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This Article is From Nov 01, 2018

भारतीय रिजर्व बैंक की स्वायत्तता में दखल क्यों?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 01, 2018 23:52 pm IST
    • Published On नवंबर 01, 2018 23:52 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 01, 2018 23:52 pm IST
जब स्वदेशी जागरण मंच भारतीय रिजर्व बैंक को सलाह देने लगे कि उसे क्या करना है तो इसका मतलब यही है कि भारत में ईज ऑफ डूइंग वाकई अच्छा हो गया है. नोटबंदी के समय नोटों की गिनती में जो लंबा वक्त लगा, रिज़र्व बैंक ने सामान्य रिपोर्ट में नोटबंदी पर दो चार लाइन लिख दी, तब किसी को नहीं लगा कि उर्जित पटेल को इस्तीफा दे देना चाहिए. बल्कि तब रिजर्व बैंक को भी नहीं लगा कि सरकार हस्तक्षेप कर रही है. उसकी स्वायत्तता पर हमला हो रहा है. सबको उर्जित पटेल अर्जित पटेल लग रहे थे. अब उर्जित पटेल का इस्तीफा भी मांगा जा रहा है और उनके भी इस्तीफा देने की ख़बर आ रही है. 

सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक के बीच संतुलन होना चाहिए, मगर यह संतुलन अभी क्यों डोलता नज़र आ रहा है. क्यों स्वदेशी जागरण को भी लगता है कि गवर्नर उर्जित पटेल अपने अफसरों को सार्वजिनक रूप से मतभेदों को उजागर करने से रोकें या फिर पद छोड़ दें. राष्ट्रीय स्वयं सेवक के इस सगंठन की तरह अगर किसी अन्य संगठन ने सीबीआई पर टिप्पणी कर दी होती तो क्या होता. तब वह किसे पद छोड़ने के लिए कहती.

स्वदेशी जागरण रिज़र्व बैंक को लेकर अचानक क्यों जागरण करने लगा है, उसे रिज़र्व बैंक की गतिविधियों में क्या स्वदेशी दिखा है, आप अश्विनी महाजन से ही सुनें. स्वदेशी जागरण मंच के ही एस गुरुमूर्ति को लेकर विवाद की खबर आई थी, जिससे गुरुमूर्ति ने इंकार किया था. गुरुमूर्ति रिजर्व बैंक के अंशकालिक निदेशक हैं. उन्होंने कहा कि बोर्ड की बैठक में मौजूद थे. इसमें 5 मुद्दों की चर्चा हुई और चार पर सहमति बनी. सिर्फ एक मुद्दे को लेकर लेकिन कोई दबाव नहीं डाला गया. इस संदर्भ में स्वदेशी जागरण मंच का उर्जित पटेल को सलाह और इस्तीफे की बात महत्वपूर्ण हो जाती है. क्या स्वदेशी जागरण मंच ने तब कुछ कहा था, जब रघुराम राजन ने प्रधानमंत्री कार्यालय और वित्त मंत्रालय को कुछ प्रमुख बकायदारों की सूची दी थी कि इनकी जांच हो, ये लोन चुकाने में गड़बड़ी कर रहे हैं.

हमें नहीं पता कि इसे लेकर स्वदेशी जागरण मंच और रिजर्व बैंक में एस गुरुमूर्ति ने क्या किया है या क्या करने जा रहे हैं. लेकिन दि वायर के धीरज मिश्र की रिपोर्ट है कि रिज़र्व बैंक ने सूचना के अधिकार के तहत इस जानकारी की पुष्टि की है कि राजन ने अपना पत्र 4 फरवरी 2015 को प्रधानमंत्री कार्यालय को भेज दिया था. इस पत्र में उन बकायदारों की सूची थी, जिनके खिलाफ राजन जांच चाहते थे. 6 सितंबर को राजन ने 17 पन्नों का एक नोट संसद की समिति को सौंपा था. बताया था कि भारत के बैंकों में नॉन परफार्मिंग एसेट की समस्या क्यों है और कितनी बड़ी है. 

अब प्रधानमंत्री कार्यालय ही बताए कि उस लिस्ट को लेकर क्या कार्रवाई हुई. दि वायर ने यही जवाब प्रधानमंत्री कार्यालय से पूछा था कि राजन का पत्र सूचना के अधिकार के तहत नहीं आता है. क्या आपको यही अजीब नहीं लगता कि एक ही सवाल प्रधानमंत्री कार्यालय से पूछा गया और वही सवाल भारतीय रिज़र्व बैंक से पूछा गया मगर रिज़र्व बैंक ने जवाब दिया और प्रधानमंत्री कार्यालय ने जवाब ही नहीं दिया. क्या सब कुछ ठीक है, बिल्कुल ठीक है. तभी तो एक ने जवाब नहीं दिया तब भी दूसरे से जवाब मिल गया. तालियां.

अग्रेज़ी मीडिया में सरकार और रिज़र्व बैंक को लेकर काफी कुछ लिखा जा रहा है. वित्त मंत्री जेटली ने कहा था कि चुने हुए नेताओं की जवाबदेही होती है, रेगुलेटर की नहीं. इस पर फाइनेंशियल एक्सप्रेस के सुनील जैन ने लिखा है और सवाल किया है कि जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के शेयरों के दाम काफी गिरे हैं. क्या जनता इस बात के लिए उन्हें दंडित करेगी. कहने का मतलब है कि यह सब मुद्दा ही कब होता है. सुनील जैन ने यह भी लिखा है कि यूपीए 1 और 2 के दस साल के दौरान सभी पीएसयू का शेयर वैल्यू 6 लाख करोड़ कम हो गया, लेकिन मोदी सरकार के पांच साल के भीतर ही 11 लाख करोड़ का नुकसान हो गया. आपने कब सुना है कि जनता का पैसा नष्ट करने के लिए लोग सरकार को दोषी ठहरा रहे हों. इसलिए चुने हुए प्रतिनिधियों का इस मामले में कोई विशेष दखल नहीं हो सकता है.

Ndtv.com पर मिहिर शर्मा ने लिखा है कि रिजर्व बैंक अपने मुनाफे से हर साल सरकार को 50 से 60 हज़ार करोड़ देती है. सरकार के पास पैसे कम हैं इसलिए वह और चाहती है. मिहिर शर्मा के लेख में ज़िक्र है कि सरकार की नज़र साढ़े तीन लाख के कैश रिज़र्व पर है. ब्लूमबर्ग वेबसाइट की इरा दुग्गनल ने लिखा है कि 26 अक्तूबर को डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के फट पड़ने से पहले मार्च, अप्रैल और 12 अक्तूबर को गवर्नर उर्जित पटेल और उनके दो दो डिप्टी पब्लिक में बोल चुके हैं. जिससे साफ-साफ इशारा मिलता है कि रिजर्व बैंक अपनी स्वायत्ता के लिए संघर्ष कर रहा है. 28 अक्बूतर के अपनी रिपोर्ट में ईरा दुग्गल ने बताया है कि जब पंजाब नेशनल बैंक का घोटाला सामने आया, तब वित्त मंत्री जेटली ने बिना नाम लिए कहा था कि इतना बड़ा घोटाला ऑडिटर और रेगुलेटर की नज़र से कैसे चूक गया. इसका बड़ा ही कड़ा जवाब गवर्नर उर्जित पटेल ने गुजरात लॉ यूनिवर्सिटी के अपने भाषण में दिया था.

उन्होंने कहा था कि सरकारी बैंकों पर नियंत्रण के लिए रिज़र्व बैंक को और अधिकार चाहिए. उसके अधिकार बहुत सीमित है. उर्जित पटेल ने कहा था कि रिज़र्व बैंक निदेशक को नहीं हटा सकता है, प्रबंधन को नहीं बदल सकता है, विलय के लिए बाध्य नहीं कर सकता है. भारतीय रिज़र्व बैंक जहां सभी बैंकों का नियमन करता है, सरकारी बैंकों का नियमन सरकार करती है, क्योंकि वही इन बैंकों की बड़ी हिस्सेदार है. इस तरह से बैंकों पर दोहरा नियंत्रण है. एक तरह से उर्जित पटेल ने पंजाब नेशनल बैंक घोटाले की ज़िम्मेदारी सरकार के पाले में डाल दी थी, जबकि सरकार रिजर्व बैंक पर दोष डालना चाहती थी.

12 फरवरी को एक सर्कुलर जारी हुआ कि बैंक अगर बड़े कर्ज़दारों से लोन की वापसी में एक दिन की भी देरी हो तो उसे नोट करें और दीवालिया घोषित करने की प्रक्रिया शुरू कर दें. इस नए सर्कुलर से बड़े पावर प्लांट के दिवालिया होने का खतरा बढ़ गया. बैंक वाले सरकार के पास गए और सरकार आरबीआई के पास. मगर आरबीआई ने अपने रुख में बदलाव नहीं किया. आरबीआई ने जुलाई और अगस्त के महीने में पब्लिक में अपने इस सर्कुलर का बचाव किया. बाद में बैंकर कोर्ट चले गए और वहां से 12 सितंबर को राहत मिल गई. कोर्ट में आरबीआई ने कहा कि अगर सरकार सर्कुलर में बदलाव चाहती थी तो वह आरबीआई से कह सकती थी.

इसके पहले अप्रैल में पुणे के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ बैंकिंग में बोलते हुए डिप्टी गवर्नर एनएस विश्वनाथन के बयान को हिन्दू बिजनेस लाइन और इकोनोमिक टाइम्स ने रिपोर्ट किया था. जिसकी हेडिंग है कि रिजर्व बैंक ने अपना दम दिखाया, उम्मीद है दम बरकार रहेगा. डिप्टी गवर्नर विश्वनाथन ने कहा था कि बैंकों के लोन का सही मूल्यांकन बैंकों को भी सूट कर रहा है और सरकार को भी सूट कर रहा है और लोन लेकर नहीं चुकाने वालों को भी सूट कर रहा है. बैंक अपना बहीखाता साफ सुथरा कर लेते हैं और बकायेदार डिफॉल्टर का टैग लगने से बच जाते हैं.

याद कीजिए यही बात वित्त मंत्री कह रहे हैं कि रिजर्व बैंक ने एनपीए का सही मूल्यांकन नहीं किया, जबकि डिप्टी गवर्नर कह चुके हैं कि यह काम तो बैंक और सरकार का था जो उन्होंने नहीं कहा. विश्वनाथन ने साफ-साफ कहा था कि बैंक बदलने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं. 13 अक्तूबर के टाइम्स ऑफ इंडिया में डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने आईआईटी बांबे में कहा कि बैंकों पर अंकुश लगाने से बुरे लोन पर असर पड़ा है और बैंकों की हालत बिगड़ने से बची है. इसलिए इसका जारी रहना बहुत ज़रूरी है. रिज़र्व बैंक ने 11 ऐसे बैंकों पर पीसीए यानी 'प्राम्ट करेक्टिव एक्शन' लगा दिया था, जिनके लोन का बड़ा हिस्सा एनपीए हो गया था. विरल आचार्य ने यह भाषण 12 अक्तूबर को दिया था.

सरकार का दबाव रहा है कि बैंकों से यह अंकुश लगे और उन्हें और अधिक लोन देने की छूट मिले. तो आपने देखा कि भारतीय रिज़र्व बैंक लगातार जनता के बीच अपनी स्वायत्ता की बात कर रहा है, और अधिक अधिकार दिए जाने की बात कर रहा है, लेकिन सबका ध्यान तब गया जब 26 अक्तूबर को डिप्टी आचार्य ने पब्लिक में बोल दिया कि केंद्रीय बैंक की स्वायत्ता को कमज़ोर करना विनाशकारी हो सकता है. बाद में सरकार को बयान जारी करना पड़ा कि आरबीआई की स्वायत्ता जरूरी है और वह सम्मान करती है. लेकिन रिजर्व बैंक के अधिकारी पब्लिक में बात न कहें. सरकार ने अब कहा, जबकि मार्च के महीने से रिजर्व बैंक के गवर्नर पब्लिक को इशारा कर रहे थे कि अनावश्यक दबाव पड़ रहा है.

आखिर रिजर्व बैंक के अस्तित्व में आने के बाद से आज तक सरकार ने कभी सेक्शन सात के तहत आदेश नहीं  दिया, मगर अब यह नौबत क्यों आई है. इस सेक्शन के तहत सरकार रिजर्व बैंक को आदेश दे सकती है कि क्या करना है. आखिर रिजर्व बैंक और सररकार के बीच यह तनातनी क्यों हुई, क्यों सरकार चाहती है कि बैंकों को कर्ज देने की छूट मिले, जबकि कर्ज की वापसी नहीं होने के कारण बैंकों की हालत खस्ता है. क्या सरकार किन्ही खास कॉरपोरेट घरानों के लिए यह सब चाहती है, पता नहीं, क्या सरकार वाकई चाहती है कि बाज़ार में कर्ज़ की राशि उपलब्ध हो, तो फिर वह क्यों नहीं चाहती कि पहले 10 लाख करोड़ के एनपीए वापस हों. एक सवाल यह भी है कि क्या बाज़ार में लोन देने के लिए पैसे नहीं हैं. 

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