क्षेत्रीय सहयोग से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम दो देशों से लेकर अधिकतम 193 देशों के इतने सारे संगठन बन गए हैं कि क्या बतायें। हर समूह के भीतर कई उप समूह हैं, उनके भी भीतर समूह ही समूह हैं। कोई ऐसा टॉपिक नहीं बचा है जिस पर काउंसिल, कॉरपोरेशन और नेशन से अंत होने वाले संगठन न बने हों। अक्सर ऐसे संगठनों के नाम पहले अंग्रेज़ी में रखे जाते हैं फिर इनका हिन्दी नाम खोजने के प्रयास में कई संपादक रिटायर भी हो जाते हैं। मैंने इन तमाम संगठनों की आलोचना के लिए ऐसे ही एक संगठन की कल्पना की है, जिसका नाम है Critics of Every Single Organisation that Ends with O A E or C. ऐसे संगठनों का पूरा नाम सिर्फ एक बार के लिए रखा जाता है, लेकिन बार-बार के पुकारने के लिए एक छोटा नाम रखा जाता है।
मेरे संगठन का छोटा नाम होगा, सेस्टो टीयो, एईसी CESOTEOAEC । आप विद्वानों से गुज़ारिश है कि प्राइम टाइम के बाद कम से कम चार पड़ोसी को ऐसे संगठनों की भूमिका और महत्व के बारे में ज़रूर बतायें, ताकि यह तो पता चले कि इतने संगठनों के रहते समस्याएं दूर हुईं हैं या संगठन ही एक-दूसरे से दूर हो गए। जैसे UN और यूएन बिरादरी के कई संगठन आप जानते होंगे। UNESCO, UNICEF, WHO WTO, NATO, SCO, CHOGM, BRICS, BIMSTEC, SAARC, G सीरीज के ही न जाने कितने बन गए हैं। G8, G15, G17, G20, G24, G77, ASEAN, APEC, OPEC। अब एक नया नाम सुनने को मिला है हार्ट ऑफ एशिया HOA। अल्लामा इक़बाल ने अफगानिस्तान को हार्ट ऑफ एशिया कहा था। वैसे मलेशिया का पर्यटन मंत्रालय का जिंगल है मलेशिया ट्रूली एशिया। ख़ैर जिस अफगानिस्तान के मैदान पर अमरीका और रूस खेल गए वहां हार्ट ऑफ एशिया के नाम से 14 प्लेयर खेलने पहुंचे हैं। जैसे, चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत, ईरान, कज़ाकिस्तान, सऊदी अरब, तुर्की। जब अमरीका, रूस, फ्रांस आतंकवाद खत्म नहीं कर सके और खत्म करते-करते सीरिया में एक-दूसरे से ही लड़ने लगे तो हार्ट ऑफ एशिया क्या वाकई आतंकवाद के खिलाफ कोई क्षेत्रीय मोर्चा बना सकता है या ये मोर्चा शक्तिशाली देशों की बी टीम बनकर उनके हितों की रखवाली करेगा।
नवंबर, 2011 में हार्ट ऑफ एशिया का पहला सम्मेलन तुर्की के इस्तांबुल में हुआ था, वही तुर्की जो इन दिनों रूस से भिड़ा हुआ है। यह मंच बना है अफगानिस्तान में ढांचागत विकास करने के लिए और इस क्षेत्र में आतंकवाद से लड़ने के सामूहिक मोर्चा बनाने के लिए। पांच साल में ऐसा कोई कारगर मोर्चा बना हो नज़र तो नहीं आता। भारत-पाकिस्तान अगर बैनुलअकवामी यानी ग्लोबल संगठन में इतने ही सहज हैं तो दोनों को आतंकवाद से लड़ने के लिए हार्ट एट वाघा बॉर्डर बना लेना चाहिए।
किसी सनसनी से कम नहीं है विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का हार्ट ऑफ एशिया के सम्मेलन में भाग लेने के लिए इस्लामाबाद आना। आखिरी वक्त तक असमंजस की स्थिति थी कि जाएंगी या नहीं जाएंगी। अचानक बैंकाक से आई एक तस्वीर ने सब कुछ ठीक होने का संकेत दे दिया। आलोचक भी स्वागत करते-करते सवाल पूछने लगे कि अचानक ऐसा क्या हो गया। क्या सीमा पर आतंकवाद बंद हो गया है। जवान और अफसर शहीद नहीं हो रहे हैं या पाकिस्तान में आतंकवाद को चलाने वाले नॉन स्टेट एक्टर सीरिया चले गए हैं। 2008 के मुंबई हमले के बाद तो यही कहा गया था कि जब तक आतंकवाद खत्म नहीं होता है, तब तक बातचीत नहीं होगी। भारत की तरफ से न तो कोई मंत्री पाकिस्तान को चेता रहा है, न कोई सांसद सख्त बयानबाज़ी कर रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पाकिस्तान से ज्यादा भारत में हालात बदल गए हैं या फिर पाकिस्तान में भी बदल गए हैं, क्योंकि वहां भी कोई इस तरह की उग्र बातें नहीं कर रहा है। कोई टीवी वाला शहीद जवान के घर कैमरा लेकर बेवजह प्राइम टाइमीय राष्ट्रवाद की भावुकता पैदा नहीं कर रहा है। एक सर के बदले दस सर लाने का बयान देने वाली सुषमा स्वराज ने इस्लामाबाद पहुंचते ही बयान दिया कि मैं संबंधों को सुधारने आई हूं। भारत, पाकिस्तान की तरफ हाथ बढ़ाने के लिए तैयार है। हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है कि आतंकवाद और कट्टर ताकतों को किसी भी नाम या रूप में अपने यहां जगह न दें।
बातचीत ही अगर बेहतर विकल्प है तो दलगत भावना से ऊपर उठकर स्वागत किया जाना चाहिए। डॉन अखबार की हेडलाइन काफी दिलचस्प है। हार्ट आफ एशिया कांफ्रेंस के बारे में अखबार ने लिखा है कि अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ घनी ने ज़्यादा ग़रज़ के साथ पाकिस्तान को चेताया है कि आतंकवाद के विरोध में उसने जो कदम उठाये हैं वो तारीफ के काबिल हैं लेकिन उसकी आतंरिक नीतियों के कारण अफगानिस्तान की ज़मीन पर पांच लाख से ज़्यादा पाकिस्तानी शरणार्थी आ गए हैं। डॉन के अनुसार सुषमा स्वराज काफी डिप्लोमेटिक रहीं, मतलब ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे आक्रामकता झलके। बल्कि स्वराज ने कहा कि भारत उस रफ्तार से सहयोग के लिए तैयार है, जिसमें पाकिस्तान को सुविधा हो। पाकिस्तान और भारत को परिपक्वता और आत्मविश्वास दिखाना चाहिए। पूरी विश्व हमें देख रहा है, उन्हें निराश नहीं करना चाहिए। इसके बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ से मिलने पहुंचीं। उनके साथ विदेश सचिव भी थे। प्रधानमंत्री के साथ हुई इस मुलाकात को लेकर कोई बयान नहीं आया और न ही इसे शिष्टाचार से ज्यादा का महत्व दिया गया।
आतंकवाद के खत्म होने तक के इंतज़ार में ही तीन साल से भारत का कोई विदेश मंत्री पाकिस्तान नहीं गया। दस साल तक प्रधानमंत्री रहते हुए भी मनमोहन सिंह नहीं जा सके। 2012 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी ने बुलाया, 2013 में नवाज़ शरीफ़ ने भी मनमोहन सिंह को बुलाया, मनमोहन सिंह का जवाब रहा कि जब तक आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान ठोस कदम नहीं उठायेगा तब तक नहीं जायेंगे। असल में मनमोहन सिंह जनमत के दबाव के कारण भी नहीं जा सके जो उस वक्त बीजेपी बना रही थी। जबकि मनमोहन सिंह पाकिस्तान में अपने उस गांव को देखना चाहते थे जहां उनका जन्म हुआ था। विदेश मंत्री का नवाज़ शरीफ़ से मिलने की यह तस्वीर इतना तो कहती ही है कि दोनों मिल सकते हैं। बतिया सकते हैं।
यह सही है कि यहां तक पहुंचने में प्रधानमंत्री मोदी ने कोई जल्दबाज़ी नहीं दिखाई। नवाज़ शरीफ को शपथ ग्रहण पर बुलाया, बाहर के मुल्कों में कई बार मिले, विदेश सचिवों से लेकर सुरक्षा सलाहकारों की बातचीत हुई तब जाकर सुषमा स्वराज का दौरा हुआ। पाकिस्तान की राजनयिक शेरी रहमान ने पाकिस्तानी चैनल एआरवाई से कहा कि ख़्वाहिशात को ख़बर बनाने की जल्दबाज़ी नहीं होनी चाहिए। ऐसा कुछ नहीं हुआ है कि कोई नया सूरज निकल आया है या बर्फ निकल आई है। ऐसे बेबी स्टेप का स्वागत होना चाहिए। कुछ भी ब्रेक थ्रू कहने से पहले इंतज़ार करना ठीक रहेगा।
सब धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं तो क्या इसलिए कि सारी कवायद सिर्फ तस्वीर के लिए है। किसी बड़ी उम्मीद से पाकिस्तान से बातचीत की पहल क्यों नहीं की जाए। क्या सभी बेबी स्टेप का इंतज़ार कर रहे हैं। विदेश मंत्री स्वराज के साथ मरियम नवाज़ शरीफ़ दिखीं, जो प्रधानमंत्री शरीफ की बेटी हैं। मरियम पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) की कार्यकर्ता हैं और हिन्दुस्तानी नेताओं के पुत्र-पुत्रियों की तरह इनकी डिग्री की असलियत को लेकर भी विवाद रहता है। खैर, सुषमा और मरियम की यह मुलाकात, बगैर बातचीत के हुई मुलाकात की औपचारिकता को पर्सनल टच तो देती ही है।
यहां भी कोई बात नहीं हुई लेकिन तस्वीर बात करती रहे इसके लिए पाकिस्तान विदेश मंत्रालय की तरफ से प्रेस को ईमेल भेजा कि आप भारत की विदेश मंत्री और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के विदेशी मामलों के सलाहकार के बीच हैंडशैक को कवर करने के लिए आमंत्रित हैं। हमारी राजनीति अजीब है। चुनाव में पाकिस्तान का इस्तेमाल कुछ और होता है और सरकार में कुछ और। अब मीडिया को दूर रखने का नया एंगल आया है। क्योंकि मीडिया बेवजह उम्मीदें और तनाव पैदा कर देता है। मगर पहले की तमाम विदेश यात्राओं के कवरेज के समय तो यह नहीं कहा गया। अगर मीडिया खलनायक है तो हमारी राजनीति खलनायक नहीं रही है।
क्या यह सोच कर रोमांच नहीं होता कि सार्क सम्मेलन के लिए पाकिस्तान जाने को तैयार प्रधानमंत्री मोदी ने अगर लाहौर के किसी स्टेडियम में मेडिसन स्कावयर या वेम्बली स्टेडियम जैसा जलवा कर दिया तब क्या होगा। क्या विरोधी टीवी बंद कर देंगे, हमारे लिए तो ठीक है कम से कम तब कोई नहीं कहेगा कि भारत पाक बातचीत की प्रक्रिया से मीडिया को दूर रखा जाना ही सही है। प्राइम टाइम में हम बात करेंगे कि पाकिस्तान को लेकर इतना सन्नाटा क्यों है। अच्छा है तो अच्छा क्यों न कहा जाए और सवाल है तो सवाल क्यों न उठाया जाए। लेकिन बड़ी खबर ये है कि भारत और पाकिस्तान समग्र वार्ता के लिए तैयार हो गए हैं।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
This Article is From Dec 09, 2015
प्राइम टाइम इंट्रो : पाकिस्तान को लेकर इतना सन्नाटा क्यों है?
Written by Ravish Kumar
- ब्लॉग,
-
Updated:दिसंबर 23, 2015 13:51 pm IST
-
Published On दिसंबर 09, 2015 21:22 pm IST
-
Last Updated On दिसंबर 23, 2015 13:51 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं
सुषमा स्वराज, भारत-पाक वार्ता, नवाज शरीफ, सरताज अजीज, Sushma Swaraj, India-Pak Talk, Nawaz Sharif, Sartaj Aziz