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This Article is From Jul 30, 2015

क्‍या फांसी की सजा खत्‍म कर देनी चाहिए?

Reported By Ravish Kumar
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  • Updated:
    जुलाई 30, 2015 21:36 pm IST
    • Published On जुलाई 30, 2015 21:28 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 30, 2015 21:36 pm IST
ऐसा कभी हुआ तो नहीं था लेकिन जो हुआ उसे होते देख भारत ही नहीं दुनिया भर में भारतीय टीवी और इंटरनेट से चिपके रहे कि आखिर सुप्रीम कोर्ट क्या फैसला देती है। फांसी की सज़ा के विरोधी और पक्षधर दोनों जागते रहे कि अदालत क्या फैसला सुनाती है।

ज़ाहिर सी बात है कि उनकी हालिया स्मृति में ऐसी कोई घटना हुई भी नहीं थी कि राष्ट्रपति के दया याचिका खारिज करने के बाद आधी रात को प्रशांत भूषण, आनंद ग्रोवर, वृंदा ग्रोवर, युगमोहित चौधरी जैसे वकील वहां से भारत के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एच.एल. दत्तू के सरकारी घर पहुंच गए। प्रधान न्यायाधीश ने भी सामने आई याचिका पर विचार करने का फैसला किया और रात को सुप्रीम कोर्ट खुलवाया गया। सुबह 4 बजकर 58 मिनट पर फैसला आया कि फांसी होगी। कई लोगों ने कहा कि ऐसा कभी नहीं हुआ। अपने आप में पूरी प्रक्रिया गौरव का लम्हा में बदल गई। लेकिन एक और घटना है जिसे इस संदर्भ में याद किया जा सकता है।

निठारी हत्याकांड के मुजरिम सुरेंद्र कोली को मेरठ की जेल में फांसी होनी थी। आप जानते ही हैं कि 2006 में जब निठारी हत्याकांड का राज़ सामने आया था तब कैसे सारा समाज हिल गया था। सुरेंद्र कोली का ज़िक्र आते ही किस तरह लोग रोष से भर जाते थे। आठ सितंबर की सुबह मेरठ की जेल में सुरेंद्र कोली को फांसी दी जानी थी। मशहूर वकील इंदिरा जयसिंह रात डेढ़ बजे प्रधान न्यायाधीश एच.एल. दत्तू साहब के घर पहुंच गई। रात की उस घड़ी में भी प्रधान न्यायाधीश ने फांसी पर रोक लगा दी। मीडिया को सुबह तक इसकी भनक नहीं लगी। बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुरेंद्र कोली की फांसी को उम्र कैद में बदल दिया।

तो इंदिरा जयसिंह जैसे वकील सिर्फ याकूब मेमन के लिए ही नहीं बल्कि सुरेंद्र कोली जैसों के लिए भी जागते हैं। कई लोगों ने पूछा है कि ये लोग किसी ग़रीब के लिए क्या रात को जायेंगे। सही सवाल है लेकिन क्या यही सवाल उन वकीलों से किया जाएगा जो पार्टी में प्रवक्ता, मंत्री बनते हैं और संवैधानिक पद हासिल करते हैं। पता करना चाहिए कि ऐसे वकीलों ने कितने ग़रीबों का केस लड़ा और कितने कारपोरेट का। वृंदा ग्रोवर और प्रशांत भूषण जैसे वकील गुजरात दंगों में दर्जनों लोगों की हत्या की आरोपी पूर्व मंत्री माया कोडनानी को फांसी देने की बात का भी विरोध करते हैं। 2012 में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के 14 रिटायर्ड जजों ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को लिखा था कि पांच मामलों में 9 लोगों की फांसी की सज़ा को उम्र कैद में बदल दिया जाए। ज़ाहिर है कमज़ोर के लिए पहले भी लड़ा जाता रहा है। यह कहना पूरी तरह से ग़लत है कि फांसी का विरोध अभी हो रहा है।

फांसी का विरोध होना है तो यह जिम्मा दो चार वकीलों के कंधे पर क्यों हैं। राजनीतिक दल अपनी लाइन क्यों नहीं साफ करते। क्या हमारी राजनीति तथाकथित सामूहिक चेतना से घबराती है। हमें समझना चाहिए कि नेताओं और दलों पर वक्ती जनमत का दबाव और भय होता है, शायद शशि थरूर पर भी रहा होगा लेकिन फांसी के बाद ही सही उनका ट्वीट कम साहसिक नहीं है। शशि थरूर ने कहा कि 'दुखी हूं कि हमारी सरकार ने एक इंसान को लटका दिया है। राज्य प्रायोजित हत्या हम सबको भी हत्यारे में बदल देती है। मैं किसी केस की मेरिट पर टिप्पणी नहीं कर रहा हूं, उसे सुप्रीम कोर्ट को तय करना है। समस्या है फांसी को लेकर। हम आतंकवाद से ज़रूर लड़ें लेकिन इस तरह की हत्या से कहीं भी आतंकवाद नहीं रुका है।'

कांग्रेस शशि थरूर की लाइन के सहारे आगे बढ़ सकती थी मगर पार्टी जानती है सामूहिक चेतना की राजनीति में थरूर टाइप के नेता फिट नहीं बैठते। लंदन में वो कोई बात कह दे तो प्रधानमंत्री को भी जंच जाती है मगर भारत में हवा के खिलाफ बोल दें तो सब दाएं बाएं देखने लगते हैं। कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा कि 67 साल से देश में फांसी दंड विधान का हिस्सा है। ये रेयरेस्ट ऑफ रेयर केस में ही दी जाती है। इसमें बदलाव की कोई बात पार्टी नहीं कर सकती। अगर पूरी संसद चाहे तो इस पर विचार कर सकती है। जब तक ये दंड विधान का हिस्सा है इसका पूरी तरह से अनुपालन होना चाहिए।

तो कांग्रेस अपनी राय तभी बताएगी जब संसद अपनी राय बताएगी। आप बताइये कि बिना पार्टियों की राय के क्या संसद अपनी राय पहले बता सकती है। शशि थरूर के बयान से दूरी बनाने की उसकी मजबूरी क्या उस तथाकथित सामूहिक चेतना के कारण थी। इस सामूहिक चेतना को भी ठीक से समझना चाहिए। यह सही है कि फांसी का समर्थन करने वालों की तादाद कम नहीं है लेकिन यह भी सही है कि उनका लाभ उठाकर उन्माद फैलाने वाले भी कम नहीं हैं।

मेरी राय में तीन तरह का तबका फांसी की सज़ा के समर्थन में सक्रिय है। एक तबका फांसी की सज़ा का समर्थक रहा है तो एक ऐसा तबका भी रहा जिसका फांसी से तो विरोध है मगर आतंकवाद जैसे मामलों में फांसी का समर्थन है। इन दोनों तबके का लाभ एक तीसरे तबके ने उठाया। इस तबके में शामिल लोग फांसी के समर्थकों के बहाने अपनी राजनीति के लिए जगह बनाने लगे हैं, ऐसा करने वाले कई दलों में और दोनों समुदाय के लोग हैं।

जब अफज़ल गुरु को फांसी हुई थी तब सीपीएम के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी ने लिखा था कि अफ़ज़ल की फांसी से कश्मीर में अलगाववाद और बढ़ेगा। जबकि सीताराम येचुरी ने कहा था कि कानून ने अपना काम किया। जो मामला 11 साल से अटका था उसका अंत हुआ। एक तरह से यह सम्मान और स्वागत ही था लेकिन इस बार सीपीएम शुरू से ही फांसी के खिलाफ बोल रही थी।

सीताराम येचुरी ने कहा कि हमारी पार्टी मानती है कि फांसी की सज़ा नहीं होनी चाहिए। हम चाहते हैं कि इसमें बदलाव हो, उम्रक़ैद की परिभाषा बदले.... उम्रक़ैद का मतलब होना चाहिए ज़िंदगी के आख़िरी दिन तक जेल... अभी उम्रक़ैद में केवल 14 साल ही जेल की सज़ा होती है। राज्यसभा में सीपीआई के सांसद डी. राजा ने फांसी की सज़ा समाप्त करने के लिए प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया जिसे स्वीकार कर लिया गया। डी. राजा का कहना है कि आंख के लिए आंख का कानून भारत में नहीं हो सकता है।

तमिलनाडु विधानसभा में राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी के ख़िलाफ़ और उन्हें छोड़ने के लिए सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास हुआ तो हमारी सामूहिक चेतना उत्तर भारत में होने के कारण चेन्नई पहुंच ही नहीं सकी। लेकिन जैसे ही ख़बर आई कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में अफ़ज़ल गुरु की फांसी के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पास हो सकता है तो तुरंत सामूहिक चेतना पूरे उत्तर भारत में नाचने लगी। वहां प्रस्ताव तो पास नहीं हुआ लेकिन पंजाब में जब राजोआना की फांसी का विरोध हुआ तो सामूहिक चेतना छुट्टी मनाने कालका मेल से शिमला चली गई।

मार्च 2012 में बलवंत सिंह राजोआना की फांसी के विरोध में अकाली दल ने पंजाब बंद का आह्वान किया। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी फांसी का विरोध किया और अकाली दल ने तो किया ही। बीजेपी ने कभी अपनी लाइन नहीं बदली मगर कभी अपना दोस्त नहीं बदला। बीजेपी आज भी फांसी का समर्थन करती है मगर विरोध करने वाले को अपनी सरकार में जगह भी देती है। बलवंत सिंह राजोआना जिस आतंकवादी हमले में दोषी पाये गए थे उसमें मुख्यमंत्री सहित 17 लोग मारे गए थे। उस वक्त राजोआना ने एक पत्र भी लिखा था कि मुझे अकाली दल के नेताओ से कोई मदद नहीं चाहिए। इन्होंने सिखों को न्याय दिलाने के लिए कुछ नहीं किया है। इतिहास अकाली दल को कभी माफ नहीं करेगा। फिर भी अकाली दल ने समर्थन किया और फांसी की सज़ा उम्र कैद में बदली।

आज हम अकाली दल, कांग्रेस, बीजेपी और सीपीएम नेताओं के साथ हैं जिनसे बात करेंगे कि क्या उनमें साहस है कि वे उन चंद वकीलों की तरह उन्माद का शिकार होते हुए भी फांसी का विरोध कर सकते हैं।

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