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This Article is From Dec 01, 2016

सुप्रीम कोर्ट का आदेश मानें तो राष्ट्रगान की अवमानना न हो जाए

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 01, 2016 16:38 pm IST
    • Published On दिसंबर 01, 2016 16:22 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 01, 2016 16:38 pm IST
सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान की अनिवार्यता के सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने एक अजीब स्थिति पैदा कर दी है. हम सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना नहीं कर सकते, लेकिन इस पर अमल में राष्ट्रगान की अवमानना का ख़तरा निहित है, जिसे हम नज़रअंदाज़ भी नहीं कर सकते. ख़तरा यह भी है कि जल्द ही सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को कुछ उत्साही देशभक्त सिनेमाघरों में अपने स्तर पर लागू करवाने के नाम पर कई अशोभनीय और हिंसक दृश्य उपस्थित कर सकते हैं.

कृपया यह न समझें कि मैं राष्ट्रगान का विरोधी हूं. उल्टे मैं इस राष्ट्रगान का बेहद सम्मान करता हूं- उन लोगों से कहीं ज़्यादा जो वर्षों तक इस राष्ट्रगान को संदेह से देखते रहे और ये प्रचारित करते रहे कि ये जॉर्ज पंचम की प्रशस्ति में लिखा गया है. हालांकि रवींद्रनाथ टैगोर अपने जीवनकाल में ही इस कुप्रचार का बार-बार खंडन करते रहे. बेशक, उनसे सम्राट की प्रशस्ति में गीत लिखने काआग्रह किया गया था, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया था. इस संदर्भ में उन्होंने अपने मित्र पीबी सेन को लिखा भी- 'सम्राट के अमले के किसी अफ़सर ने, जो मेरे दोस्त भी थे, अनुरोध किया था कि मैं सम्राट की अभ्यर्थना में एक गीत लिख दूं. इस अनुरोध से मैं हैरान रह गया. इससे मेरे दिल में बहुत क्षोभ पैदा हुआ. इस बेहद मानसिक यातना के जवाब में मैंने जन गण मन में उस भारत भाग्यविधाता की विजय की घोषणा की जो सदियों से उत्थान और पतन के बीच भारत का रथचक्र खींचता रहा है.'

मगर टैगोर के जन-गण-मन को जॉर्ज पंचम की अभ्यर्थना से कैसे जोड़ दिया गया? इसका जवाब सौभिक भट्टाचार्य और अनिर्बान मित्रा द्वारा किए गए शोध से मिलता है. कुछ अरसा पहले 'द हिंदू' के एक लेख में उन्होंने लिखा है कि उसी साल कांग्रेस के अधिवेशन में टैगोर का जन गण मन भी गाया गया और जॉर्ज पंचम की प्रशस्ति में किसी अन्य लेखक द्वारा लिखा गया एक और गीत भी जिसे मीडिया की रिपोर्टिंग ने गड्डमड्ड कर दिया. टैगोर से बाद में जब पूछा गया तब भी उन्होंने कहा कि जो लोग सोचते हैं कि मैं ऐसी मूर्खता कर सकता हूं, उनके सवाल का जवाब तक देना मेरे लिए अपमाजनक है.

बहरहाल, टैगोर उन लोगों में थे जिन्होंने उद्धत राष्ट्रवाद, इकहरी सांप्रदायिकता और धार्मिक पाखंड के ख़तरों को सबसे पहले पहचाना था. 1889 में लिखा गया उनका उपन्यास 'राजर्षी' बहुत मानवीय ढंग से सत्ता और धर्म के कुचक्र को रखता है और उस दौर में अहिंसा को एक मूल्य की तरह प्रस्तावित करता है जब गांधी का वैचारिक मानस तैयार ही हो रहा था. 1911 में प्रकाशित अपने उपन्यास 'गोरा' में वे राष्ट्रवाद की बहस को एक बड़ा आयाम देते हैं.

ऐसा क्रांतदर्शी लेखक हमारे राष्ट्रगान का रचयिता है, यह मेरे लिए गर्व की बात है. सच तो यह है कि राष्ट्रगान हो या तिरंगा- दोनों का सबसे कम सम्मान शुरुआती वर्षों में उस भगवा वैचारिकी ने किया जो अब सबसे ज़्यादा देशभक्ति का झंडा उठाती है.

फिर सवाल है, सुप्रीम कोर्ट के आदेश से मुझे एतराज क्यों है? मुझे राष्ट्रगान से नहीं इसके थोपे जाने से एतराज़ है. इससे राष्ट्रगान की गरिमा कम होती है. जिससे हमारा सहज संबंध होना चाहिए, जिसे गाते हुए श्रद्धा और सम्मान का भाव उमड़ना चाहिए, अगर उसे बिल्कुल खड़े होकर सावधान की मुद्रा में गाने की मजबूरी हो तो इससे उसकी उदात्तता कुछ चोटिल तो होती है. राष्ट्रगान को तो कायदे से किसी व्यक्ति को स्वतंत्रता का एहसास कराना चाहिए उसे देश की जनतांत्रिकता के विस्तार का माध्यम होना चाहिए, उसे तंत्र का थोपा हुआ आदेश नहीं होना चाहिए.

यहां आकर इस आदेश की दूसरी सीमा दिखाई पड़ती है. यह आदेश हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन करता है. किसी भी अधिकार का एक बुनियादी नियम उसे इस्तेमाल न करने की छूट भी होता है. यानी हमारे वोट देने के अधिकार में वोट न देने का अधिकार भी शामिल है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट हमसे सिर्फ़ राष्ट्रगान न गाने का अघिकार ही नहीं छीन रहा, वह हमें इसे ख़ास ढंग से गाने को भी मज़बूर कर रहा है. इस अदालती आदेश के सार्वजनिक ख़तरे और ज़्यादा हैं. जल्द ही ऐसे समूह दिखने लगेंगे जो राष्ट्रगान की अवहेलना के नाम पर किसी को भी उसी तरह उत्पीड़ित कर सकते हैं जैसे गोरक्षक दल किया करते हैं.

इसका एक और पक्ष समझने की ज़रूरत है. देश थोपी हुई आस्थाओं और ओढ़ी हुई गरिमा से नहीं चलता. वह एक सामूहिक चेतना का नाम होता है जो अलग-अलग गरिमा बोध के बीच विकसित होता है. कोई खिलाड़ी ओलिंपिक में पदक जीतता है तो देश का सम्मान बढ़ता है, कोई फिल्मकार एक अच्छी फिल्म बनाकर अंतरराष्ट्रीय समारोह में तारीफ़ हासिल करता है तो देश का नाम होता है, एक अच्छी किताब देश की बौद्धिक चौहद्दी का विस्तार करती है, एक अच्छा गायक देश को सात समंदर पार ले जाता है. यानी हर माध्यम की अपनी एक गरिमा है- इसी तरह सिनेमा की भी. हम जब फिल्म देखने जाते हैं तो एक अलग सी मन:स्थिति में जाते हैं. वहां जाकर राष्ट्रगान के लिए खड़े होना राष्ट्रगान के लिए भी गरिमापूर्ण नहीं है, फिल्म के लिए भी नहीं. यही नहीं, राष्ट्रगान को ऐसी पूजा की वस्तु बना देना कि उसे ऐसे ही छू लेने से वह अपवित्र हो जाएगा, राष्ट्रगान को छोटा करना है, जनता से काटना है. राष्ट्रगान के साथ तो हमारा सांस का संबंध होना चाहिए- कभी वह सांस लंबी हो सकती है, कभी छोटी. कभी हम इसे गुनगुना सकते हैं, कभी ज़ोर से गा सकते हैं. कभी इसके साथ कुछ अच्छे सांगीतिक प्रयोग भी कर सकते हैं, कभी इसे गाने की प्रतियोगिता भी करा सकते हैं. मुश्किल यह है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ऐसी कई संभावनाएं ख़त्म हो गई हैं.

कुछ मित्रों का कहना है कि अगर राष्ट्रगान के लिए सिनेमाघर में 52 सेकेंड खड़े हो जाया जाए तो किसी का कुछ बिगड़ेगा नहीं. बात सही है. लेकिन इससे सबसे ज़्यादा उस राष्ट्रगान का बिगड़ेगा जिसे श्रद्धा और सम्मान से गाया जाना चाहिए न कि किसी सरकारी या अदालती आदेश से.

दरअसल यह फ़ैसला एक तरह से राष्ट्रगान की अवमानना करता है. यह जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट से एक वैध कानूनी पुनरीक्षण की मांग की जाए ताकि न सुप्रीम कोर्ट की अवमानना हो न राष्ट्रगान की.

(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)

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