नमस्कार... मैं रवीश कुमार। जिसके पास ज़मीन होती है उसका एक स्वभाव होता है, यही कि उसकी ज़मीन में मर्ज़ी उसकी चले। आप क्या चाहते हैं। सरकार आपकी ज़मीन आपसे पूछ कर ले या आप मना कर दें तो न ले या आप यह चाहेंगे कि सरकार आपकी मर्ज़ी के बग़ैर ज़मीन ले ले। मुआवज़े की चिंता मत कीजिए वह 2013 और 2014 दोनों ही भूमि अधिग्रहण कानूनों के हिसाब से मिलेगा। बस मर्ज़ी आपकी चली जाएगी।
उद्योगजगत 2014 के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का खुलकर स्वागत कर रहा है। ज़ाहिर है उद्योगजगत को इसका फायदा पता है। किसान तो ट्विटर, फेसबुक पर भी बिज़ी नहीं रहते फिर वह स्वागत क्यों नहीं कर रहें। क्या उन्हें इसका लाभ नहीं मालूम।
यह बात दिमाग से निकाल दीजिए कि ज़मीन सिर्फ किसान के पास होती है। अमीर लोगों के पास भी होती है, जिसे खेत नहीं फार्म हाउस कहते हैं। यह सही है कि तमाम योजनाओं के लिए सरकार जब भूमि का अधिग्रहण करती है तो वह गांव और किसान की ही ज़मीन होती है।
मिसाल के तौर में दक्षिण दिल्ली, गुड़गांव, नोएडा, फरीदाबाद, सोनीपत में ही अमीर लोगों के पास कई सौ एकड़ के फार्म हाउस हैं। दक्षिण दिल्ली के ही फार्म हाउस का अधिग्रहण कर लिया जाए तो दिल्ली के गरीब लोगों को मकान देने की समस्या बहुत हद तक दूर हो जाएगी, वहां कई अहम सरकारी दफ्तर भी बन सकते हैं। लेकिन मेरी जानकारी में ऐसा कभी नहीं हुआ कि अमीरों के फार्म हाउस का अधिग्रहण हुआ हो। इसलिए फार्म हाउस वाले 2014 के अध्यादेश का स्वागत कर रहे हैं।
भूमि अधिग्रहण को लेकर 1894 का कानून ही चलता था, जिसे पहली बार बड़े पैमाने पर 2013 में बदला गया। लेकिन इस कानून को आज़माने के बजाए साल भर के भीतर ही बदल दिया गया। इसे बदलने के पक्ष विपक्ष में बहुत सी बातें कही गईं हैं।
अध्यादेश के ज़रिये क्यों लाया गया हम आज इस पर बात नहीं करेंगे, क्योंकि इससे बहस दूसरी दिशा में चली जाएगी। बातचीत अध्यादेश के कुछ प्रावधानों के पक्ष विपक्ष तक ही सीमित रहे, तो सबको टीवी के सीमित समय में कुछ तो पता चलेगा कि मामला है क्या।
पहले यह जानना ज़रूरी है कि सरकार का क्या पक्ष है इसके लिए हमने वित्तमंत्री अरुण जेटली के इस मसले पर लिखे ब्लॉग को लिया है। जिसमें वह लिखते हैं - 2013 के एक्ट के अनुसार कई मामलों में सरकार ज़मीन मालिक की मर्ज़ी के बिना अधिग्रहण नहीं कर सकती थी। फिर इस एक्ट के अनुसार अधिग्रहण के कारण पड़ने वाले सामाजिक असर का भी अध्ययन करना था। फिर इसमें खाद्य सुरक्षा का भी विशेष प्रावधान जोड़ा गया था।
ऐतिहासिक रूप से ज़मीन लेने का अंतिम अधिकार सरकार के पास होता है। सरकार को विकास के अनगिनत कार्यों के लिए ज़मीन की ज़रूरत होती है। रक्षा से लेकर सिंचाई और शहर बसाने तक के लिए।
जनहित हमेशा निजी हित से ऊपर होता है। ज़मीन अधिग्रहण की प्रक्रिया अगर बहुत जटिल होगी ज़मीन लेना मुश्किल हो जाएगा और भारत का विकास ही नहीं होगा।
अरुण जेटली ने लिखा है कि जो संशोधन हुआ है उसमें सिर्फ पांच ऐसे अपवाद रखे गए हैं, जिन पर जटिल प्रक्रिया लागू नहीं होगी। यह ध्यान रखियेगा कि सरकार हर जगह दावा करती है कि अधिग्रहण के बदले जो मुआवज़ा दिया जाएगा वह 2013 के कानून के हिसाब से ही होगा। उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है। तो ये पांच बदलाव इस प्रकार हैं-
- नए संशोधन में भारत की रक्षा ज़रूरतों को ज़मीन अधिग्रहण की जटिल प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया है।
- गांव में बिजली, सड़क बनाने, सिंचाई, राजमार्ग बनाने के लिए भी सरकार सीधे अधिग्रहण करेगी।
- गरीबों के लिए सस्ते आवास की योजना के लिए सरकार सीधे ज़मीन का अधिग्रहण करेगी।
- हाईवे के नज़दीक बनने वाले औद्योगिक गलियारों के लिए ज़मीन लेने की अड़चनें दूर कर दी गई हैं।
- पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की योजनाओं के लिए भी ज़मीन अधिग्रहण की प्रक्रिया को आसान किया गया है।
अरुण जेटली अपने इन पांच प्रावधानों के हक में दलील देते हैं कि इससे गांवों का विकास होगा, ज़मीन की कीमत बढ़ेगी, वहां रोज़गार बढ़ेगा और खेती का भी विकास होगा। तो अब इसके अलावा बचता ही क्या है जिसके लिए ज़मीन लेने पर 2013 के कानून की जटिल प्रक्रियाओं को आप लागू करेंगे।
अब विपक्ष की तरफ से जयराम रमेश क्या कहते हैं। भूमि ग्रहण के डीएनए में सहमति और सामाजिक प्रभाव के अध्यन की प्रक्रिया को शामिल करने के पीछे एक ठोस तर्क था। भूमि अधिग्रहण शासन द्वारा अपनी ताकत के मनमाने ढंग से इस्तमाल का एक उपकरण बन कर रह गया है। ज़मीन का अधिग्रहण हमेशा ताकत के बल पर किया जाता था। इसीलिए ज़मीन लेने से पहले 70 से 80 प्रतिशत लोगों की सहमति अनिवार्य की गई थी। लेकिन मोदी सरकार के बदलाव से नागरिकों की कुछ नहीं चलेगी। 2013 के कानून में रेल, राष्ट्रीय राजमार्ग, परमाणु ऊर्जा बिजली आदि से जुड़ी परियोजनाओं, रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जमीन अधिग्रहण को 70 से 80 फीसदी मालिकों की मर्ज़ी के प्रावधान से अलग किया गया था। जयराम के ये विचार हमने दैनिक जागरण में छपे उनके लेख से लिए हैं।
एक बड़ा बदलाव यह भी है कि 2013 के एक्ट के अनुसार अगर पांच साल में प्रोजेक्ट पूरा नहीं हुआ तो ज़मीन वापस की जानी थी। जेटली ने ब्लॉग में लिखा है कि कई परियोजनाएं ऐसी हैं जो पांच साल में पूरी नहीं हो सकतीं। इससे हम परियोजनाओं को पूरा न कर पाने वाले राष्ट्र कहलाएंगे।
2013 कानून के प्रारूप के तहत कोई भी प्राइवेट शिक्षण संस्थान या अस्पताल अधिग्रहित भूमि का इस्तमाल नहीं कर सकते। आखिर स्मार्ट शहर और नगर बस्ती कैसे बन पाएगी। क्या वहां केवल सरकारी स्कूल-कॉलेज रहेंगे और स्वास्थ्य एवं शिक्षा की बाकी संस्थाएं बनाने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
जेटली की इस बात से क्या यह मतलब हुआ कि स्मार्ट शहर सरकार बनाएगी और अगर स्मार्ट शहर के लिए ज़मीन ली गई तो उसके भीतर क्या-क्या बनेगा और कौन बनाएगा क्या ये भी 2013 के कानून के अनुसार तय हो रहा था।
वैसे पिछले साल सीएजी की एक रिपोर्ट संसद में रखी गई जो एसईजेड के नाम पर किसानों से ली गई ज़मीन के बारे में थी। एसईजेड के तहत 45 हज़ार हेक्टेयर से ज्यादा ज़मीन किसानों से ली गई, लेकिन 38 फीसदी ज़मीन में कोई काम ही नहीं हुआ जबकि कई साल बीत गई। ज्यादातर ज़मीन सार्वजनिक हित के नाम पर ली गई और प्राइवेट कंपनियों ने उसके बदले बैंक से हज़ारों करोड़ के लोन भी ले लिए।
सरकार के पास एक चुनौती है कि वह विकास के लिए ज़मीन कहां से लाए। लेकिन इसके आधार पर क्या उसकी दलील विरोधियों को जवाब देने के लिए पर्याप्त है? क्या ज़मीन लेने से पहले 70 से 80 फीसदी किसानों की सहमति को समाप्त करना विकास के हित में है? इस हित का समर्थक कौन है? मध्यम वर्ग, उद्योग जगत या वह किसान भी जिसकी ज़मीन विकास के काम आने वाली है।