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This Article is From Jun 23, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो: यूरोपीय संघ को लेकर दो राय में बंटा ब्रिटेन

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 23, 2016 22:28 pm IST
    • Published On जून 23, 2016 22:10 pm IST
    • Last Updated On जून 23, 2016 22:28 pm IST
ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन में रहना चाहिए या निकल जाना चाहिए इसे लेकर ब्रिटेन में मतदान शुरू हो गया है। 4 करोड़ 65 लाख से अधिक मतदाता इस जनमत संग्रह में भाग ले रहे हैं। कहीं मतदान ज़ोरों पर है, कहीं धीमा है। 24 जून को इस जनमत संग्रह के नतीजे आने वाले हैं। यूरोपियन यूनियन के 27 सदस्य देशों के करोड़ों नागरिकों की निगाह ब्रिटेन में चल रहे मतदान पर है कि यूनियन का 28 वां सदस्य ग्रेट ब्रिटेन क्या फैसला करता है। 2014 के साल में भी एक ऐसा ही जनमत संग्रह हुआ था, जब यह सवाल था कि स्काटलैंड को ब्रिटेन से अलग कर दिया जाना चाहिए या नहीं। उसका फैसला तो ब्रिटेन में बने रहने के पक्ष में आया लेकिन यूरोपियन यूनियन के बारे में क्या फैसला होगा।

ब्रिटेन के इतिहास का यह तीसरा राष्ट्रव्यापी जनमत संग्रह है। चार महीने से वहां राजनीतिक दलों से लेकर तरह तरह के सामाजिक धार्मिक संगठन अभियान चला रहे हैं। कोई यूरोपियिन संघ से निकलने का पक्षधर है तो कोई बने रहने का पक्षधर। इन्हें अंग्रेज़ी में लीव कैंपेन और रिमेन कैंपेन कहा जा रहा है। गुरुवार सुबह तक मतदान होगा और उसके बाद नतीजे आएंगे। जिसे भी पचास फीसदी से अधिक वोट मिलेगा वही फैसला होगा। नतीजा क्या होगा इसे लेकर वहां का मीडिया भी भारतीय मीडिया की तरह कसरतबाज़ हो गया है।

पूरे अभियान के तरह तरह के सवालों को सिर्फ हां या नां में समेट कर सर्वे किए जा रहे हैं और दिखाये जा रहे हैं। जैसे भारत में चुनाव होते हैं हम मीडिया वाले अब अन्य मुद्दों को छोड़ कौन बनेगा प्रधानमंत्री या कौन बनेगा मुख्यमंत्री करने लगते हैं। इसी में चुनाव बीत जाता है बीच बीच में दो चार स्टिंग आपरेशन और दल बदलु नेताओं की खबरें चुनावी मार्केट में छा जाती हैं।

ब्रिटिश मीडिया के भी कई रूप देखने को मिल रहे हैं। यह मैं इसलिए बता रहा हूं ताकि आप एक दर्शक और लोकतंत्र के हिस्सेदार के रूप में समझ सकें कि मीडिया आपके लोकतांत्रिक चरित्र को कैसे बदल रहा है। वो कैसे अपने तमाम सर्वे के ज़रिये आपको हां या ना के खांचे में समेट रहा है। लोकतंत्र में आप तय नहीं कर रहे हैं, मीडिया आपको तय कर रहा है। आपको गढ़ रहा है। चुनाव आते ही मीडिया आपको एक कृत्रिम नागरिक में बदल रहा है।

मुझे नहीं पता कि आपको इन बातों से फर्क भी पड़ता है या नहीं। तो हज़रात ओपिनियन पोल की बाढ़ आई हुई है ब्रिटेन में। किसी में यूरोपियन यूनियन से बाहर होने की जीत है तो किसी में बने रहने वालों की जीत है। दोनों के बीच मतों का फासला बहुत कम है। वहां का भी दक्षिणपंथी मीडिया बेतुके राष्ट्रवादी सवालों को उठा रहा है तो उदारवादी मीडिया मुद्दों की विविधता को सामने नहीं ला पा रहा है।

ब्रिटेन बेचैनी से गुज़र रहा है। यह बेचैनी इतनी क्यों बढ़ गई कि उसे यूरोपियन संघ से अलग होने के लिए जनमत संग्रह की तरफ बढ़ना पड़ा। अगर ब्रिटेन यूरोपियन संघ में बना रहता है तो क्या छोड़ने के पक्षधरों के सवाल समाप्त हो जाएंगे। सवाल क्या है। इससे पहले एक बात यह जान लीजिए कि दुनिया में मंदी चल रही है। ब्रिटेन में भी मंदी चल रही है। ये मंदी बेरोज़गारी लाती है और जीवन की गति को धीमा कर देती है। नतीजा हम सबके तर्क तो होते हैं मगर तर्क करने के तरीके इतने घातक तरीके से बदल जाते हैं कि कई बार लोकतंत्र ही ख़तरे में पड़ने लगता है।

अमेरिका में आपने देखा होगा डॉनल्ड ट्रंप इन बेचैनियों के बहाने किस तरह की आक्रामक बातें कर रहे हैं। वे कभी कहने लगते हैं कि मुसलमानों को अमेरिका में घुसने नहीं देंगे तो कभी कहते हैं कि अमेरिकी नौकरियों पर बाहरी लोगों का अधिकार नहीं होगा। लोग यह भी नहीं देख पाते कि ट्रंप जैसे नेता मुसलमानों और गैर मुसमलानों के लिए एक ही बात कह रहे हैं। न्यूयार्क टाइम्स में खबर है कि हिलेरी क्लिंटन ने माना है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था अव्यवस्था का शिकार हो गई है। सिर्फ वे ही लोगों की हताशा को अपनी नीतियों से बदल सकती हैं। हिलेरी कहती हैं कि वाशिंगटन की नौकरशाही और कारपोरेट को बदलना आसान नहीं मगर प्रयास करेंगी।

क्या वाकई आज की दुनिया में कोई नेता है जो कारपोरेट को बदल दे। कारपोरेट ही तो नेता पैदा कर रहे हैं तो उन्हें कौन पैदा करेगा। अर्थ संकट के समय नौकरशाही खलनायक बन जाती है। इसे साधने के लिए मज़बूत नेता का आहवान होने लगता है। दुनिया में बहुत से मज़बूत नेता आए और गए मगर मौजूदा अर्थनीति से लंबे समय तक के लिए आर्थिक स्थायित्व नहीं ला सके। आर्थिक उछाल अब बहुत दिनों तक नहीं टिकता। एक देश में नहीं टिकता है। क्या ओबामा कमज़ोर नेता हैं। अर्थव्यवस्था नेताओं के फिटनेस से नहीं चलती है। हिलेरी क्लिंटन ने यह नहीं कहा कि वे छात्रों के कर्ज माफ करेंगी लेकिन यह सुनिश्चित करेंगी कि छात्र जब कालेज से पास करें तो उन पर कर्ज का बोझ न रहे। क्या ऐसा हो सकता है। आप गणित में फेल भी हैं तो दिमाग लगाइये। अगर शिक्षा पूरी तरह बाज़ारू हो जाएगी तो महंगी फीस की मार से आप और हम कैसे बचेंगे। जब अमेरिका का अमीर समाज नहीं बच सका तो भारत का ग़रीब समाज कैसे बच जाएगा। रामदेव की औषधि से या हमदर्द की यूनानी दवाइयों से। हिलेरी क्लिंटन कह रही है कि जुमलेबाज़ी या चमकदार नारों से कहीं ज्यादा योजना बनाने की जरूरत है। इसके लिए अनुभव की ज़रूरत है। ध्यान से देखेंगे तो उनकी ये बातें भी जुमले से कम नहीं है। हिलेरी क्लिंटन ने यह भी कहा है कि वे टैक्स नियमों का इस्तेमाल कर उन कंपनियों पर निगाह रखेंगी जो अपना काम बाहर के देशों में भेज देते हैं। जिससे वहां के लोगों को नौकरियां मिलती हैं अमेरिकी को नहीं।

ग्लोबल जगत में हर दूसरा बड़ा देश नौकरियों के सवाल से संघर्ष कर रहा है। जो बात अमेरिका में हो रही है वही बात ब्रिटेन में हो रही है। यूरोपियन संघ से निकलने के पीछे ब्रिटेन की सुस्त अर्थव्यवस्था और बेरोज़गारी भी बड़ा कारण है। ब्रिटेन के नागरिकों को लगता है कि यूरोपियन संघ के देशों के नागरिक उनकी नौकरियां खा जा रहे हैं, ब्रिटेन में रहने वाले भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश से गए नागरिकों को लगता है कि यूरोपियन संघ के कारण उनके लोगों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं। कोई अर्थनीति के खोट को नहीं समझ रहा कोई नौकरशाही में दवा खोज रहा है तो कोई यूरोपियन यूनियन से निकलने में दवा खोज रहा है।

16 मई 2016 को इंडिपेंडेंट अखबार ने एक लेख छापा था। ब्रिटेन में 2013 से 2016 के बीच गरीबी बढ़ी है। 15.6 प्रतिशत से बढ़कर 16.8 प्रतिशत हो गई है। यूरोपियन यूनियन के देशों की तुलना में ब्रिटेन में ग़रीबी बहुत ज्यादा है। ब्रिटेन में यूनिवर्सिटी से पास होने वाले छात्रों पर यूरोपियन यूनियन के देशों के छात्रों की तुलना में बहुत ज़्यादा कर्ज़ का बोझ है। 2015 में हर छात्र पर औसत कर्ज़ा 44,500 यूरो है। भारतीय रुपये में इसका अनुवाद करेंगे तो बेहोश ही हो जाएंगे। एक छात्र पर चौवालीस लाख रुपये का कर्ज़ होता है जब वो यूनिवर्सिटी से पास करता है। न्यूज़ीलैंड, आस्ट्रेलिया,अमेरिका के छात्रों से भी ज्यादा कर्जा ब्रिटेन के छात्रों का है। ये है शिक्षा के निजीकरण का नतीजा। सरकारें जनता के पैसे से हथियार खरीदने बेचने के धंधे में लगी हैं और उसका युवा कर्ज का बोझ लिये निकल रहा है। ब्रिटेन में असमानता बढ़ रही है। असंतोष बढ़ रहा है। इसलिए इस जनमत संग्रह को एक नज़रिये या एक चश्मे से देखना ठीक नहीं रहेगा।

हमें यह देखना होगा कि मज़दूर वर्ग क्या सोच रहा है। युवा क्यों ऐसा सोच रहा है। महिलाएं क्यों यूरोपियन संघ से निकलने की बात कह रही हैं। कुछ वोटों के अंतर से भले ब्रिटेन यूरोपियन संघ में रह जाए मगर जो सवाल उठ रहे हैं क्या उनका जवाब ये जनमत संग्रह दे रहा है। संकट है लेकिन इस संकट के बहाने कुछ नेता ऐसी बातें कह रहे हैं जिनका समाधान से कोई संबंध नहीं। सिर्फ ईयू से निकल जाने का फैसला हताशा या तत्काल गुस्से को शांत कर सकता है मगर समाधान क्या होगा इसका कोई ब्लूप्रिंट किसी के पास नहीं है।

ब्रिटेन में अमीर ही अमीर होता है जैसा भारत में होता है जैसा अमेरिका में हो रहा है। इंडिपेंटेंड अखबार में इंस्टीट्यूट आफ फिस्कल स्टडी की एक रिपोर्ट छपी है जिसके अनुसार अगर एक अमीर और एक साधारण पृष्ठभूमि के छात्र, एक ही विश्वविद्यालय से, एक ही कोर्स से डिग्री लेकर निकलते हैं तब भी अमीर छात्र ज़्यादा पैसे कमा रहा होता है। साधारण छात्रों के मुकाबले। हालत यह है कि लड़कियां स्कूल से लेकर कालेज में बेहतर प्रदर्शन करती हैं वो भी लड़कों की तुलना में कम कमा रही होती हैं। हम जनमत संग्रह जैसे वक्त में इन कारणों की पड़ताल क्यों नहीं करते हैं।

दूसरी तरफ क्या इस मसले के बहाने हम इस ग्लोबल दौर में राष्ट्रवाद की धारणा को लेकर नए सिरे से सोच समझ सकते हैं। यूरोपियन यूनियन चाहे जितना कारगर हो यह एक कारपोरेट राष्ट्रवाद है। जो सदस्य देशों की जनता के प्रति जवाबदेह नहीं है। सदस्य देश अपने निर्वाचित सदस्यों में से कुछ को ईयू में भेजते हैं। यूनियन का एक प्रेसिडेंट होता है और मंत्रिमंडल भी। एक किस्म की ग्लोबल सरकार तो है ही क्योंकि उसके बनाए सैंकड़ों नियम सदस्य देशों पर लागू होते हैं।

यूरोपियन यूनियन भले ही व्यापार करने की व्यावहारिक दिक्कतों का समाधान करता हो लेकिन क्या यह लोकतांत्रिक आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है। क्या इन सवालों के मद्देनजर जनमत संग्रह के पीछे छिपे कारणों का विश्लेषण किया जा सकता है। क्या इसके कारण सांस्कृतिक और सामुदायिक पहचान के संकट कुछ अलग तरह से उभर रहे हैं। यूरोप के भीतर अलगाववादी आंदोलन इस जनमत संग्रह को अलग तरीके से देख रहे हैं। जैसे काटालोनिया स्पेन से अलग होना चाहता है। वहां के अलगाववादी चाहते हैं कि ब्रिटेन संघ से निकलने का फैसला करे। स्पेन धमकी दे रहा है कि अगर ब्रिटेन निकला तो उसके नागरिकों पर नकारात्मक असर पड़ेगा जो यूरोपियन यूनियन के अलग अलग देशों में काम कर रहे हैं।

एक दिलचस्प अभ्यास तो है ही ये जनमत संग्रह। भारत जैसे मुल्क में दो चार संगठनों के धरना प्रदर्शन से राष्ट्रवाद और संप्रभुता के सवाल तय किए जा रहे हैं। ब्रिटेन में करोड़ों लोग मतदान के ज़रिये इस सवाल का सामना कर रहे हैं। भारत के लोग जो लंदन जाने का ख्वाब देखते हैं, बसने और नौकरी करने का भी, पहले से कई लाख लोग बस भी चुके हैं। उनके लिए जनमत संग्रह क्या मायने रखता है. यह जनमत संग्रह यूरोपियन संघ को क्या बदल देगा या ब्रिटेन ने बदल दिया है, इस पर हम प्राइम टाइम में बात करेंगे।

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