सोमवार की सुबह जब आप काम पर जाने की तैयारी कर रहे थे तब यह यान अंतरिक्ष की तरफ जाकर आने का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा था। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान यानी इसरो का यह नया कमाल है। आज दुनिया देखकर हैरान है, मगर पांच साल पहले से इसरो ने इस योजना पर कार्य शुरू कर दिया था। यह 600 वैज्ञानिकों की पांच साल की मेहनत का नतीजा है। तभी तो इसके सकुशल लौटते ही बधाइयों का सिलसिला शुरू हो गया। राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी सभी ने बधाई दी और एक बार फिर इसरो को लेकर आम भारतीय श्रद्धा भाव से भर गए। भारत ने इसे अपने दम पर कर दिखाया है। बीस मिनट के अंदर तय रास्ते से वापस धरती पर भी लौट आया और बंगाल की खाड़ी में एक तय जगह पर पानी में उतर गया। ये है Re-Usable Launch Vehicle Technology Demonstrator or RLV-TD...टीडी का मतलब है जो भविष्य में किया जाएगा उसका तकनीकि प्रदर्शन। क्या हम कर पायेंगे तो हां हम कर सकते हैं। एक स्वदेशी स्पेस शटल की इस पहली परीक्षण उड़ान ने भविष्य के एक बड़े रास्ते को खोल दिया है।
इसरो जब भी कुछ करता है अच्छा ही लगता है। बिल्कुल यह जानने का विषय है कि आरएलवी के ज़रिये भारत ऐसा क्या हासिल करना चाहता है जिसके लिए 600 वैज्ञानिक पांच साल से लगे हैं। श्रीहरिकोटा चेन्नई से 80 किमी दूर है मगर पड़ता है आंध्रप्रदेश के नेल्लूर ज़िले में।
जब पहली बार मैं चंद्रयान के समय श्रीहरिकोटा गया तो यही ख़्याल आया कि इस जगह का नाम ज़माने से सुनते आ रहे हैं। कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसी जगह है। पढ़ना और देखना अलग ही अनुभव होता है। हमारे कैमरा सहयोगी सुकुमार ने ट्रैक शॉट शूट किया। समुद्र तट के किनारे की ज़मीन जब उससे नीचे होती है तो वहां समंदर का खारा पानी भर जाता है। इसी को बैकवाटर कहते हैं। यह बहुत गहरा नहीं है, इसलिए आप पक्षियों को इसे पुलिकट झील में चलते फिरते देख सकते है। जल का यह विस्तार पक्षियों और मछलियों की गतिविधियों के बाद भी निर्जन लगता है। पुलिकट झील को पक्षी विहार के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। मछलियों में यहां झींगा मछली की खेती होती है।
श्रीहरिकोटा पहुंचने के रास्ते से गुज़रते हुए आप यह भी सोचते होंगे कि ऐसी जगहों को रॉकेट लॉन्च के लिए क्यों चुना जाता है। श्रीहरिकोटा एक छोटा सा द्वीप है। पल्लव बागला ने बताया कि रॉकेट हमेशा पूर्वी तट से छोड़े जाते हैं। पूरब दिशा में छोड़ने से धरती के रोटेशन यानी घूमने की शक्ति का लाभ ऊपर जाने वाले रॉकेट को मिलता है और यह जगह सुनसान भी है इसलिए अगर रॉकेट फट जाए तो जानमाल का नुकसान भी कम होता है।
अमेरिका में भी टैक्सस के ह्यूस्टन शहर से रॉकेट छोड़ा जाता है जो उसका पूर्वी तट है। फ्रांस भी अपने पूर्वी तट कुरू से रॉकेट लॉन्च करता है। सोमवार को इसरो ने परीक्षण अभी छोटे पैमाने पर किया। चार चरणों में किया जाने वाले प्रशिक्षण का यह पहला चरण था। स्पेश शटल साढ़े छह मीटर लंबा और पौने दो टन वज़न का। मूल आकार से छह गुना छोटा, इसीलिए इसे अंग्रेज़ी में स्केल डाउन मॉडल कहते हैं। लागत आई 95 करोड़। तैयार हुआ केरल के तिरुवनंतपुरम स्थित विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर में इस स्पेसक्राफ़्ट को नौ टन के एक रॉकेट इंजन के ऊपर रखकर भेजा गया। इस रॉकेट को भी ख़ास तरह से डिज़ाइन किया गया, ताकि वो डैनों यानी विंग्स वाले स्पेस शटल को लेकर सीधे ऊपर उठ सके। लॉन्च के बाद ये स्पेस शटल क़रीब 70 किलोमीटर की ऊंचाई तक गया और उसके बाद किसी विमान की तरह इसने ख़ुद अपनी उड़ान भरनी शुरू कर दी। इसकी शुरुआती गति आवाज़ से पांच गुना तेज़ रही। अंत में ये बंगाल की खाड़ी में एक तय जगह पर पानी के अंदर उतर गया। ये जगह श्रीहरिकोटा से क़रीब 500 किलोमीटर दूर थी। ये पहली बार है कि इसरो ने एक विंग्ड शटल यानी डैने वाले शटल को अंतरिक्ष में भेजा है और कामयाबी के साथ उसे एक कामचलाऊ पानी के रनवे पर उतारा है। इस परीक्षण में स्पेस शटल को तो हासिल नहीं किया जा सका लेकिन उसकी उड़ान के आंकड़े बाद के स्पेस शटल के डिज़ाइन में सुधार करने के काम आएंगे।
बाद के परीक्षणों में इसमें कुछ बदलाव किए जाएंगे ताकि इसे ज़मीन पर उतारा जा सके। ये यान Re-usable टेक्नोलॉजी की मदद से छोड़ा गया। इस टेक्नोलॉजी का मकसद अंतरिक्ष में उपग्रहों को छोड़ने की लागत को क़रीब दस गुना तक कम करना है। अभी अंतरिक्ष में एक किलो सामान भेजने में क़रीब 20 हज़ार डॉलर की लागत आती है। अगर ये प्रोजेक्ट आगे भी पूरी तरह कामयाबी के साथ आगे बढ़ता है तो ये लागत घटकर दो हज़ार डॉलर हो जाने की उम्मीद है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन - ISRO की योजना ऐसे दो और प्रोटोटाइप टेस्ट करने की है। इसके बाद इसके अंतिम प्रारूप का परीक्षण किया जाएगा जो इस स्पेस शटल से छह गुना बड़ा यानी क़रीब चालीस मीटर लंबा होगा। लेकिन इसमें अभी समय लगेगा, आख़िरी प्रारूप की उड़ान में अभी चौदह-पंद्रह साल और लगेंगे यानी ये 2030 तक ही मुमकिन हो पाएगा। इसरो की योजना ऐसे स्वदेशी स्पेस शटल के ज़रिए भविष्य में अंतरिक्ष यात्रियों को भी भेजने की है।
अमेरिका के अलावा दुनिया में कोई भी देश ऐसे winged spacecraft को नहीं उड़ा रहा है। अमेरिका ने भी 2011 में अपने स्पेस शटल को कई कामयाब और कुछ नाकाम उड़ानों के बाद रिटायर कर दिया था। 1981 में अमेरिका ने स्पेस शटल के ज़रिए पहला मिशन भेजा और 2011 में आख़िरी। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी NASA ने अपने मिशन के लिए पांच स्पेस शटल का इस्तेमाल किया। अटलांटस, चैलेंजर, कोलंबिया, डिस्कवरी और इंडेवर। पांच में से तीन ऑर्बिटर अब अलग-अलग जगह म्यूज़ियमों में रखे गए हैं, जबकि स्पेस शटल चैलेंजर और कोलंबिया धरती पर लौटते वक़्त क्रैश हो गए थे। 2003 में कोलंबिया अंतरिक्ष यान जब इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन से वापस लौट रहा था तो धरती में वापस आते वक़्त कोलंबिया यान में आग लग गई और भारतीय मूल की अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला समेत चालक दल के सभी सात सदस्यों की मौत हो गई।
2011 में जब से NASA ने अपने स्पेस शटल प्रोग्राम को बंद किया, वैकल्पिक Reusable Spacecraft को बनाने की अंतरराष्ट्रीय होड़ बन गई है। इसकी वजह ये है कि ऐसे यान अंतरिक्ष में उतरने की कीमत काफ़ी कम कर देती हैं। दोबारा इस्तेमाल किए जा सकने वाले स्पेस शटल की टेक्नोलॉजी में भारत के यान की टक्कर अरबपति एलन मस्क की कंपनी SpaceX के Falcon 9 और Amazon के मालिक Jeff Bezos की कंपनी Blue Origin के New Shephard rocket से रहेगी।. ये दोनों ही कंपनियां ऐसे re-usable space shuttles के कई टेस्ट कर चुकी हैं और ये टेस्ट काफ़ी कामयाब भी रहे हैं। हालांकि इन परीक्षणों में स्पेस शटल एक विमान की तर्ज पर नहीं, बल्कि रॉकेट की तर्ज पर वापस उतरता है।
2008 में चंद्रयान और 2013 में मंगलयान अभी तक इसरो के सबसे कामयाब प्रोजेक्ट रहे हैं। मंगलयान की अगर बात करें तो भारत ने 73 मिलियन डॉलर में ये यान बनाया था, जबकि ऐसे ही यान को अमेरिका ने क़रीब नौ गुना ज़्यादा क़ीमत 671 मिलियन डॉलर में बनाया।
This Article is From May 23, 2016
प्राइम टाइम इंट्रो : इसरो का एक और कामयाब प्रयोग
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:मई 23, 2016 21:25 pm IST
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Published On मई 23, 2016 21:25 pm IST
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Last Updated On मई 23, 2016 21:25 pm IST
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