प्राइम टाइम इंट्रो : बेरोजगारी हमें परेशान क्‍यों नहीं कर रही?

प्राइम टाइम इंट्रो : बेरोजगारी हमें परेशान क्‍यों नहीं कर रही?

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर...

मंगलवार के प्राइम टाइम में हमने यूपी में पिछले तीन साल में हुईं सांप्रदायिक घटनाओं पर बात की थी. हिन्दुस्तान टाइम्स के अप्पू एस्थोस सुरेश ने वहां के 75 ज़िलों के पुलिस रिकॉर्ड की छानबीन कर ये बताया था कि 2013 से लेकर अब तक राज्य में दस हज़ार से ज्यादा सांप्रदायिक घटनाएं हुई हैं. अगर राजनीतिक दल इन घटनाओं के पीछे हैं या लाभ उठा रहे हैं तो यूपी की जनता को ही आगे आना चाहिए और अपने सामाजिक तानेबाने को बचाना चाहिए। क्या वाकई यूपी की जनता का नौकरी, अच्छे अस्पताल, बेहतर सरकारी स्कूल जैसे मुद्दों की जगह ऐसे मुद्दों में ही मन रमता है, जिनका संबंध भड़काने से होता है. मुझे नहीं लगता कि जनता ऐसी होती है, लेकिन दस हज़ार घटनाओं को आप कैसे अनदेखा कर सकते हैं. अगर तादाद इतनी है तो लोगों को खुद बाहर आकर समाज को बचाना चाहिए. आज मैं नौकरी पर बात करूंगा, क्या जिस तादाद में सांप्रदायिक तनाव की संख्या बढ़ रही है, नौकरियां भी बढ़ रही हैं. क्या नौकरी का सवाल बिल्कुल ज़रूरी नहीं है. दिल्ली स्थित एक संस्था है 'प्रहार', जिसके अध्ययन की रिपोर्ट समाचार एजेंसी पीटीआई के हवाले से तमाम अख़बारों में प्रकाशित हुई। इसके मुताबिक...
 

  • पिछले चार साल से हर दिन 550 नौकरियां ग़ायब होती चली जा रही हैं.
  • किसान,छोटे खुदरा वेंडर, दिहाड़ी मज़दूर और इमारती मज़दूरों के सामने जीनव का संकट खड़ा होता जा रहा है.
  • इस हिसाब से 2050 तक भारत में 70 लाख नौकरियों की कमी हो जाएगी.

2050 तक क्या होगा, ये सर्वे टिका रहेगा या नहीं कोई नहीं जान सकता, लेकिन जो समय बीत चुका है उसके बारे में जो नतीजा है उस पर तो बात कर सकते हैं. प्रहार के अध्ययन को चुनौती देते हुए एनडीटी डॉट काम पर अनपुम मनुर ने लिखा है कि नौकरियां कम तो हुई हैं, मगर सब कुछ समाप्त नहीं हो गया है. प्रहार ने भी नहीं कहा है कि सब कुछ समाप्त हो गया है. बहरहाल प्रहार ने अपने सर्वे में लेबर ब्यूरो के एक आंकड़ों का बारीक अध्ययन करने का दावा किया है, जिसके अनुसार...
 
  • 2015 में सिर्फ 1 लाख 35 हज़ार नौकरियों का ही सृजन किया गया.
  • 2013 में 4 लाख 19 हज़ार नौकरियां पैदा हुई थीं.
  • 2013 से 2015 के बीच भारी गिरावट आई है.

अप्रैल 2015 में केयर रेटिंग्स के चीफ इकोनोमिस्ट मदन सबनविस और अनुजा शाह ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. कंपनियां अपनी बैलेंस शीट में नौकरियां का जो आंकड़ा पेश करती हैं, इन दोनों ने पिछले चार साल में 1072 कंपनियों का अध्ययन कर बताया कि...
 
  • 2014 में 11 लाख 88 हज़ार से अधिक नौकरियां जोड़ी गई हैं.
  • 2015 में सिर्फ 12,760 नई नौकरियां ही जोड़ी गई हैं.

1000 से अधिक कंपनियों में नौकरियों में इतनी तेज़ी से गिरावट से किसी को फिक्र नहीं है और लोग इस बात में उलझे हैं कि मंदिर के सामने से ताजिये का जुलूस कैसे निकलेगा और मस्जिद के सामने से प्रतिमा विसर्जन का जुलूस. मदन सबनविस और अनुजा शाह की रिपोर्ट में सेक्टर के हिसाब से नौकरियां का विश्लेषण है...
 
  • 2015 के साल में कंस्ट्रक्शन सेक्टर में -43.7 फीसदी नौकरियां घटी हैं.
  • 2015 के साल में केबल में -20.6 फीसदी.
  • डायमंड और जुलरी में -28.4 फीसदी.
  • इंजीनियरिंग में -26.4 फीसदी नौकरियों में गिरावट आई है.
  • अस्‍पताल और हेल्थकेयर सेवाओं में -20.5 फीसदी.

केयर रेटिग्स की रिपोर्ट में आईटी सेक्टर में 20 प्रतिशत की वृद्धि है, लेकिन 19 अक्तूबर यानी आज के बिजनेस स्टैंडर्ड में एक रिपोर्ट छपी है, जिसके अनुसार आईटी सेक्टर में नौकरियां बहुत तो नहीं, मगर कम हो रही हैं. अहमदाबाद, पुणे और मुंबई से बिजनेस स्टैंडर्ड के तीन संवाददाताओं ने रिपोर्ट फाइल की है कि इंजीनियरिंग कॉलेजों में नौकरियां कम आ रही हैं और सैलरी में उछाल नहीं है. बिजनेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, आई टी सेक्टर में पिछले साल के मुकाबले इस साल कैंपस की नौकरियों में 20 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है.
 
  • आईटी सेक्टर में पिछले छह साल से बेसिक ऑफर 3 से साढ़े तीन लाख प्रति वर्ष ही बना हुआ है.
  • मिड लेवल के इंजीनियरिंग कालेजों में इसी सैलरी पर ज़्यादातर को नौकरी मिलती है.
  • इस हिसाब से देखें तो सैलरी में निगेटिव ग्रोथ हो जाती है.

एक कारण यह भी है कि बाज़ार में बहुत बड़ी तादाद में इंजीनियर हो गए हैं. इसलिए भी उनकी शुरुआती सैलरी में पिछले छह साल में कोई वृद्धि नहीं है. यानी छह साल पहले कोई इंजीनियर तीन लाख पर नौकरी पाता है, छह साल बाद का बैच भी इसी वेतन पर ज्वाइन करता है, जबकि इन छह सालों में कॉलेजों की फीस और पढ़ाई का ख़र्चा कितना गुना बढ़ गया होगा. बिजनेस स्टैंडर्ड ने कई कॉलेजों के प्लेसमेंट सेल से बात कर लिखा है कि कैंपस आने वाली कंपनियों की संख्या में तो कमी नहीं है, मगर नौकरियों की संख्या कम रहने के अनुमान हैं.
 
  • पहले कंपनियां चार लोगों को नौकरी पर रखती थीं, तो अब दो लोगों को रख रही हैं.
  • 90 प्रतिशत कंपनियां पिछले साल की ही सैलरी दे रही हैं.

बिजनेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट में हेड हंटर इंडिया के चेयरमैन क्रिस लक्ष्मीकांत का बयान छपा है कि इंफोसिस, विप्रो और टीसीएस जैसी चोटी की तीन कंपनियां हर साल दो लाख नए इंजीनियरों को नौकरी पर रखती थीं, लेकिन अब यह संख्या घटकर 70 से 80 हज़ार हो गई है. इसका कारण यह भी है कि बैंकिंग, फाइनांस सेक्टर और बीमा क्षेत्र में ठहराव आया है. वहां से इन आईटी कंपनियों को बिजनेस नहीं मिल रहा है, लेकिन मैन्युफैक्चरिंग और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में नौकरियां बढ़ सकती हैं. अगर आप केयर रेटिंग्स के आंकड़े देखेंगे तो...
 
  • 2015 में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में नौकरियों में वृद्धि दर -5.2 प्रतिशत दर्ज हुई है.
  • बैंकिंग सेक्टर में पिछले साल मात्र 2.1 फीसदी रही है.

मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में नौकरियों में वृद्धि की किसी भी संख्या को हमें -5.2 प्रतिशत के अनुपात में ही देखना होगा. एक और बात का ध्यान रखियेगा कि ये सारे आंकड़े सरकारी नहीं हैं. अलग-अलग रिसर्च एजेंसियों के हैं. अच्छा होता है कि इस तरह के आंकड़े सरकार जारी करती, लेकिन लेबर ब्यूरो के आंकड़े को क्या सरकार भी स्वीकार करेगी कि 2015 में एक लाख पैंतीस हज़ार से ज्यादा नौकरियां नहीं बढ़ी हैं. लेबर ब्यूरो तो सरकारी है. उसका एक और सर्वे आया है, जिसके आधार पर 1 अक्तूबर को टाइम्म ऑफ इंडिया में सुबोध वर्मा ने ख़बर लिखी है. जिसके अनुसार...
 
  • 15 साल से अधिक उम्र के लोगों में बेरोज़गारी पिछले पांच साल में सबसे अधिक है.
  • काम कर सकने वाली आबादी का एक तिहाई बेकार है.
  • 68 फीसदी कामगार परिवारों की मासिक कमाई 10,000 से अधिक नहीं है.

सोचिये 68 प्रतिशत लोग मात्र 10,000 रुपया महीना कमाते हैं, लेकिन बहस किस पर हो रही है कि ताजिये का जुलूस किधर से निकले और प्रतिमा विसर्जन का जुलूस किधर से. मस्जिद के सामने लाउडस्पीकर बजे या मंदिर की आरती के समय अजान. क्या किसी नेता ने नौकरियां बढ़ाने की मांग की है, या किसी ने दावा किया है. लेकिन अखबार रंगे हैं इस बात से कि राम मंदिर बनेगा या अयोध्या में म्यूज़ियम बनेगा. सुबोध वर्मा ने लिखा है कि लेबर ब्यूरो ने अपने नए सर्वे में...
 
  • अप्रैल से लेकर दिसंबर 2015 के बीच एक लाख साठ हज़ार परिवारों में सात लाख अस्सी हज़ार से अधिक लोगों को शामिल किया है.
  • भारत में 15 साल से अधिक उम्र के कामगारों की आबादी 45 करोड़ के करीब बैठती है.
  • इस 45 करोड़ में से दो करोड़ तीस लाख लोग बेरोज़गार हैं.
  • जिन्हें काम मिल रहा है, उन्हें साल भर काम नहीं मिलता है.
  • इसे अंडर एम्लॉयपेंट की कैटगरी में रखा गया है, इसकी संख्या 16 करोड़ है.

16 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें पूरे साल काम नहीं मिलता है. क्या वाकई इतनी गंभीर स्थिति है. क्या आज का नौजवान जिसे नौकरी चाहिए वो इन आश्वासनों पर घर बैठ सकता है कि 2025 या 30 तक नौकरियां बढ़ने लगेंगी. आए दिन बिजनेस अख़बारों में अर्थव्यवस्था को लेकर तरह-तरह की ख़बरें पढ़ने को मिलती हैं. कुछ ख़बरों में संकट की तस्वीर दिखती है, कुछ ख़बरों में संकट से उबरने की तस्वीर दिखती है तो कुछ ख़बरों में बहुत अच्छी तस्वीर दिखती है... लेकिन कोई एक तस्वीर नहीं दिखती है.

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