व्यभिचार कानून को रद्द करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला बस इतना नहीं है कि स्त्री और पुरुष के विवाहेतर संबंधों को अब जुर्म नहीं माना जाएगा. दुर्भाग्य से हमारे लगातार सतही-सपाट होते समय में ज़्यादातर लोग इस फैसले की इतनी भर व्याख्या करेंगे. लगातार चुटकुलेबाज होते जा रहे हमारे समाज को यह फैसला अपने लिए स्त्री-पुरुष संबंधों के खुलेपन पर कुछ छींटाकशी का अवसर भर लग सकता है, लेकिन यह एक ऐतिहासिक फैसला है.
क्योंकि इस फैसले का वास्ता स्त्री की आजादी और उसकी यौनिक आज़ादी से भी है. सुप्रीम कोर्ट ने संभवतः पहली बार इतने स्पष्ट ढंग से रेखांकित किया है कि देह स्त्री की संपत्ति है और उसे इसके बारे में फैसला करने का अधिकार है. हालांकि स्त्री की यौनिक आजादी का जिक्र छिड़ते ही कुछ लोग इस तरह छिटक पड़ते हैं जैसे यह विमर्श चलाने वाले या स्त्री के लिए यौनिक आजादी की मांग करने वाले लोग विवाहेतर संबंधों का लाइसेंस मांग रहे हैं या यौन रिश्तों की विच्छृंखलता की वकालत कर रहे हैं.
जबकि मामला बस इतना है कि पुरुष की तरह स्त्री भी स्वाधीन है, शादी उसे सामाजिक और नैतिक बंधन में बांधती जरूर है, लेकिन दोनों का एक स्वायत्त व्यक्तित्व भी है. पहले यह स्वायत्तता सिर्फ़ पुरुष को हासिल थी. अब तो नहीं, लेकिन अतीत में विवाहित पुरुषों का वेश्यागमन भी सामाजिक तौर पर स्वीकृत था, बल्कि जिन जमींदार घरों में पुरुष इससे बचते थे, वहां उनकी मर्दानगी पर सवाल उठते थे.
सुप्रीम कोर्ट ने दरअसल इस मर्दानगी की अवधारणा को भी झटका दिया है. क्योंकि इसी अवधारणा के तहत मर्द औरत को अपनी संपत्ति समझता रहा है. वह चाहे तो औरत घर में रहेगी, वह चाहे तो दफ़्तर जाएगी- वह उसकी दी हुई आज़ादी का उपभोग करेगी और उसके लिए उसकी कृतज्ञ होगी. कुछ दिन पहले आई एक फिल्म 'दिल धड़कने दो' में प्रियंका चोपड़ा शादी के बावजूद बच्चा नहीं चाहती, वह उस शादी से अलग होना चाहती है- उसका यह फ़ैसला किसी को समझ में नहीं आता- उसके मां-पिता को भी नहीं. इसके ठीक पहले प्रियंका चोपड़ा का पति राहुल बोस बहुत गरूर से बताता है कि उसने प्रियंका को काम करने की पूरी आज़ादी दी है. इस पर प्रियंका का दोस्त फ़रहान अख्तर सवाल उठाता है कि उसे अपनी आज़ादी के लिए तुम्हारे आदेश की ज़रूरत क्या है.
कहने का मतलब यह कि सुप्रीम कोर्ट ने स्त्री-स्वातंत्र्य के कई रूपों पर पहले से बहस चलती रही है. लैंगिक समानता और यौनिक आज़ादी के जिन दो मोर्चों पर स्त्री लगातार संघर्षरत रही है और जिसकी वजह से लगातार पिटती रही है, उसमें धीरे-धीरे उसे जीत मिलती दिख रही है. सुप्रीम कोर्ट ने पहले स्त्री को पारिवारिक संपत्ति का अधिकार देकर उसकी लैंगिक बराबरी का रास्ता बनाया और अब 158 साल पुराना क़ानून रद्द करके उसकी यौनिक आज़ादी का रास्ता खोल दिया है.
लेकिन इन तमाम कानूनी और संवैधानिक व्यवस्थाओं के बावजूद क्या स्त्री को किसी भी रूप में बराबरी की हैसियत मिल पाई है या उसकी आज़ादी सुनिश्चित हुई है? इसमें शक नहीं कि उसे पहले के मुकाबले बहुत सारी छूट मिली है- पढ़ाई में, नौकरियों में, खेलों और तमाम क्षेत्रों में उसकी मौजूदगी भी बढ़ी है और स्वीकृति भी. सरकारी विज्ञापन इस स्त्री समता का जितन गुलाबी रूप दिखाते हैं, वह भले सच न हो, लेकिन हमारे सार्वजनिक जीवन में स्त्री की जगह और हैसियत दोनों बढ़ी है.
लेकिन दो कड़वी सच्चाइयां इन सारी सच्चाइयों पर भारी हैं. एक तो यह कि सारे कानून मिलकर भी स्त्री को उसकी संवैधानिक हैसियत नहीं दिला पाए हैं. बहुत सख्त दहेज कानून के बावजूद दहेज के मामलों में कमी नहीं आई. घरेलू हिंसा विरोधी कानून के बावजूद घरों में औरतों की पिटाई नहीं रुकी है. दफ़्तरों में यौन उत्पीड़न रोकने का कानून बना, लेकिन इसके मामले लगातार सामने आ रहे हैं. बलात्कार पर फांसी तक की सज़ा नियत हो गई, लेकिन बलात्कार की जैसी भयावह खबरें आ रही हैं, वे दिल दहला देती हैं.
दूसरी सच्चाई इसी पहली सच्चाई से निकलती है. सारे कानूनों के बावजूद अगर समाज के स्तर पर महिलाओं को बराबरी नहीं मिल रही तो इसकी वजह बस यही है कि हमारा समाज नहीं बदल रहा. स्त्रियां जितनी बदल रही हैं, पुरुष उतने नहीं बदल रहे हैं. अब भी स्त्री की बराबरी या आज़ादी को लेकर एक रुग्ण किस्म की हिचक उनके भीतर दिखाई पड़ती है. महिलाएं उनके लिए सहज सहयोगी नहीं, एक असुविधाजनक उपस्थिति हैं जिनको लेकर पीठ पीछे फिकरे कसे जा सकते हैं, जिनकी मैत्रियों को संदेह और कुत्सा से देखा जा सकता है और अवसर मिलते ही जिनके यौन उत्पीड़न की कोशिश की जा सकती है.
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को भी इसी कुत्सित नज़र से देखे जाने का अंदेशा है. बहुत सपाट ढंग से यह बात फैलाई जा सकती है कि अदालत ने विवाहेतर संबंधों की छूट दी है. जबकि अदालत ने ऐसा कुछ नहीं किया है. अदालत ने बस ऐसे किसी संबंध को जुर्म माने जाने से इनकार किया है. उसने वह धारा 497 हटा दी है जिसके तहत कोई पुरुष अपनी पत्नी के साथ किसी और के संबंध को लेकर उस पुरुष पर मुकदमा कर सकता था. दिलचस्प यह है कि ऐसे मामलों में स्त्री पर मुकदमा नहीं होता. क्योंकि वह व्यक्ति नहीं, संपत्ति या मिल्कियत मान ली गई थी. सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुंचा इसी गुज़ारिश के साथ था कि ऐसे रिश्तों के लिए स्त्री को भी दोषी माना जाए- लेकिन अदालत ने ज़्यादा विवेकशील दृष्टि अपनाते हुए स्त्री-पुरुष दोनों को ऐसे मामलों में मुजरिम नहीं माना. उसने बेशक ये कहा कि ऐसे विवाहेतर संबंधों को तलाक का आधार बनाया जा सकता है. जो लोग इस फ़ैसले को पश्चिमी प्रभाव का असर बताते हुए विवाह संस्था के लिए खतरनाक मान रहे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि विवाह संबंध को सबसे ज्यादा खतरा रिश्तों की गैरबराबरी से है. अगर विवाह संस्था में दोनों बराबर न हों और स्त्री को पुरुष की मिल्कियत बने रहना है तो फिर इस संस्था के होने का मतलब नहीं है. दो बालिग लोगों का विवाह तभी सार्थक है जब दोनों के भीतर आपसी बराबरी और भरोसे का रिश्ता हो. सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला बस इस बात को सुनिश्चित करता है.
लेकिन यह बराबरी बस अदालती फैसले से हासिल नहीं होगी. बाकी लड़ाइयों की तरह यह लड़ाई भी महिलाओं को लड़नी होगी. उन्हें संपत्ति में अधिकार लेना होगा और समाज में अपनी जगह लेनी होगी. जो लोग पश्चिमी सभ्यता के हमले का डर दिखाकर पहले से उन्हें डराते रहे हैं, वे नए सिरे से डराएंगे, लेकिन इस डर के पार जाना होगा और अपनी बराबरी और आजादी के संवैधानिक रास्ते पर आगे बढ़ना होगा.
(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)
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This Article is From Sep 27, 2018
क्योंकि संपत्ति नहीं है स्त्री
Priyadarshan
- ब्लॉग,
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Updated:अक्टूबर 08, 2018 09:10 am IST
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Published On सितंबर 27, 2018 18:32 pm IST
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Last Updated On अक्टूबर 08, 2018 09:10 am IST
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