को कमज़ोर करता है और समाज के कमज़ोर वर्गों पर किसी क़हर की तरह टूटता है.

दुर्भाग्य से इस मामले में पाकिस्तान और भारत- दोनों का सच लगभग एक ही जैसा है. हमारे देश में भी न्यायपालिकाएं अक्सर इस बात की शिकायत करती पाई जाती हैं कि जांच एजेंसियां सत्ता के एजेंट की तरह काम करती हैं. हमारे यहां इस बात के उदाहरण मिलते हैं कि सत्ता पलटते ही एजेंसियों की निगाहें पलट जाती हैं. हमारे यहां भी बहुत सारे लोग झूठे आरोपों में बरसों-बरस जेल काटने को मजबूर होते हैं. जब मामला आतंकवाद का हो, जब आरोप देशद्रोह का हो, जब गोरक्षा का हो तब तो लोगों के भीतर खुद न्याय करने का उत्साह इतना प्रबल होता है कि न्यायपालिकाएं जैसे अप्रासंगिक हो उठती हैं. मॉब लिंचिंग इकलौता न्याय रह जाता है.

दरअसल जब न्यायतंत्र मज़बूत होता, जब उसके भीतर रिश्वत, दबाव या किसी अन्य आवेग में बहने की संस्कृति नहीं होगी, जब वकील किसी मामले में पहले ही तय नहीं कर लिया करेंगे कि वे किसी मामले की सुनवाई करेंगे या नहीं, जब मीडिया ख़ुद को मुक़दमे चलाने के खेल से दूर रखेगा, तब हर नागरिक का न्याय सुरक्षित रहेगा, किसी विदेशी नागरिक का भी.

सच तो यह है कि मौजूदा हालात में ऐसा न्याय बिल्कुल यूटोपिया जैसा लगता है. लेकिन यह यूटोपिया संभव होगा तभी कुलभूषण जाधव जैसा कोई शख्स न्याय की सही प्रक्रिया से गुज़रने की उम्मीद कर सकेगा.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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