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This Article is From Mar 28, 2016

नेताओं को प्रणय रॉय का संदेश : भारतीय मीडिया का गला न घोंटें

Prannoy Roy
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 29, 2016 11:33 am IST
    • Published On मार्च 28, 2016 20:13 pm IST
    • Last Updated On मार्च 29, 2016 11:33 am IST
एनडीटीवी के सह-संस्थापक और सह-अध्यक्ष डॉ प्रणय रॉय को आज लोक प्रशासन, अकादमिक और प्रबंधन में उत्कृष्टता के लिए प्रतिष्ठित लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय पुरस्कार- 2015 से नवाज़ा गया। दिल्ली में आयोजित समारोह में उन्होंने यह भाषण दिया।

यह बेहद प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त कर मैं तहेदिल से सम्मानित महसूस कर रहा हूं - बहुत, बहुत धन्यवाद। मुझे एनडीटीवी के सभी लोगों और भारतीय मीडिया के प्रतिनिधि के तौर पर यहां खड़ा होकर गर्व हो रहा है। भारत में दुनिया का सबसे जीवंत, सवाल करने वाला और निडर मीडिया है। यह कुछ ऐसा है, जिस पर हम सभी को बेहद गर्व होना चाहिए। दुनिया के एक सॉफ्ट पॉवर के रूप में बंदूकों और हथियारों के हार्डवेयर की तुलना में लोगों का दिलो-दिमाग जीतना ज्यादा ज़रूरी है और एक दिन भारतीय मीडिया अपने देश के लिए बेहद अहम वैश्विक भूमिका निभाएगा।

यह पुरस्कार पाकर मैं बेहद अभिभूत हूं, क्योंकि यह सबसे प्रखर बुद्धि वाली हस्तियों से भरे फाउंडेशन द्वारा चुना जाता है, जिन्होंने पहले ही मुझसे साफ कर दिया था कि यह कोई राजनीतिक अवार्ड नहीं है। यह पत्रकार की स्वतंत्रता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि मेरा दृढ़ विश्वास है कि न्यायपालिका को सरकार से अलग रहना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी नेताओं से पत्रकारों का अलगाव भी है।

पत्रकारों की नेताओं से करीबी इस पेशे में एक असहज प्रवृति है; नेता प्रकृति से ही आकर्षक लोग होते हैं, और दुनिया भर में पत्रकारों को चेताया जाता है कि वे नेताओं के आकर्षण और शक्ति में बहकें या उनमें फंसें नहीं, क्योंकि यह उनके काम - निष्पक्ष रिपोर्टिंग को - बेहद मुश्किल बना देगा।

अलगाव के व्यापक स्तर पर, पिछले कुछ दशकों में भारत में सरकार और टेलीविजन के बीच संबंधों में तीन बड़े बदलाव देखे गए, और एनडीटीवी में हमने इन चरणों में से प्रत्येक से सीखा और आगे बढ़े हैं - वास्तव में हमारा इतिहास उनमें से प्रत्येक के साथ जुड़ा हुआ है।

पहला : तीन दशक पहले, यह 'बहिष्कार से नियंत्रण' का दौर था। टेलीविजन पत्रकार, जो सरकारी मीडिया का हिस्सा नहीं थे - 'एम्बेडेड' नहीं थे, तो वे राष्ट्र से अलग कर दिए गए थे - अपने ही देश भारत पर खबर करने का कोई अधिकार नहीं था, अपने पेशे की प्रैक्टिस का अधिकार नहीं था। यह वह दौर था, जब एनडीटीवी ने टेलीविजन पर खबर दिखाने वाला पहली गैर-सरकारी संगठन बनकर सीमाओं को आगे बढ़ाने की कोशिश की। हालांकि तब इसे देश की नहीं, बल्कि सिर्फ अंतरराष्ट्रीय खबरें ही दिखाने की इजाजत मिली थी, इसलिए हमने ‘द वर्ल्ड दिस वीक’ शुरू किया। एक बार स्थापित होने, और अपने दर्शकों से मिले समर्थन के साथ, हम भारत पर खबर दिखाने वाले पहले गैर-सरकारी टेलीविजन मीडिया बनने की राह पर चल दिए - और उसके बाद भारत में सबसे पहले 24-घंटे चलने वाला समाचार चैनल लॉन्च किया।

'बहिष्कार से नियंत्रण' का दौर जब खत्म हुआ, तो फिर दूसरा दौर 'धमकी से नियंत्रण' का आया - यह वह दौर था, जिसमें नेता पत्रकारों को फोन करते और खबरों में उनके मनमुताबिक बदलाव नहीं करने पर गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी देते थे। हकीकत में, कोई भी इन धमकियों की परवाह नहीं करता था और भारत के पत्रकारों की इसके लिए तारीफ करनी चाहिए। पत्रकारों की रणनीति काफी सरल हुआ करती थी - सुनो, कुछ नहीं करो और फिर यह खुद खत्म हो जाएगा। मुझे ऐसा ही एक खास धमकी भरा फोन कॉल याद है : "आप जानते हैं कि मैं आप एक सच्चा समर्थक रहा हूं, लेकिन अगर इसी तरह का काम करते रहें, तो कुछ नहीं कर पाऊंगा। दूसरे लोग मुझे आपकी कंपनी को बंद करने के लिए मजबूर कर देंगे। कृपया अपनी इन रिपोर्टों को बंद करें।'

इन फोन कॉल्स के साथ जैसा हमेशा से होता आया है, मैंने बिल्कुल कुछ भी नहीं किया। हमने सुनिश्चित किया कि फील्ड में रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों को फोन कॉल या धमकी का पता नहीं चले। हमारी रिपोर्टिंग में कुछ भी नहीं बदला। कुछ घंटे बाद उसी नेता से मुझे फिर फोन कॉल आया, जिसमें उसने मुझे कहा, 'अपनी खबर को बदलने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!' मैंने कुछ नहीं कहा। यह दौर करीब 10 साल पहले तक चला। फिर नेताओं ने बस कोशिश करना छोड़ दिया। कोई और फोन कॉल नहीं। और मेरा यकीन करें, उन लोगों के फोन कॉल्स हम कभी मिस नहीं करते!

हालांकि, फिर इसके बाद एक नया दौर शुरू हुआ, नियंत्रण के अधिक सूक्ष्म और फोन कॉल की तुलना में शायद अधिक घातक तरीकों के साथ। तीसरा दौर 'मेक्कार्थिज्म की तकनीक का उपयोग कर नियंत्रण' का था। मेक्कार्थिज्म व्यापक रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के हालिया इतिहास की सबसे काली अवधि माना जाता है। इस दौर में, एफबीआई और कर विभाग जैसे सरकारी महकमे, लगभग हर जाने-माने पत्रकार और हॉलीवुड के सैकड़ों प्रभावशाली लोगों के खिलाफ झूठे मामले दर्ज करा देते थे। यह वह दौर था, जब अमेरिका को 'हर जगह कम्युनिस्ट' (रेड अंडर एवरी बेड) दिखता था। यह प्रवृत्ति, जो 10 साल पहले शुरू हुई थी - अब भारत में भी हमने हर ओर राष्ट्रविरोधी और राष्ट्रद्रोही देखना शुरू कर दिया है।

यह तीसरा दौर भी बाकी दोनों की तरह ही बीत जाएगा। तब तक के लिए हमारा पूरा समर्थन और सहानुभूति देश भर के हमारे उन सभी पत्रकारों के साथ है, जिन्हें बिना किसी अपराध के, सिर्फ अपनी निर्भीक रिपोर्टिंग की वजह से पीटा जा रहा है और जेल में डाल दिया गया है। मुझे विश्वास है कि यह दौर भी बीत जाएगा, क्योंकि भारत का मीडिया हर बार राज्य के नियंत्रण से लड़ा है; हर बार, यह मुक्त और लड़ाई से पहले की तुलना में और मजबूत होकर उभरा है।

अगर मुझे तमाम पार्टियों के नेताओं और सरकारों को कोई संदेश देना हो, तो वह यह है - भारत के मीडिया को कुचलिए नहीं, बल्कि विकसित कीजिए, क्योंकि इस देश के लोगों के लिए, हमारा मीडिया हमारी सबसे बड़ी संपत्तियों में से एक है।

भारत का मीडिया जल्द ही एक दिन सीएनएन और बीबीसी को दिखाएगा कि वास्तव में बिना किसी सीमा के एक जीवंत और निष्पक्ष बहस कैसी होती है। इस पर नजर रखिए - भारत के मीडिया को देखिए - आपने अभी तक कुछ भी नहीं देखा है।

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