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This Article is From Mar 06, 2018

लेनिन भारतीय नहीं थे, लेकिन क्या गांधी या बुद्ध सिर्फ भारत के हैं...?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 06, 2018 15:11 pm IST
    • Published On मार्च 06, 2018 14:57 pm IST
    • Last Updated On मार्च 06, 2018 15:11 pm IST
जिस वक्त श्रीश्री रविशंकर देश को बता रहे थे कि मंदिर नहीं बना, तो इसकी हालत सीरिया जैसी हो जाएगी, लगभग उसी वक्त त्रिपुरा में एक भीड़ व्लादिमिर लेनिन की मूर्ति गिरा रही थी. बाद में इस कृत्य के समर्थन में त्रिपुरा के राज्यपाल से लेकर देश के गृह राज्यमंत्री तक के बयान आए. गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने कहा कि विदेशी विचारधारा के लिए देश में जगह नहीं होनी चाहिए.

इस बात पर सैद्धांतिक बहस हो सकती है कि मार्क्सवाद किस हद तक विदेशी विचारधारा है या फिर किस हद तक भारत या दुनिया में प्रासंगिक है. इस बात पर भी बहस हो सकती है कि हम जिन विचारधाराओं को अपना मानते हैं, वे कितनी देसी या विदेशी हैं.

लेकिन, कम से कम दो बातें ऐसी हैं, जिन पर बहस की गुंजाइश नहीं है. पहली बात तो यह कि किसी भी लोकतांत्रिक समाज में भीड़ को इस तरह मूर्तियां गिराने-ढहाने की छूट नहीं दी जा सकती - इसका समर्थन करना तो बिल्कुल अपराध है. यह अलग बात है कि इस देश में हाल के दिनों में कानून को अपने हाथ में लेने का चलन बढ़ा है. भीड़ यहां वे फैसले करती है, जो कानून को करने चाहिए. याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि इस 'भीड़तंत्र' को बढ़ावा देने में BJP और उसके सहयोगी संगठनों की ख़ास भूमिका रही है.

दूसरी बात यह कि भारत का मार्क्सवादी आंदोलन उन कट्टर अर्थों में मार्क्सवादी नहीं है, जिसमें सर्वहारा की तानाशाही की वैचारिकी की केंद्रीय भूमिका है. भारत का मार्क्सवाद दरअसल लोकतंत्र के पानी में पला ऐसा पौधा है, जो मजदूर हितों की बात करता है, पूंजी के तंत्र को संदेह से देखता है और ज़्यादा से ज़्यादा दुनिया के मज़दूरों के एक होने की बात करता है. संसदीय लोकतंत्र में भरोसा करने वाला यह मार्क्सवाद अपने ठेठ अर्थों में उतना ही भारतीय है, जितनी भारतीय जनता पार्टी है. अगर यह मार्क्सवाद लगातार पराजित हो रहा है, तो इसके राजनीतिक कारण इसकी वैचारिकी से ज़्यादा उस दलीय ढुलमुलपन में ही हैं, जो निहायत भारतीय परिस्थितियों की उपज है.

लेकिन, खुद को भारतीय बताने वाली भारतीय जनता पार्टी अपने कृत्यों में कितनी लोकतांत्रिक या भारतीय है - यह त्रिपुरा की ताज़ा घटना और उसके बाद किया जाने वाला उसका समर्थन फिर बताता है. ठीक है कि लेनिन भारतीय नहीं थे, लेकिन क्या वह सिर्फ रूस के थे...? जैसे क्या गांधी या बुद्ध सिर्फ भारत के हैं...? मदर टेरेसा कहां की थीं...? हिटलर भी सिर्फ जर्मनी का नहीं था, उसके कई प्रतिरूप दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति में भी दिखाई पड़ते हैं. BJP जिस विचारधारा की पैदाइश रही है, वह भी हिटलर को अपने प्रेरणा पुरुषों में गिनती रही - हिन्दू महासभा के बड़े नेता बीएस मूंजे बाकायदा हिटलर से मिलने गए थे और सावरकर भारत को जर्मनी की तरह मातृभूमि नहीं, पितृभूमि कहते थे.

जो विचारधारा आज लेनिन को विदेशी बताते हुए उनकी मूर्ति के ध्वंस का समर्थन कर रही है, उसने एक दौर में गांधी को भी मारा है. गांधी तो विदेशी नहीं थे. बहरहाल, देसी-विदेशी की इस बहस को कुछ और करीब से देखें. जिसे संसदीय लोकतंत्र कहते हैं, वह भी पश्चिम से आया है. जिस राष्ट्रवाद पर BJP कुर्बान रहती है, वह भी विदेशी विचारधारा है. यह BJP कभी विदेशी निवेश का विरोध करती थी, अब गर्व करती है कि उसके समय सबसे ज़्यादा विदेशी निवेश आ रहा है. कभी वह कहती थी कि आलू के चिप्स में निवेश चलेगा, माइक्रो चिप्स में नहीं चलेगा, अब वह दुनिया भर से तकनीकी लेनदेन का उत्साह दिखा रही है.

जहां तक मार्क्सवाद की प्रासंगिकता का सवाल है, वह तो हमेशा बनी रहेगी. बंगाल में वामपंथ इसलिए हारा कि उसने मार्क्सवाद को छोड़ दिया - सिंगुर में टाटा का कारखाना और नंदीग्राम में कैमिकल हब बनवाने लग गया. ममता इसलिए जीतीं कि उन्होंने मार्क्सवाद का मुहावरा अख्तियार कर लिया. आज की तारीख में रोटी और रोज़गार के बिना राजनीति नहीं चल सकती. यह मार्क्सवाद के एजेंडे पर अमल की मजबूरी है. जो लोग रोटी और रोज़गार की जगह मंदिर और धर्म की बात करते हैं, वे अपने लोगों और समर्थकों के साथ धोखे के गुनहगार हैं. अंततः उनका छल पकड़ा जाएगा और जिस रूप में भी, जिस नाम से भी राजनीति चले, वह रोटी और रोज़गार की ही चलेगी.

बहरहाल, त्रिपुरा पर लौटें. वहां BJP के गठबंधन की सरकार बन रही है. सरकार बनने से पहले कम्युनिस्टों के साथ हिंसा की ख़बरें आ रही हैं. मूर्ति गिराई जा रही है. यह भारत को भारत नहीं रहने देना है. अफगानिस्तान और सीरिया में बदलना है. जो लोग मार्क्सवाद के शव के चारों तरफ खुशी से प्रेतनृत्य कर रहे हैं, उन्हें इस ध्वंस से डरना चाहिए. यह ध्वंस भारतीय परम्परा नहीं है. लेनिन की मूर्ति गिराने वाले वही लोग हैं, जो दूसरी जगह गोडसे की मूर्ति लगाते हैं. लेनिन मिट जाए और गोडसे बच जाए - कम से कम यह भारत नहीं चाहेगा.


प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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