इस साल 15 मार्च को कर्नाटका हाई कोर्ट ने फैसला दिया कि स्कूलों में हिजाब पर रोक लगाने का कर्नाटका सरकार का आदेश सही है क्योंकि हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है। इस फैसलों को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में 24 याचिकाएं दायर की गई। जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धुलिया की बेंच ने 4 सितंबर से 22 सितंबर के बीच दस दिनों तक सभी पक्षों को विस्तार से सुना। आज इस बेंच का फैसला आ गया है। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने इस सवाल पर विचार करने के लिए बड़ी बेंच के पास भेज दिया है क्योंकि फैसले को लेकर दोनों जजों की राय अलग है। जस्टिस सुधांशु धुलिया के हिसाब से हिजाब बैन का फैसला ग़लत है।जस्टिस हेमंत गुप्ता फैसले के पक्ष में हैं। हम इस फैसले पर आएंगे लेकिन उससे पहले यह देखना ज़रूरी है कि अदालत में पहुंचने से पहले इस मामले को लेकर सड़क पर क्या हुआ? पिछले साल नवंबर और दिसंबर से यह मामला तूल पकड़ता है। जब दिसंबर के अंतिम सप्ताह में उड्डुपी का पीयू कॉलेज हिजाब पहनकर आने वाली लड़कियों को गेट पर रोक देता है।
इसके विरोध में छह लड़कियां प्रदर्शन करने लग जाती हैं। फरवरी आते आते यह मामला उग्र रुप ले लेता है। आठ और नौ फरवरी तक कर्नाटक के कई हिस्सों में हिजाब के समर्थन और विरोध में प्रदर्शन होने लग जाते हैं। यह मामला कर्नाटका हाईकोर्ट की तीन जजों की बेंच में भेजा जाता है। जस्टिम रिते राज अवस्थी की बेंच 11 दिनों तक सुनवाई करती है और फैसला देती है कि हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है। हमें इस घटना के बारे में हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर हिजाब का विरोध सामाजिक परिवर्तन के लिए था तो समाज को विश्वास में लेकर किया गया या ज़ोर ज़बरदस्ती की गई। क्या आप किसी समुदाय को पाकिस्तान भेज देने के नारे के साथ सामाजिक परिवर्तन कर सकते हैं?
यह वीडियो उसी समय का है। हिजाब के समर्थन में आई लड़कियों पर पुलिस लाठी चार्ज करती है। हमारे सहयोगी निहाल किदवई 18 फरवरी की अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि मंड्या पुलिस से पूछा कि इन लड़कियों के साथ अपराधियों के जैसा क्यों सलूक कर रही है तब पुलिस ने इंकार कर दिया।लेकिन जब लाठीचार्ज का यह वीडियो भेजा गया तब जांच की बात कही जाने लगी। तब यह मामला कर्नाटका हाईकोर्ट के संज्ञान में भी लाया गया कि पुलिस हिजाब पहनने वाली लड़कियों को डरा धमका रही है। इस दिन हाईकोर्ट में राज्य सरकार के एडवोकेट जनरल कहते हैं कि जहां जहां कॉलेज डेवलपमेंट कमेटी ने हिजाब को ड्रेस कोड में शामिल किया है वहां हिजाब पर रोक नहीं है। सरकार 5 फरवरी के अपने आदेश को और बेहतर तरीके से पेश कर सकती थी। 5 फरवरी को बेंगलुरु से हमारे सहयोगी निहाल किदवई रिपोर्ट भेजते हैं कि उडुी के एक प्री यूनिवर्सिटी कॉलेज से यह विवाद शुरू हुआ था मगर अब राज्य के कई ज़िलों में फैल गया है।उड्डुपि के कुन्दापुरा में दक्षिणपंथी विचारधारा की छात्राओं ने हिजाब के विरोध में जुलूस निकालती हैं।
हिजाब की प्रतिक्रिया में कुछ छात्राएं भगवा पट्टी पहनकर प्रदर्शन करती हैं। मुस्लिम छात्राएं भी हिजाब पहनकर प्रदर्शन करने लग जाती हैं। ज़ेबा शीरीन कहती हैं कि सुल्ली डील्स, बुल्ली बाई को देखिए, मुस्लिम महिलाओं की ऑनलाइन बोली लगाई जा रही है। हिजाब बैन भी उसी का हिस्सा है क्योंकि हिंदुत्वा ग्रुप मुस्लिम महिलाओं को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहा है" हिजाब पहन कर आने वाली लड़कियों को स्कूल में आने की इजाज़त नहीं दी जाती है। छात्राओं के साथ साथ शिक्षिकाओं से भी कहा जाता है कि वे हिजाब उतार कर स्कूल आएं। यह दृश्य अपने आप में शर्मनाक था। मैं जानता हूं कि अगर किसी महिला से सरे बाज़ार दुपट्टा उतारने के लिए कहा जाए तो आप बिल्कुल पसंद नहीं करेंगे। यहां जो हुआ वह गरिमा के साथ खिलवाड़ था न कि सामाजिक परिवर्तन का आंदोलन। क्योंकि यह धमका कर और जबरन किया जा रहा था। नफरत की आंधी में आज के भारत के लोगों को कुछ भी गलत नहीं लगा यह बात इतिहास नोट करेगा।आप किसी को बेपर्दा करके सामाजिक परिवर्तन नहीं लाते हैं।
यहां सारा मामला है कि एक राजनीति और उससे जुड़े संगठन तय करना चाहते थे कि लड़कियां कब और क्या पहनें। अब होती है बहस। हिजाब पहनने वाली लड़कियां कहती हैं कि पहले तो किसी ने हिजाब पहनने से नहीं रोका तो अब क्यों रोका जा रहा है। एक सवाल जोड़ा जाता है कि पहले हिजाब पहनकर लड़कियां नहीं आती थीं, अब क्यों आ रही हैं।
प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के सांसद प्रवेश वर्मा के बयान पर कुछ नहीं बोला है, जिसमें उन्होंने एक समुदाय के आर्थिक बहिष्कार की बात की थी। ठीक इसी तरह की बात कर्नाटका में बीजेपी के विधायक बासनगौड़ा पाटिल करते हैं और कहते हैं कि इस मिट्टी का उपजा खाते हैं। पानी पीते हैं।और एंटी नेशनल काम करते हैं। मदरसा और उर्दू स्कूल बंद कर दिए जाएं। कन्नडा सीखें अन्यथा पाकिस्तान जाएं।इन बयानों से कोई नहीं कह सकता कि इसमें कूदने वाले मुस्लिम महिलाओं में सामाजिक बदलाव की चाहत रखते हैं। वर्ना ऐसी भाषा नहीं होती। जब किसी को पाकिस्तान ही भेजना है तो उनके पहनावे को लेकर देश की राजनीति और अदालत का समय क्यों बर्बाद किया गया? सुप्रीम कोर्ट में हुई बहस और आज के फैसले पर आने से पहले हम थोड़ी सी पृष्ठभूमि और बताना चाहते हैं।
एक कॉलेज का मामला था लेकिन जिस तेज़ी से कर्नाटका के कई हिस्सों में इसे उग्र प्रदर्शन में बदला गया, ज़ाहिर है केवल एक पक्ष का हाथ नहीं हो सकता था। इसी दौरान हलाल मीट का मामला उठता है। धार्मिक मेलों से गैर हिन्दू दुकानों को हटाने का मामला तूल पकड़ता है। स्कूलों में बाइबल ले जाने का विवाद उठता है। हिन्दू जनजागरण समिति, बजरंग दल, श्रीराम सेने का नाम आता है, उनके नेता बयानबाज़ी करते हैं। क्या इनकी भूमिका को साज़िश के रुप में देखा गया? उसकी जांच हुई? पुरानी रिपोर्ट से पता चलता है कि कर्नाटका सरकार ने आरोप लगाया किहिजाब पहनने का अभियान कथित रुप से पोपुलर फ्रंट आफ इंडिया ने चलाया और यह साज़िश का हिस्सा था। पुलिस ने इसकी जांच की और सीलबंद लिफाफे में रिपोर्ट दी गई। ऐसा क्या था कि सीलबंद लिफाफे में रिपोर्ट की ज़रूरत पड़ी,क्योंकि इसके कुछ महीने बाद तो सरकार ने PFI को बैन ही कर दिया। तब तो सारे तथ्य बताए गए कि इनके खाते में कितना पैसा है, कौन कौन लोग हैं, गोदी मीडिया ने एक एक बात को घंटों दिखाया और मोटा मोटा छापा था। फिर कर्नाटका पुलिस हिजाब अभियान में PFI के रोल पर अपनी जांच सीलबंद लिफाफे में क्यों सौपती है।
हमने सारी बातें नहीं बताईं हैं, ज़ाहिर है समय की कमी है लेकिन इतने से आप समझ सकते हैं कि आप हमेशा एक समुदाय के प्रति नफरत के तूफान से घिरे रहे हैं इसका समय समय पर इसी तरह इंतज़ाम किया जाता है। इससे वक्त मिले तो अपने शहर के किसी सरकारी कालेजों का हाल देख आइयेगा जहां आपके लल्लाओं और लल्लियों का भविष्य विश्व गुरु के स्तर का बनना है।
क्या हिजाब लड़कियों को स्कूल कालेज तक जाने से रोकता है? क्योंकि कर्नाटका के केस में हिजाब के कारण ही लड़कियां कालेज तक पहुंच रही थीं। भारत में लड़कियों की शिक्षा शुरू ही होती है घूंघट और पर्दा के साथ। बहुत सारी लड़कियां स्कूल तभी गईं जब उनके तांगे को पर्दे से चारों तरफ घेर दिया गया, घूंघट निकाल कर जाने की इजाज़त मिली। धीरे धीरे जब समाज सहज हो गया तो अब स्कूल कालेज और दफ्तर जाने के मामले में घूंघट की ज़रूरत समाप्त हो हो गई समाज भूल गया है,अब केवल कुछ घरों में भड़भड़ाते हुए जेठ जी आते हैं तभी इसकी ज़रूरत पड़ती है। घूंघट की पहचान एक सामाजिक बुराई के रुप में होती है मगर उसी के सहारे लड़कियां पहली सीढ़ी चढ़ती हैं।सुनवाई के दौरान सिख लड़कियों का हवाला दिया गया कि वे सर ढंकती हैं। कृपाण भी लेकर जाती हैं। कोई नहीं रोकता है। यहां हिजाब पहनकर लड़कियां स्कूल तो जा रही हैं, क्या यहां पर हिजाब स्कूल जाने की गारंटी नहीं है? वकील मीनाक्षी अरोड़ा संयुक्त राष्ट्र की एक समिति का हवाला देते हुए कहती हैं कि समिति ने पाया है कि ड्रेस कोड को छात्रों को स्कूल आने से रोकने के बजाय उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित करना चाहिए। जब फ्रांस में हिजाब पर प्रतिबंध की बात उठी तो मीनाक्षी अरोड़ा ने कहा कि उस देश में बहुत सख्ती से धर्मनिरपेक्ष नीतियों का पालन होता है। वहां किसी भी धार्मिक प्रदर्शन की अनुमति नहीं है। कर्नाटका के संदर्भ में यह बात उठी कि हिजाब पहनने से रोकने का बुरा असर पड़ रहा है। बड़ी संख्या में लड़कियों ने स्कूल जाना छोड़ दिया है। इसकी संख्या को लेकर विवाद होते रहे।
इस मसले पर कर्नाटका हाईकोर्ट में 11 दिन और सुप्रीम कोर्ट में 10 दिन सुनवाई हुई है। जब तक आप सुनवाई के दौरान उठाए गए कुछ सवालों, रखे गए कुछ तर्कों के बारे में नहीं जानेंगे, आप आज के फैसले के महत्व को नहीं समझ सकते हैं।कोर्ट के सामने यह दलील बार बार आई कि अदालत को ऐसे मामलों से दूर रहना चाहिए, उसे नहीं तय करना चाहिए कि कोई परंपरा किसी धर्म का अनिवार्य हिस्सा है या नहीं तब सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच ने कहा कि इस मंच से जवाब नहीं दिया जाएगा तो किस मंच से दिया जाएगा। और इस तरह बहस चलती रहती है।
राजीव धवन, प्रशांत भूषण,कपिल सिब्बल, दुष्यंत दवे, मीनाक्षी अरोड़ा, संजय हेगड़े, निज़ाम पाशा, देवदत्त कामत, सलमान ख़ुर्शीद, आदित्य सोंधी, अब्दुल मजीद धर, हुज़ैफा अहमदी, शोएब आलम, कॉलिन गोज़ाल्विस, जयना कोठारी, यूसुफ हातिम मुछला, कीर्ति सिंह, थुलसी के राज ने अपनी ओर से बहस की।
इन सभी की बहस में कुछ बातें कॉमन थीं और कुछ अलग अलग थी। कई वकीलों ने सिख समुदाय की लड़कियों के सर ढंकने का उदाहरण दिया। कई वकीलों ने कहा कि यह मामला संविधान पीठ के पास भेजा जाए और यही हुआ, बड़ी बेंच के पास भेज दिया गया। सुनवाई के दौरान अफ्रीका, अमरीका, कनाडा, फ्रांस जैसे देशों की अदालतों के फैसलों का हवाला दिया गया तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत की बात करें। यानी अदालत इस बात को लेकर साफ थी कि यह विषय केवल भारत के संदर्भ में देखा जाएगा। लेकिन अफ्रीका और कनाडा की बातों को दरकिनार करने के बाद भी सोलिसिटर जनरल अपनी दलील में ईरान का मुददा ले आते हैं। और कहते हैं कि हिजाब अनिवार्य प्रथा नहीं है। जिन देशों में इस्लाम राजकीय धर्म है वहां महिलाएं हिजाब के खिलाफ बगावत कर रही हैं ईरान का किस्सा अलग है, जिस पर अलग से बात करनी होगी। वहां हिजाब का विरोध केवल हिजाब के लिए नहीं हो रहा है, सत्ता के कुलीन तंत्र के खिलाफ भी हो रहा है। वहां अलग से एक पुलिस बल बनाया गया जिसका काम साधारण महिलाओं को हिजाब पहनने के लिए मजबूर करना था। तो उसके खिलाफ महिलाएं हिजाब को प्रतिरोध का प्रतीक बना लेती हैं। ईरान की महिलाएं हिजाब के बहाने सरकारी दमन के बड़े सवालों से भी टकरा रही हैं। ईरान में जो हो रहा है वह शानदार है मगर भारत में जो हो रहा है वह शर्मनाक है। क्योंकि यहां ज़ोर ज़बरदस्ती से तय किया जा रहा है। ईरान के आंदोलन को लेकर भारत में कई महिलाओं ने समर्थन दिया, अच्छी बात है मगर उनमें से कई महिलाएं कर्नाटका की लड़कियों के साथ जो धक्का मुक्की हुई उस पर चुप रहीं। अभी आपने वीडियो देखा था कि कैसे कालेज के बाहर टीचर को हिजाब बुर्का उतारने के लिए मजबूर किया गया।
जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया की बेंच सुनवाई कर रही थी। क्या हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा है? इस बड़े सवाल के तहत बाकी सारे सवाल आते जाते रहे। वकीलों ने जो सवाल उठाए उनमें से कुछ मुख्य सवाल और दलीलें इस तरह से हैं। हमारे लिए संभव नहीं है कि हर वकील का नाम उनकी दलीलों के साथ दे सकें।
दलील दी गई कि शिक्षण संस्थानों में ड्रेस कोड के साथ-साथ धार्मिक प्रतीकों के लिए भी जगह है। लाखों लड़कियां हिजाब पहनती हैं। कई संस्थानों में सिख छात्राएँ सर ढंकती हैं। इसे ड्रेस कोड का उल्लंघन नहीं माना जाता है। जस्टिस गुप्ता कहते हैं कि पगड़ी पहनने और जज के तिलक लगाने को इससे न जोड़ें। मेरे दादा भी पगड़ी पहन कर वकालत करते थे। क्या स्कार्फ पहनने पर रोक होती तो कक्षा में दुपट्टा पहनने पर भी रोक लगेगी? हिजाब भी ड्रेस कोड का हिस्सा होना चाहिए। जस्टिस गुप्ता ने कहा कि दुपट्टे की तुलना हिजाब से न करें। एक दलील उठी क कॉलेज डेवलपमेंट कमेटी ने अपने हिसाब से नियम बनाया, जिसकी कोई कानूनी वैधता नहीं है. इस कमेटी में लोकल विधायक होता है। इस मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई। जस्टिस गुप्ता ने कहा कि ठीक है, आपको हिजाब पहनने का अधिकार है. लेकिन क्या आप इसे ऐसे स्कूल में पहनने पर जोर दे सकते हैं जहां एक निर्धारित वर्दी है?
जस्टिस गुप्ता ने यह भी सवाल किया कि क्या कोई छात्रा उस स्कूल में हिजाब पहन सकती है जहां ड्रेस कोड तय है? देवदत्त कामत एक महिला एडवोकेट जिन्होंने काले कपड़े से सिर ढंका हुआ है, को इंगित करते हुए बोल रहे हैं कि इससे किसी को क्या दिक्कत हो सकती है! क्या इससे कोर्ट को कोई दिक्कत हो रही है? कामत ने कहा कि केंद्रीय विद्यालय के लिए 2012 में एक सर्कुलर आया जिसमें छात्राओं को यूनिफार्म के रंग का स्कॉर्फ पहनने की इजाजत दी जा सकती है तो राज्य में क्यों नहीं दलील दी गई कि कि अनुच्छेद 19 में माना गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में पोशाक भी शामिल है। ड्रेस का विरोध नहीं है बल्कि अगर ड्रेस के साथ हेड स्कार्फ भी पहनना चाहते हैं। तो यह कैसे ड्रेस कोड का उल्लंघन हो जाता है. क्या हेड स्कार्फ पहनने के अधिकार में कटौती की जा सकती है? स्कार्फ पहनने से किसके मौलिक अधिकारों का हनन होता है?
देवदत्त कामत कहते हैं कि धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर सिर्फ तीन चीजों में प्रतिबंध लग सकता है, पब्लिक ऑर्डर, नैतिकता और स्वास्थ्य। इस मामले में यह सिद्ध किया जाना चाहिए कि हिजाब पहनने से कैसे सार्वजनिक व्यवस्था बिगड़ जाती है?
सलमान ख़ुर्शीद कहते हैं कि इस्लाम में अनिवार्य और गैर-अनिवार्य जैसा कोई बात नहीं है। कुरान में जो कुछ है वह अनिवार्य है और पैगंबर ने जो व्याख्या की है वह भी अनिवार्य है।अगर पवित्र किताब में लिखा है कि ईश्वर दयालु है और हमारे अपराध क्षमा करता है तो इसका ये मतलब नहीं है कि धार्मिक उसूलों और सिद्धांतों का पालन न किया जाए।कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला कुछ नजरिए से भले ठीक हो लेकिन व्यवहारिक तौर पर ये गलत है।खुर्शीद पुट्टस्वामी फैसले का हवाला देते हुए कहा कि परिधान और दिखने की पसंद भी निजता का एक पहलू है। खुर्शीद ने यह भी कहा कि कई इस्लामिक देशों में लोग मस्जिदों में सर नहीं ढंकते हैं मगर भारत में ढंकते हैं। जस्टिस गुप्ता ने ही एक टिप्पणी में कहा था कि अदालतें समाज और संस्कृति को देखकर फैसला लेती हैं।
सवाल है कि एक आम दर्शक तक ये सारी बातें कहां पहुंचती हैं, वही पहुंचता है जो एजेंडा और प्रोपेगैंडा से ठेला जाता है। इतनी बहस अलग बेरोज़गारी और महंगाई के आर्थिक कारणों पर हो जाती तो देश की राजनीति बदल जाती। इस देश के नौजवानों को व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी के अलावा कुछ काम भी मिल जाता। वकील आदित्य सोंधी ने नाइजीरियाई सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि लागोस के पब्लिक स्कूलों में हिजाब के इस्तेमाल की अनुमति दी थी। इसलिए सरकार के आदेश को स्कूलों पर छोड़ देना चाहिए।
आदित्य सोंधी कहते हैं कि एक नागरिक पर दो अधिकारों में से किसी एक को चुनने का बोझ नहीं होना चाहिए। यही वह स्थिति है जिसका सामना लड़कियां कर रही हैं ।इसी बिंदु पर वकील राजीव धवन कहते हैं कि आवश्यक प्रथाओं पर, केरल हाईकोर्ट और कर्नाटक हाईकोर्ट के बीच मतभेद है। केरल हाईकोर्ट इसे आवश्यक मानता है। हम जानते हैं कि आज जो कुछ भी इस्लाम के रूप में आता है, उसे खारिज करने के लिए बहुसंख्यक समुदाय में बहुत असंतोष है। हम देख सकते हैं कि गौ हत्या मामले में। अब 500 पूजा स्थलों पर मामले दाखिल किए गए हैं। आए दिन एक समुदाय को टारगेट किया जाता है। छात्राओं के साथ मारपीट की गई। उनके साथ भेदभाव किया गया। हम यह चाहते हैं कि अदालत प्रिस्ट न बने मगर पंडित बनकर तय करे कि कानून क्या है।धवन कहते है कि जजों को धर्म के मामलों में न्यायविद नहीं बनना चाहिए।
गोदी मीडिया के ऐंकर इतनी मेहनत कर ये सारी बातें आपको नहीं बताएंगे क्योंकि वे चाहते हैं कि आप बस भीड़ बने रहें। ताकि आपको जब मर्जी हो, जिस दिशा में हो, हांका जा सके। राजीव धवन ने एक और महत्वपूर्ण बात कही। हिजाब पूरे देश में पहना जाता है। यह इस्लाम में एक उचित और स्वीकार्य प्रैक्टिस है।और बिजॉय एमेनुएल मामले में कोर्ट ने तय किया था कि अगर यह साबित होता है कि कोई प्रैक्टिस उचित और स्वीकार्य है तो उसे इजाजत दी जा सकती है।अभी कुछ दलीलें और हैं जिन्हें हम सार रुप में बताना चाहते हैं।
वकील अहमदी कहते हैं कि राज्य का काम विविधता को प्रोत्साहित करना है न कि प्रथाओं पर रोक लगाना। अगर कोई हिजाब पहनकर स्कूल जाता है तो कोई दूसरा क्यों भड़के? यदि यह उकसाता है, तो आपको इसका समाधान करना होगा।अन्यथा आप किसी को धमकाने की अनुमति दे रहे हैं. जो छात्र मदरसों तक ही सीमित थे उन विशेष वर्ग के छात्रो को रूढ़ियों से निकलकर धर्मनिरपेक्ष शिक्षा में शामिल किया जा रहा था लेकिन आज, यदि आप उसे इस तरह से बर्ताव करेंगे तो क्या प्रभाव होगा। उन्हें मदरसों में वापस जाने के लिए मजबूर किया जाएगा।
कपिल सिब्बल भी कहते हैं कि अनुच्छेद 19 के अनुसार अगर पोशाक पहनना अभिव्यक्ति का हिस्सा है तो इसी अनुच्छेद के तहत सीमा भी ढूंढनी होगी जिसे शीलनता और नैतिकता की कसोटी पर परखा जा सके।इसलिए यह संवैधानिक सवाल है। दिगंबर कामत की तरह दुष्यंत दवे भी धुआंधार बहस करते रहे। उनका तर्क था कि हिजाब पहनकर किसी की भावना को ठेस नहीं पहुंचाई गई है। न्यायालय का एक ही धर्म है संविधान और उसी की कसौटी पर इसका फैसला होना चाहिए।अल्पसंख्यक समुदाय को हाशिए पर रखने का पैटर्न सा चल रहा है। अगर कुछ देशों में हिजाब बैन है तो अमरीका मलेशिया अमेरिका जैसे कई देशों में महिलाएं पहनना भी चाहती हैं।
कर्नाटका सरकार की तरफ से सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता, अटार्नी जनरल पी नवदगी और ASG KM नटराज ने अपने अपने पक्ष रखे। इन तीनों ने कर्नाटका सरकार और कर्नाटका हाई कोर्ट के फैसले के बचाव में पक्ष रखा। मीडिया में आपको हिजाब बैन हिजाब बैन ही सुनाई देगा लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तीन मुख्य बातों से अपनी शुरूआत की। कहा कि सरकारी आदेश में कहीं नहीं लिखा कि हिजाब बैन है. ये सब धर्मों क लिए है। लेकिन यह मुद्दा जाना ही जाता है हिजाब बैन के नाम से। तुषार मेहता ने एक और बात कही कि याचिकाकर्ताओं द्वारा कोई दावा नहीं किया गया है कि हिजाब पहनना अनादि काल से एक प्रथा है, एक दिन इसका भी वक्त आएगा कि अदालत यह तय करने बैठेगी कि हम अनादि काल कैसे तय करें। इसकी समय सीमा क्या होनी चाहिए? तुषार मेहता ने यह भी कहा कि
भगवा गमछे को अनुमति है ना हिजाब को। हाईकोर्ट के फैसले में कोई ड्रेस निर्धारित नहीं है, छात्र ऐसी पोशाक पहनेंगे जो समानता और एकता के विचार को बढावा दे।स्कूल में किसी विशेष धर्म की कोई पहचान नहीं है। आप केवल एक स्टूडेंट के रूप में वहां जा रहे हैं
जस्टिस हेमंत गुप्ता ने लिखा है कि भारतीय संविधान भले ही धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पश्चिम से आई होगी, लेकिन इसने भारत में अपना एक व्यापक रुप इख़्तियार कर लिया है। जिसका अलग इतिहास भी है और पहचान भी। पंथ निरपेक्ष का इस्तेमाल धर्मनिरपेक्ष से अलग होता है लेकिन धर्म ज्यादा संपूर्ण है। उसके मूल्य कभी नहीं बदलते हैं। धर्म ही समाज और नागरिक के जीनवन का उत्थान करता है।
लेकिन जस्टिस सुधांशु धूलिया की राय काफी अलग है। जस्टिस धूलिया एक सवाल उठाते हैं कि क्या हम आवश्यक धार्मिक प्रथाओं को अलग कर स्थिति से नहीं निपट सकते? कोर्ट का मूल सवाल था कि क्या हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा है और जस्टिस धुलिया पूछ रहे हैं कि क्या इस सवाल के बिना हम इस स्थिति से निपट नहीं सकते। ये बहुत ही अहम सवाल है। क्योंकि हिजाब के नाम पर तनाव के हालात बनाकर उसकी जवाबदेही से बचने के लिए अनिवार्य पहलू का सवाल पैदा किया गया। जस्टिस धुलिया लिखते हैं कि अदालत के सामने सवाल यह होना चाहिए कि हिजाब के आधार पर किसी लड़की को शिक्षा से बेदखल कर, क्या हम उसका भला कर रहे हैं? सभी याचिकाकर्ता हिजाब की मांग कर रहे हैं, क्या किसी लोकतंत्र में यह बहुत बड़ी मांग है? यह नैतिकता, सार्वजनिक व्यवस्था के खिलाफ कैसे हैं? अब हम फैसले पर आते हैं।
हमारे सहयोगी आशीष भार्गव ने हर सुनवाई को कवर किया।और हर वकील की दलील के साथ साथ नोट करते रहे। यह काम आसान नहीं होता है। कानूनी भाषा कितनी जटिल होती है, उसका साथ के साथ हिन्दी में अनुवाद कर न्यूज़ रूम में भेजना चुनौती भरा काम है। आशीष भार्गव के नोट्स नहीं होते तो आज का प्राइम टाइम तैयार करना और मुश्किल हो जाता। ब्रेक ले लीजिए।