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This Article is From Aug 13, 2014

नए पीएम के साथ सांप्रदायिक हिंसा में वृद्धि हुई है?

Ravish Kumar, Rajeev Mishra
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  • Updated:
    नवंबर 20, 2014 12:44 pm IST
    • Published On अगस्त 13, 2014 22:01 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 20, 2014 12:44 pm IST

नमस्कार मैं रवीश कुमार। ऐसा क्यों होता है कि सांप्रदायिकता पर होने वाली बहसें तर्कबुद्धि की काबिलियत का प्रदर्शन बन कर रह जाती है। इस बहस में लोग एक दूसरे से जीतने का प्रयास करने लगते हैं। बहस में तो कोई न कोई जीत जाता है मगर सांप्रदायिकता से ये विजेता हार जाते हैं। सबके पास कारण है। सबके पास नाम हैं। किसी के पास समाधान नहीं है। समाधान का साहस नहीं है।

आज़ादी के पहले सब अंग्रेज़ों को दंगों का कारण बताते थे। आज़ादी के बाद सब कांग्रेस, बीजेपी, सपा को कारण बताते हैं।

बस यही फर्क आया है, कथित रूप से कराने वाले का नाम तब भी पता था अब भी पता है। कारण भी सत्तर अस्सी साल से वही है। फिर भी हम फंस जाते हैं। कुछ तो कमियां हमारे आपके भीतर हैं जो हमें हिंसा की इस राजनीति का शिकार बना देती है। तब जब ज्यादातर लोग हिंसा के खिलाफ हैं, फिर भी कुछ लोग मिलकर हिंसा को अंजाम देने में कामयाब कैसे हो जाते हैं। अक्सर इस बहस में धर्म को ढाल बनाया जाता है। चंद नाइंसाफियां और गैर-बराबरियों को चुनकर हिंसा की आग को भड़काया जाता है। जज़्बातों को भड़काने के लिए कई कमियों को गिनाने लगते हैं मगर गिनाने वाले यह नहीं कहते कि दंगे नहीं होने चाहिए।

आखिर कैसे पूरी दुनिया में फैले हिन्दुस्तानी 15 अगस्त के दिन सीना चौड़ा कर कहेंगे कि हम सब एक हैं। हम सब एक हैं का क्या मतलब है। इसमें हमीं हम हैं या इस हम सब में बाकी सब भी हैं। अगर हज यात्रा पर सरकार की सब्सिडी है तो कुंभ के मेले पर भी है, कैलाश मानसरोवर पर भी है। अगर ऐसे कुछ उदाहरणों में असंतुलन है भी तो वो सिस्टम का मसला है। सिस्टम की इस कमी को समाज में ज़हर बनाकर कौन फैला रहा है।

बीजेडी सांसद तथागत सत्पति ने कहा कि मैंने पता किया भारत में लाउडस्पीकर कब आया। 1921 से पहले मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे पर लाउडस्पीकर नहीं होते थे। अंग्रेज ये सिस्टम लाए भीड़ को काबू करने में। तथागत का भाषण अच्छा रहा। आज वही लाउडस्पीकर भीड़ को बेकाबू और वहशी कर दे रहा है। दंगों में जिस भी समुदाय का मरा जिसकी भी वजह से मरा उस घटना को लेकर आर-पार हो जाना चाहिए या हमें उसके खिलाफ एकजुट हो जाना चाहिए ताकि दोबारा न हो।

अच्छी बात यह है कि 600 से अधिक सांप्रदायिक हिंसा के आंकड़े गिनाये जा रहे हैं। जाहिर हैं इनमें से सैंकड़ों ऐसी घटनाएं होंगी जिन्हें भड़काने का प्रयास तो किया गया होगा मगर नहीं भड़क पाईं। वो इसलिए कि आप हिंसा के ख़िलाफ हैं। फिर भी आरोप प्रत्यारोप के बीच एक बार फिर लोकसभा की बहस उम्मीद बनकर आई है। लोकसभा की साइट पर जाकर इन भाषणों को पढ़ सकते हैं।

कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि जिस जिस जगह चुनाव हो रहे हैं उसी क्षेत्र में और उसी राज्य में ये दंगे ज़्यादा हो रहे हैं। 12 बाई इलैक्शन यूपी में है इसलिए पोलेराइज़ करने के लिए वहां पर दो महीने में 600 से अधिक दंगे करवाए। हम वहां कुछ बोलते हैं तो स्टेर गवर्नमेंट का दायित्व है। अरे स्टेट गवनर्मेंट की कुछ कमियां हैं तो वो जो करना है वो करेंगे लेकिन इसके पीछे आपके लोग जो काम कर रहे हैं जिनको हिम्मत आई है सत्ता आने के बाद। वो देश को तोड़ने का काम कर रहे हैं। तो इसलिए हरेक को दबाकर रखने की आपकी जो नीति है ये नीति बहुत दिन नहीं चलेगी। यूपी ही नहीं कर्नाटक, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान में भी सांप्रदायिक घटनाएं हुई हैं।

अगर आप यह जानना चाहते हैं कि राहुल गांधी बोले या नहीं तो नहीं बोले। हो सकता है गुरुवार को बोले क्योंकि चर्चा जारी है। खड़गे केंद्र सरकार को निशाना बनाकर बीजेपी को मौका दे रहे थे कि वो उनकी सरकार को निशाना बनाए। नीयत ठीक थी मगर भाषण प्रभावी नहीं था। बीजेपी की तरफ से गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ बोलने उठे। वे अपने भाषण में उन्हीं तथ्यों को उजागर कर रहे थे जिससे साबित हो सके कि सामने वाले ने ये किया वो किया। वो अपने उग्र अंदाज़ से सामने वाले की कमज़ोरियों को उजागर करते हुए विश्वसनीय तो लग रहे थे मगर ध्यान से देखने सुनने पर उनकी बातों में वैसी ही कमियां थी जैसी वो सामने वाले में ढूंढ रहे थे।

आदित्यनाथ ने कहा कि जो हिंदू अपनी सहिष्णुता के लिए देश और दुनिया के अंदर जाना जाता है उसके साथ क्या व्यवहार किया जा रहा है वो कश्मीर से विस्थापित होता है। एक बार भी इस सदन में चर्चा नहीं होती है। एक बार भी किसी का मुंह नहीं खुलता जब साढ़े तीन लाख कश्मीरी पंडित कश्मीर से निकाले जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं को मारने के बाद कश्मीरी पंडितों को उनके घर से बेदखल कर दिया गया, लेकिन एक भी बार ये लोग बोले नहीं। दुनिया में अपने आप में ये एक विरला उदाहरण था।

तथ्य यह है कि कश्मीरी पंडितों को लेकर सदन से लेकर सड़क तक पर खूब चर्चा हुई है। इसके जवाब में महबूबा मुफ्ती ने कहा कि कश्मीरी पंडितों के हवाले से सांप्रदायिकता को जायज़ मत ठहराइये। ये हमारा सिस्टम है जो नाइंसाफी करता है। वो हिन्दू मुसलमान भी नहीं देखता। मगर हम धर्म का नाम देकर लड़ने लग जाते हैं। हमें ये बात करनी चाहिए कि हिंसा कैसे खत्म हो।

मुफ्ती ने गृह मंत्री से कहा कि आप रिकॉर्ड निकाल कर देखिये। कश्मीर में जब आतंकवाद फैला तब पूरी दुनिया से लोग आए लड़ने के लिए, लेकिन उनमें से हमारे मुल्क का जम्मू कश्मीर का कोई भी मुसलमान आतंकवादी बनने नहीं आया। 700 कश्मीरी पंडित मारे गए तो 50,000 कश्मीरी मुसलमान भी मारे गए। मेरे पिता गृहमंत्री थे तो मेरे चाचा की हत्या हो गई थी।

मगर ये ज़रूर हुआ, जब कश्मीरी पंडितों को वहां से निकलना पड़ा आपको उस पर तरस आ गया आपने उनको जगह दे दी। मगर जब मुसलमान वहां से निकले उन्हें मुल्क में जगह नहीं मिली बोले, ये आतंकवादी हैं, इन्हें निकालो। मगर आज हमारे कश्मीर का शॉल वाला कारोबार करने वाला पूरे मुल्क में जाता है। अपनी चीज़ें बेचता है कोई उसको शिकायत नहीं है मुल्क के लोगों से। उसे शिकायत है तो सिस्टम से। पुलिस वाला जाता है किसी के घर कि अरे कश्मीरी को घर में रखा है इसे निकाल दो।

महबूबा ने साफ किया कि वे ऐसे उदाहरण देकर किसी की बराबरी नहीं कर रही हैं बल्कि ये काम बंद होना चाहिए। हमें समाधान की दिशा में सोचना चाहिए। मिलकर सोचना चाहिए।

हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने गृहमंत्री से दस सवाल किए। गृहमंत्री याने वज़ीरे दाखला। वज़ीरे आज़म मने प्रधानमंत्री। क्या नए वज़ीरे आज़म के बनते ही सांप्रदायिक हिंसा में वृद्धि हुई है उन तत्वों का हौसला बढ़ा है जो बीजेपी सरकार के समर्थक रहे हैं। क्या राहुल सोनिया के आरोप इन कारणों का सही विश्लेषण करते है?

(प्राइम टाइम इंट्रो)

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