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This Article is From Apr 26, 2019

बेगूसराय में कैसे जीतेगा कन्हैया कुमार...?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 26, 2019 15:28 pm IST
    • Published On अप्रैल 26, 2019 15:21 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 26, 2019 15:28 pm IST

बेगूसराय की लड़ाई को कन्हैया कुमार की मौजूदगी ने एक राष्ट्रीय मुकाबले में बदल डाला है. देश भर से कई प्रतिष्ठित लोग कन्हैया के समर्थन और प्रचार के लिए बेगूसराय पहुंच रहे हैं. इनमें JNU के उनके पुराने साथी ही नहीं, अलग-अलग प्रगतिशील आंदोलनों और मोर्चों से जुड़े लोग भी शामिल हैं. कुल मिलाकर माहौल कुछ ऐसा है कि जो इस दौर में कन्हैया के प्रचार के लिए नहीं गया, वह खांटी प्रगतिशील या सामाजिक कार्यकर्ता नहीं है. जावेद अख़्तर, शबाना आज़मी और योगेंद्र यादव जैसी हस्तियां उनके समर्थन में बेगूसराय पहुंचकर प्रचार कर चुकी हैं.

कन्हैया को बेशक, समर्थन मिलना भी चाहिए. राजनीति की मौजूदा सड़ांध में वह एक ताज़ा चेहरा है. जो लोग उसके खांटी मार्क्सवादी न होने की शिकायत कर रहे हैं, वे भूल रहे हैं कि भारतीय लोकतंत्र में यह अवगुण नहीं, गुण है. भारतीय जनता ऐसे नेता को पसंद नहीं करती है, जिसमें पर्याप्त लचीलापन न हो. बेशक, इस लचीलेपन के अपने ख़तरे हैं, लेकिन यह ख़तरा तो संसदीय लोकतंत्र का अपरिहार्य अंग है - अगर आपको यह मंज़ूर नहीं है और आप सीधा वर्ग संघर्ष या क्रांति चाहते हैं, तो यह रास्ता आपके लिए नहीं है. इस रास्ते पर एक-दूसरे को समझना, अपनी विचारधारा के साथ सामाजिक व्यावहारिकता को जोड़ना एक मजबूरी है.

तो कन्हैया या उस जैसे पढ़े-लिखे नौजवान राजनीति में आएं, तो इनका स्वागत करना चाहिए. भारतीय राजनीति के अन्यथा उदास और डरावने माहौल में इनकी उपस्थिति एक उम्मीद पैदा करती है. यही बात जिग्नेश मेवाणी जैसे कुछ और युवा चेहरों के बारे में कही जा सकती है. मगर बेगूसराय में जो माहौल इन दिनों बना हुआ है, वह एक दूसरे माहौल की भी याद दिलाता है. 2014 में जब वाराणसी में नरेंद्र मोदी से मुकाबला करने के लिए अरविंद केजरीवाल उतरे, तब भी पूरे देश से उनके समर्थन में जाने वालों का तांता लग गया. माहौल कुछ ऐसा बनाया गया, जैसे केजरीवाल प्रधानमंत्री को हरा सकते हैं. जब नतीजा आया, तो पता चला कि केजरीवाल साढ़े तीन लाख वोटों से हार चुके हैं.

बेगूसराय भी कहीं बनारस साबित न हो, यह डर बिल्कुल निराधार नहीं है. भारत में चुनाव बेशक किसी जश्न से कम नहीं, लेकिन उनको लड़ा किसी जंग की तरह ही जाता है. बेगूसराय में यह लड़ाई तिकोनी है. बेगूसराय में कन्हैया कुमार को सिर्फ गिरिराज सिंह का नहीं, उन तनवीर हसन का भी सामना करना है, जिन्होंने 2014 की मोदी लहर और भोला सिंह जैसे ताकतवर उम्मीदवार के बावजूद वहां से साढ़े तीन लाख से ज़्यादा वोट हासिल किए थे. तनवीर हसन का प्रदर्शन देखते हुए ही RJD गठबंधन के तमाम दलों के लिए उदारता दिखाने के बावजूद CPI के लिए यह सीट छोड़ने को तैयार नहीं हुई. अब ख़तरा यह है कि अगर कन्हैया कुमार ने तनवीर हसन के बहुत सारे वोट झटक लिए, तो सबको पाकिस्तान भेजने वाले गिरिराज सिंह वहां से जीत हासिल कर लेंगे. क्योंकि 2014 में BJP को वहां जो सवा चार लाख वोट मिले थे, उनमें एक बड़ा हिस्सा उन लोगों का है, जो मोदी और BJP की राजनीति के आक्रामक समर्थक हैं.

इनके बीच कन्हैया बहुत बड़ी सेंधमारी नहीं कर पाएंगे. दुर्योग से BJP जिस निर्लज्ज फासीवादी नज़रिये के साथ पूरी राजनीति कर रही है, और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह उसका साथ दे रहा है, उसकी वजह से कन्हैया बहुत सारे लोगों के लिए 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' का नुमाइंदा है. कन्हैया या इस तरह के लोगों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली ही बताती है कि एक बड़े समुदाय के भीतर अपने सबसे सहज नागरिकों और नौजवानों को लेकर कितनी घृणा भरी जा चुकी है.

इस घृणा के बीच कन्हैया CPI के उम्मीदवार होकर तो नहीं जीत पाएंगे. CPI के डेढ़ लाख वोट हैं, जिन्हें कन्हैया को जीतने के लिए कम से कम तिगुना करना होगा. फिर कन्हैया के जीतने का रास्ता क्या निकलेगा...? वह कुछ बेगूसराय वाले होकर जीत सकते हैं, कुछ दिल्ली के हाथों सताए शख़्स के तौर पर अपने लोगों की सहानुभूति बटोर सकते हैं. वह अपनी भूमिहार पहचान का इस्तेमाल कर सकते हैं - या वे करें या न करें, बेगूसराय के वोटर तो ऐसा कर ही सकते हैं.

अगर कन्हैया को यह सब नहीं करना है, तो फिर बेगूसराय से लड़ने की ज़रूरत क्या थी...? अगर वह एक राष्ट्रीय नेता के तौर पर लड़ रहे हैं, अगर वह ख़ुद को किसी जातिगत, स्थानीय पहचान से परे रखना चाहते हैं, तो फिर किसी भी सीट से चुनाव लड़ सकते थे. ऐसी कोई सीट उन्हें RJD दे भी देती और उनका जीतना आसान भी होता. बेगूसराय अगर उन्होंने इसलिए चुना है कि वह वहीं के हैं, तो वहां की सारी पहचानें उन्हें अपने साथ लेकर ही चुनाव लड़ना होगा.

दरअसल भारतीय लोकतंत्र की असली चुनौती यही है. यहां आप सिर्फ़ कम्युनिस्ट होकर, सिर्फ कोई सिद्धांतवादी होकर चुनाव नहीं जीत सकते. आपको अपनी बहुत सारी पहचानों के साथ जीना और लोगों के बीच जाना होता है. भारत के नेता यही काम करते हैं, लेकिन दुचित्तापन यह है कि इसे वे स्वीकार करने को तैयार नहीं होते. क्योंकि वे भारत की विविधता के साथ सहज रिश्ता नहीं बनाते, इस विविधता के भीतर अपनी पहचान के कुछ टापुओं को ही अपने एकाधिकार की तरह बचाए रखना चाहते हैं. हमारा लोकतंत्र अपने नेताओं से यह अपेक्षा रखता है कि वे जनता के क़रीब रहें, उनके बीच के हों. जब यह अपेक्षा पूरी नहीं होती, तो मतदाता अपनी जातिगत और धार्मिक पहचान के आधार पर अपने नुमाइंदे चुनते हैं. लेकिन कोई नेता ऐसा हो, जो उनको भरोसा दिलाए कि वह इन सब पहचानों से परे जाकर सबका है, तो शायद वह कहीं ज़्यादा स्वीकार्य होगा.

कन्हैया का मोल यही है. वह इस भरोसे का चेहरा बन सकता है. लेकिन इस भरोसे के साथ खड़े होने का मतलब तनवीर हसन जैसे शालीन उम्मीदवार के ख़िलाफ़ प्रचार करना नहीं है, जैसा जावेद अख़्तर करते नज़र आए. यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि बेगूसराय की लड़ाई में लगभग एक पक्ष में खड़े दो लोगों का टकराव किसी गिरिराज सिंह को न जिता दे. बेशक, फिलहाल जो माहौल बना हुआ है, वह बता रहा है कि बेगूसराय अपने युवा नेतृत्व के साथ ही खड़ा होगा, लेकिन अंग्रेजी की यह पुरानी कहावत अब भी खरी है कि 'देअर आर मैनी स्लिप्स बिटवीन द कप एंड द लिप्स' - होठों और प्याले के बीच बहुत सारी फिसलनें होती हैं.


प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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