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This Article is From Feb 09, 2022

हिजाब से पहले अपना नक़ाब उतारिये जनाब!

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 09, 2022 22:23 pm IST
    • Published On फ़रवरी 09, 2022 22:23 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 09, 2022 22:23 pm IST

साल 2012 में ईरान की महिला फुटबॉल टीम को ओलिंपिक क्वालिफ़ायर मुक़ाबले खेलने से रोक दिया गया. 2007 में ही फ़ीफ़ा ने सुरक्षा के नाम पर कान और सिर ढंकने पर रोक लगा दी थी. जबकि ईरान की लड़कियां अपने बंद समाज से निकल कर फुटबॉल खेलने की कोशिश कर रही थीं और एक हल्का सा समझौता उन्हें बड़े अवसर दे सकता था. लेकिन जोर्डन की टीम को तब विजेता घोषित कर दिया गया. लेकिन तब फीफा के फ़ैसले को बहुत सारे लोगों ने पश्चिमी दुनिया के अहंकार की तरह देखा. यह दलील दी गई कि ओलिंपिक में मूलतः पश्चिमी ढर्रे के कपड़ों की ही इजाज़त दी जा रही है. इस सांस्कृतिक युद्ध को फिलहाल छोड़ें, लेकिन इस ज़िद की वजह से ईरान की लड़कियों की आज़ादी की ओर बढ़ने की एक कोशिश कुछ पीछे रह गई.

कर्नाटक से शुरू हुआ हिजाब विवाद देखकर ईरान की फुटबॉल खिलाड़िनों पर लगे प्रतिबंध की याद आती है. उनमें से कुछ का फुटबॉल खेलना छूट ही गया होगा. कर्नाटक में भी शुरुआत हिजाब पहनने वाली लड़कियों को क्लास से बाहर करने से हुई. संभव है, कुछ लड़कियों की पढ़ाई इस सारे विवाद से घबरा कर उनके घरवालों ने अभी ही बंद करा दी हो. आख़िर बेटियों को संरक्षण के नाम पर घरों में लगभग बांध कर रखने के मामले में हिंदुस्तानी बाप-भाई- चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान- बिल्कुल एक हैं. हिजाब की इजाज़त मिले या न मिले, कुछ को आगे पढ़ने की इजाज़त शायद अब कभी नहीं मिलेगी.

हिजाब विवाद की सबसे बड़ी चोट यही है. बहुत सारी लड़कियों की पढ़ाई रुकने का ख़तरा है. जो हिजाब पर पाबंदी लगाकर मुस्लिम लड़कियों को घुटन भरे माहौल से बाहर लाने की वकालत कर रहे हैं, वे अपनी बहनों और बेटियों के साथ बिना हिजाब के भी लगभग वही सलूक करते रहे हैं. इसलिए सभी धर्मों की लड़कियों की ओर से यही बात आ रही है कि वे साड़ी पहनें, सलवार सूट पहनें, जीन्स-टॉप पहनें, हिजाब और बुर्का पहनें, जो भी पहनें, लेकिन उनको पढ़ने दें, उनकी पढ़ाई न रोकें.

लेकिन हिजाब का मुद्दा आया कहां से? हिजाब है क्या? ज़्यादातर लोगों को शायद यह भी पता नहीं होगा कि हिजाब बस सर ढंकने वाले आंचल जैसा है. वह नक़ाब नहीं है जिससे चेहरा छुप जाए. वह बुर्का नहीं है जिससे पूरा बदन ढंक जाए. वह घूंघट के क़रीब है.क्या स्कूल-कॉलेजों में ऐसा घूंघट या हिजाब लिया जाना उचित है? इसका पहला जवाब नहीं में आता है. स्कूल-कॉलेज के अपने ड्रेस कोड होते हैं और सबको उन पर अमल करना चाहिए.

लेकिन क्या स्कूलों-कॉलेजों के ड्रेस कोड में इस बात की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए कि उनमें समाज के चलन या धार्मिक आस्थाओं का भी समावेश हो? क्या उनमें अलग-अलग मौसमों का ख़याल नहीं रखा जाता? क्या स्कूल-कॉलेजों में टोपी या पगड़ी को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए? क्या सिख लड़कों से यह आग्रह किया जाएगा- और क्या यह उचित होगा- कि वे स्कूल के ड्रेस कोड का अनुसरण करते हुए सिर पर पगड़ी न बांधें? या अगर स्कूल कोड सिख भावनाओं का ख़याल रखते हुए इसकी संभावना बनाता है तो क्या उसे दूसरे समुदाय की सामाजिक भावनाओं का खयाल भी नहीं करना चाहिए?

भारतीय राष्ट्र राज्य का विकास इसी भावना से हुआ है. हम एक-दूसरे की विविधता का सम्मान करने के लिए जाने जाते हैं. इसीलिए हमारे संविधान ने अलग-अलग पर्सनल लॉ को मान्यता दी है. यह बात सामाजिक जीवन से भी आई है. सड़क पर कोई अर्थी गुज़रती है तो लोग किनारे हो जाते हैं, कोई यह शिकायत नहीं करता कि अर्थी के नाम पर रास्ता रोक दिया गया है. बारात निकलती है तो लड़के देर तक रास्ता रोक कर डांस करते नज़र आते हैं. कोई बुरा नहीं मानता. दुर्गा पूजा, गणेशोत्सव, छठ, मुहर्रम, कांवड़ यात्रा- हर ऐसे अवसर पर रास्ता जाम होता है, शहर कुछ थम जाते हैं, कुछ काम भी रुकते हैं, लेकिन कोई शिकायत नहीं करता. सबको मालूम है कि यह भारतीय समाज की लय है, इसमें बहुत हांफती-दौड़ती- निर्जीव-निर्वैयक्तिक क़िस्म की गतिशीलता की ज़रूरत नहीं है.

स्कूलों-कॉलेजों में भी इस विविधता के दर्शन होते हैं. कोई तिलक लगा कर आ जाता है, कोई पगड़ी या टोपी पहन कर, कोई हिजाब पहन कर और कोई बुर्का पहन कर भी. यह हिंदुस्तान की ख़ूबसूरती भी है जो यहां दिखाई पड़ती है.

कर्नाटक के स्कूल-कॉलेजों में भी लड़कियां अरसे से हिजाब पहन कर आती रहीं. इससे किसी को परेशानी नहीं होती थी. होती भी होगी तो दूसरी तरह की. हिंदुस्तान में लड़कियां कुछ भी पहन लें, उनपर छींटाकशी की जा सकती है. वे जीन्स और टॉप पहन कर आ जाएं तो बदचलन करार दी जाएंगी, साड़ी-सलवार सूट पहन कर आना चाहें तो बहनजी बना दी जाएंगी और बुर्का ओढ कर चली आएं तो कठमुल्लियां बताई जाएंगी. इसके बावजूद ये लड़कियां पढ़ती रही हैं और अपने साथ पढ़ने वालों को संस्कारित भी करती रही हैं कि वे उन्हें सम्मान और समानता के साथ देखें.

लेकिन अचानक ये कौन लोग चले आए हैं जिनको हिजाब परेशान करने लगा? वे कौन लोग हैं जो हिजाब से मुक्ति दिलाकर मुस्लिम लड़कियों की आज़ादी के नए वकील बन गए हैं? जिनको हिजाब को टक्कर देने के लिए भगवा कपड़े पहनने की ज़रूरत महसूस होने लगी? यह दरअसल अपने भीतर की सांप्रदायिकता है जो बहुसंख्यकवाद के वर्चस्व का राजनीतिक खेल खेल रही है. यह वह मानसिकता है जो हिंदुस्तान का रंग-रूप और मिज़ाज बदलना चाहती है. इसी के तहत जिस पोल पर 26 जनवरी को तिरंगा झंडा फहराया जाता है, उस पर भगवा झंडा लहरा दिया जाता है. इस पर किसी को एतराज़ तक नहीं होता.

इस बदलते हिंदुस्तान को देखकर दुख भी होता है और डर भी लगता है. इस बदलते हुए हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री एक राज्य सरकार पर आरोप लगाता है कि उसने कोरोना फैलाने की साज़िश की और इसके लिए मज़दूरों को टिकट देकर दूसरे राज्यों में भेजा. इसी हिंदुस्तान में कभी तबलीगी जमात के नाम पर मुसलमानों पर कोरोना जेहाद फैलाने का आरोप लगा था, अब इस देश के गरीबों पर आरोप लगाया जा रहा है कि वे इसके लिए एक साज़िश के वाहक थे. इस हिंदुस्तान में विरोध करने वालों को अर्बन नक्सल बताया जाता है और यह काम भी प्रधानमंत्री करते हैं.

हिजाब पर लौटें. धार्मिक पहचानों को व्यक्तिगत पहचानों की तरह ओढ़ना एक तरह से पिछड़ेपन की निशानी माना जाता है. लेकिन ऐसी पहचानों को आप नोच कर नहीं फेंक सकते. ये लड़कियां पढ़ रही हैं और ख़ुद तय कर रही हैं कि वे कब हिजाब पहनेंगी और कब हिजाब छोड़ेंगी. सच तो यह है कि ऐसे प्रतिक्रियावादी और सियासी लोग हर जमात में होते हैं जो ऐसे मौक़ों का फ़ायदा उठाने की कोशिश करते हैं. एक कट्टरता से दूसरी कट्टरता ताकत पाती है.

लेकिन इन लड़कियों का हिजाब उतारने से पहले ज़रूरी है कि बहुसंख्यक मानसिकता अपना नक़ाब उतारे. इसके बाद वह अपना चेहरा इतिहास के आईने में देखे. तब उसे इसकी वीभत्सता दिखाई देगी.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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