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This Article is From Feb 19, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : ...ताकि हम सुन सकें कि हम क्या बोलते हैं

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 19, 2016 23:22 pm IST
    • Published On फ़रवरी 19, 2016 21:34 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 19, 2016 23:22 pm IST
आप सबको पता ही है कि हमारा टीवी बीमार हो गया है। पूरी दुनिया में टीवी में टीबी हो गया है। हम सब बीमार हैं। मैं किसी दूसरे को बीमार बताकर खुद को डॉक्टर नहीं कह रहा। बीमार मैं भी हूं। पहले हम बीमार हुए अब आप हो रहे हैं। आपमें से कोई न कोई रोज़ हमें मारने पीटने और ज़िंदा जला देने का पत्र लिखता रहता है। उसके भीतर का ज़हर कहीं हमारे भीतर से तो नहीं पहुंच रहा। मैं डॉक्टर नहीं हूं। मैं तो ख़ुद ही बीमार हूं। मेरा टीवी भी बीमार है। डिबेट के नाम पर हर दिन का यह शोर शराबा आपकी आंखों में उजाला लाता है या अंधेरा कर देता है। आप शायद सोचते तो होंगे।

डिबेट से जवाबदेही तय होती है। लेकिन जवाबदेही के नाम पर अब निशानदेही हो रही है। टारगेट किया जा रहा है। इस डिबेट का आगमन हुआ था मुद्दों पर समझ साफ करने के लिए। लेकिन जल्दी ही डिबेट जनमत की मौत का खेल बन गया। जनमत एक मत का नाम नहीं है। जनमत में कई मत होते हैं। मगर यह डिबेट टीवी जनमत की वेरायटी को मार रहा है। एक जनमत का राज कायम करने में जुट गया है। जिन एंकरों और प्रवक्ताओं की अभिव्यक्ति की कोई सीमा नहीं है वो इस आज़ादी की सीमा तय करना चाहते हैं। कई बार ये सवाल खुद से और आपसे करना चाहिए कि हम क्या दिखा रहे हैं और आप क्यों देखते हैं। आप कहेंगे आप जो दिखाते हैं हम देखते हैं और हम कहते हैं आप जो देखते हैं वो हम दिखाते हैं। इसी में कोई नंबर वन है तो कोई मेरे जैसा नंबर टेन। कोई टॉप है तो कोई मेरे जैसा फेल। अगर टीआरपी हमारी मंज़िल है तो इसके हमसफ़र आप क्यों हैं। क्या टीआरपी आपकी भी मंज़िल है।


इसलिए हम आपको टीवी की उस अंधेरी दुनिया में ले जाना चाहते हैं जहां आप तन्हा उस शोर को सुन सकें। समझ सकें। उसकी उम्मीदों, ख़ौफ़ को जी सकें जो हम एंकरों की जमात रोज़ पैदा करती है।

आप इस चीख को पहचानिये। इस चिल्लाहट को समझिये। इसलिए मैं आपको अंधेरे में ले आया हूं। कोई तकनीकि ख़राबी नहीं है। आपका सिग्नल बिल्कुल ठीक है। ये अंधेरा ही आज के टीवी की तस्वीर है। हमने जानबूझ कर ये अंधेरा किया है। समझिये आपके ड्राईंग रूम की बत्ती बुझा दी है और मैं अंधेरे के उस एकांत में सिर्फ आपसे बात कर रहा हूं। मुझे पता है आज के बाद भी मैं वही करूंगा जो कर रहा हूं। कुछ नहीं बदलेगा, न मैं बदल सकता हूं। मैं यानी हम एंकर। तमाम एंकरों में एक मैं। हम एंकर चिल्लाने लगे हैं। धमकाने लगे हैं। जब हम बोलते हैं तो हमारी नसों में ख़ून दौड़ने लगता है। हमें देखते देखते आपकी रग़ों का ख़ून गरम होने लगा है। धारणाओं के बीच जंग है। सूचनाएं कहीं नहीं हैं। हैं भी तो बहुत कम हैं।

हमारा काम तरह तरह से सोचने में आपकी मदद करना है। जो सत्ता में है उससे सबसे अधिक सख़्त सवाल पूछना है। हमारा काम ललकारना नहीं है। फटकारना नहीं है। दुत्कारना नहीं है। उकसाना नहीं है। धमकाना नहीं है। पूछना है। अंत अंत तक पूछना है। इस प्रक्रिया में हम कई बार ग़लतियां कर जाते हैं। आप माफ भी कर देते हैं। लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि हम ग़लतियां नहीं कर रहे हैं। हम जानबूझ कर ऐसा कर रहे हैं। इसलिए हम आपको इस अंधेरी दुनिया में ले आए हैं। आप हमारी आवाज़ को सुनिये। हमारे पूछने के तरीकों में फर्क कीजिए। परेशान और हताश कौन नहीं है। सबके भीतर की हताशा को हम हवा देने लगे तो आपके भीतर भी गरम आंधी चलने लगेगी। जो एक दिन आपको भी जला देगी।

जेएनयू की घटना को जिस तरह से टीवी चैनलों में कवर किया गया है उसे आप अपने अपने दल की पसंद की हिसाब से मत देखिये। उसे आप समाज और संतुलित समझ की प्रक्रिया के हिसाब से देखिये। क्या आप घर में इसी तरह से चिल्ला कर अपनी पत्नी से बात करते हैं। क्या आपके पिता इसी तरह से आपकी मां पर चीखते हैं। क्या आपने अपनी बहनों पर इसी तरह से चीखा है। ऐसा क्यों हैं कि एंकरों का चीखना बिल्कुल ऐसा ही लगता है। प्रवक्ता भी एंकरों की तरह धमका रहे हैं। सवाल कहीं छूट जाता है। जवाब की किसी को परवाह नहीं होती। मारो मारो, पकड़ो पकड़ो की आवाज़ आने लगती है। एक दो बार मैं भी गुस्साया हूं। चीखा हूं और चिल्लाया हूं। रात भर नींद नहीं आई। तनाव से आंखें तनी रही। अक्सर सोचता हूं कि हमारी बिरादरी के लोग कैसे चीख लेते हैं। चिल्ला लेते हैं। अगर चीखने चिल्लाने से जवाबदेही तय होती तो रोज़ प्रधानमंत्री को चीखना चाहिए। रोज़ सेनाध्यक्ष को टीवी पर आकर चीखना चाहिए। हर किसी को हर किसी पर चीखना चाहिए। क्या टीवी को हम इतनी छूट देंगे कि वो हमें बताने की जगह धमकाने लगे। हममें से कुछ को छांट कर भीड़ बनाने लगे और उस भीड़ को ललकारने लगे कि जाओ उसे खींच कर मार दो। वो गद्दार है। देशद्रोही है। एंकर क्या है। जो भीड़ को उकसाता हो, भीड़ बनाता हो वो क्या है। पूरी दुनिया में चीखने वाले एंकरों की पूछ बढ़ती जा रही है। आपको लगता है कि आपके बदले चीख कर वो ठीक कर रहा है। दरअसल वो ठीक नहीं कर रहा है।

कई प्रवक्ता गाली देते हैं। मार देने की बात करते हैं। गोली मार देने की बात करते हैं। ये इसलिए करते हैं कि आप डर जाएं। आप बिना सवाल किये उनसे सहमत हो जाएं। हमारा टीवी अब आए दिन करने लगा है। एंकर रोज़ भाषण झाड़ रहे हैं। जैसे मैं आज झाड़ रहा हूं। वो देशभक्ति के प्रवक्ता हो गए हैं। हर बात को देशभक्ति और गद्दारी के चश्मे से देखा जा रहा है। सैनिकों की शहादत का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है। उनके बलिदान के नाम पर किसी को भी गद्दार ठहराया जा रहा है। इसी देश में जंतर मंतर पर सैनिकों के कपड़े फाड़ दिये गए। उनके मेडल खींचे गए। उन सैनिकों में भी कोई युद्ध में घायल है। किसी ने अपने शरीर का हिस्सा गंवाया है। कौन जाता है उनके आंसू पोंछने।

शहादत सर्वोच्च है लेकिन क्या शहादत का राजनीतिक इस्तेमाल भी सर्वोच्च है। कश्मीर में रोज़ाना भारत विरोधी नारे लगते हैं। आज के इंडियन एक्सप्रेस में किसी पुलिस अधिकारी ने कहा है कि हम रोज़ गिरफ्तार करने लगें तो कितनों को गिरफ्तार करेंगे। बताना चाहिए कि कश्मीर में पिछले एक साल में पीडीपी बीजेपी सरकार ने क्या भारत विरोधी नारे लगाने वालों को गिरफ्तार किया है। हां तो उनकी संख्या क्या है। वहां तो आए दिन कोई पाकिस्तान के झंडे दिखा देता है, कोई आतंकवादी संगठन आईएस के भी।

कश्मीर की समस्या का भारत के अन्य हिस्सों में रह रहे मुसलमानों से क्या लेना देना है। कोई लेना देना नहीं है। कश्मीर की समस्या इस्लाम की समस्या नहीं है। कश्मीर की समस्या की अपनी जटिलता है। उसे सरकारों पर छोड़ देना चाहिए। पीडीपी अफज़ल गुरु को शहीद मानती है। पीडीपी ने अभी तक नहीं कहा कि अफज़ल गुरु वही है जो बीजेपी कहती है यानी आतंकवादी है। इसके बाद भी बीजेपी पीडीपी को अपनी सरकार का मुखिया चुनती है। यह भी दुखद है कि इस बेहतरीन राजनीतिक प्रयोग को जेएनयू में कुछ छात्रों को आतंकवादी बताने के नाम पर कमतर बताया जा रहा है। बीजेपी ने कश्मीर में जो किया वो एक शानदार राजनीतिक प्रयोग है। इतिहास प्रधानमंत्री मोदी को इसके लिए अच्छी जगह देगा। हां उसके लिए बीजेपी ने अपने राजनीतिक सिद्धांतों को कुछ समय के लिए छोड़ा उसे लेकर सवाल होते रहेंगे। अफज़ल गुरु अगर जेएनयू में आतंकवादी है तो श्रीनगर में क्या है। इन सब जटिल मसलों को हम हां या ना कि शक्ल में बहस करेंगे तो तर्कशील समाज नहीं रह जाएंगे। एक भीड़ बन कर रह जाएंगे। यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।

बहरहाल अब जब चैनलों की दुनिया में हर नियम धाराशायी हो गए हैं। पहले हमें सिखाया गया था कि जो भड़काने की बात करे, उकसाने की बात करे, सामाजिक द्वेष की बात करे उसका बयान न दिखाना है न छापना है। अब क्या करेंगे जब एंकर ही इस तरह की बात कर रहे हैं। प्रवक्ताओं को कुछ भी बोलने की छूट दे रहे हैं। कन्हैया के भाषण के वीडियो को चैनलों ने खतरनाक तरीके से चलाया। बिना जांच किये कि कौन सा वीडियो सही उसे चलाया गया।

अब टीवी टुडे और एबीपी चैनल ने बताया है कि वीडियो फर्ज़ी हैं। कुछ वीडियों में कांट छांट है तो किसी में ऊपर से नारों को थोपा गया है। अगर वीडियो में इतना अंतर है तो यह जांच का विषय है। इसके पहले तक कैसे हम सबको नतीजे पर पहुंचने के लिए मजबूर किया गया। गली गली में जेएनयू के विरोध में नारे लगाए गए। छात्रों को आतंकवादी और देशद्रोही कहा गया।

क्या अब कोई चैनल उन वीडियो की जवाबदेही लेगा। क्या अब हम एंकर उतने ही घंटे चीख चीख कर बतायेंगे कि वीडियो सही नहीं थे। विवादित थे। किसी में कन्हैया गरीबी से, सामंतवाद से आज़ादी की बात कर रहा है तो किसी ने यह काट कर दिखाया कि वो सिर्फ आज़ादी की बात कर रहा है। तो क्या आज़ादी की बात करना कैसे मान लिया गया कि वो भारत से आज़ादी की बात कर रहा है। हमारे सहयोगी मनीष आज कन्हैया के घर गए थे। इतना ग़रीब परिवार है कि उनके पास पत्रकारों को चाय पिलाने की हैसियत नहीं है। उन्हें मुश्किल में देख मनीष कुमार वापस चले गए। इस ग़रीबी को झेलने वाला कोई छात्र नेता अगर ग़रीबी से आज़ादी की बात नहीं करेगा तो क्या उद्योगपतियों की गोद में बैठे हमारे राजनेता करेंगे।

कन्हैया कुमार की तस्वीरों को बदल-बदल कर चलाया गया ताकि लोग उसे एक आतंकवादी और गद्दार के रूप में देख सकें। एक तस्वीर में वो भाषण दे रहा है तो उसी तस्वीर में पीछे भारत का कटा छंटा झंडा जोड़ दिया गया है। फोटोशॉप तकनीक से आजकल खूब होता है। यह कितना ख़तरनाक है। सोशल मीडिया पर कौन लोग समूह बनाकर इसे हवा दे रहे थे। कौन लोग सबूत और गवाही से पहले ओमर ख़ालिद को आतंकवादी गद्दार बताने लगे। उसे भी भागना नहीं चाहिए था। सामने आकर बताना चाहिए था कि उसने क्या भाषण दिया और क्यों दिया। कन्हैया और ख़ालिद में यही अंतर है पर शायद जिस तरह से भीड़ कन्हैया के प्रति उदार है ख़ालिद को यह छूट नहीं मिलती। फिर भी अगर ख़ालिद ने ऐसा कुछ कहा तो उसे सामना करना चाहिए था। हालत यह है कि खालिद को आतंकवादी बताने के पोस्टर जगह जगह लगा दिये गए हैं। अब अगर उसका वीडियो फर्ज़ी निकल गया तो क्या होगा। क्या वीडियो के सत्यापन का इंतज़ार नहीं किया जाना चाहिए।

इसीलिए हमने आज इस स्क्रीन को काला कर दिया है। हम आज आपको तरह तरह की आवाज़ सुनायेंगे। हो सकता है आपमें से कुछ लोग चैनल बदल कर चले जायेंगे।

यह भी तो हो सकता है कि आपमें से कुछ लोग अंत अंत तक उन आवाज़ों को सुनेंगे जो हफ्ते से आपके भीतर घर कर गई है। पहले हम आपको अलग अलग चैनलों के स्टुडियो में जो बातें कहीं गईं वो सुनाना चाहते हैं। नाम और पहचान में मेरी दिलचस्पी नहीं है क्योंकि हो सकता है ऐसा मैंने भी किया हो। ऐसा मुझसे भी हो जाए। पत्रकार तो पत्रकार, प्रवक्ताओं ने जिस तरह एंकरों पर धावा बोला है वो भी कम भयानक नहीं है। कहीं पत्रकार धावा बोल रहे थे, कहीं प्रवक्ता। लेकिन पत्रकारों ने देशभक्ति के नाम पर गद्दारों की जो परिभाषा तय की है वो बेहद खतरनाक है। मेरा मकसद सिर्फ आपको सचेत करना है। आप सुनिये। ग़ौर से सुनिये। महसूस कीजिए कि इन्हें सुनते हुए आपका ख़ून कब ख़ौलता है। कब आप उत्तेजित हो जाते हैं। यह भी ध्यान रखिये कि अभी तक कोई भी तथ्य साबित नहीं हुआ है। जैसा कि दो चैनलों ने बताया है कि वीडियो के कई संस्करण हैं। इसलिए इसके आधार पर तुरंत कोई निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। आपके स्क्रीन पर यह अंधेरा पत्रकारिता का पश्चाताप है। जिसमें हम सब शामिल है। हम फिर से बता दें कि आप मुझे देख नहीं पा रहे हैं। कोई तकनीकि खराबी नहीं है। ये आवाज़ आपके ज़हन तक पहुंचाने की कोशिश भर है। कि हम सुन सकें कि हम क्या बोलते हैं। कैसे बोलते हैं और बोलने से क्या होता है।

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