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This Article is From Aug 25, 2015

जीत और हार के बाद राजनीति समाप्त नहीं होती

Reported By Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    August 25, 2015 23:46 IST
    • Published On August 26, 2015 00:07 IST
    • Last Updated On August 26, 2015 00:07 IST
प्रधानमंत्री होते हुए भी नगरपालिका चुनावों में मिली जीत पर ट्वीट करना और कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाना, ये नरेंद्र मोदी की राजनीतिक शैली है। राजस्थान, मध्य प्रदेश और कर्नाटक के निकाय चुनावों की जीत से उनके ट्वीट का असर ये हुआ कि बीजेपी के बाकी बड़े नेता भी ट्वीट कर अपने कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाने लगे।

बेंगलुरू निकाय चुनावों में सीटें तो कांग्रेस की भी बढ़ी हैं लेकिन जब राहुल गांधी का ट्वीटर हैंडल देखने गया तो कुछ नहीं मिला। पार्टी का भावी नेता अपने उन कार्यकर्ताओं का हौसला तो बढ़ा ही सकता था जो भले न जीत सके हों मगर सीटें पहले से ज्यादा ले आए। शायद राहुल गांधी सोचते होंगे कि जब लोकसभा हार गए तो नगरपालिका के हारने से क्या फर्क पड़ने वाला। मोदी सोचते हैं लोकसभा तो ठीक है नगरपालिका जीत जाएं तो और भी ठीक है। यह दोनों ही उदाहरण बता रहे हैं कि राजनीति के मोर्चे पर दिन रात कौन डटा हुआ है।

जिस प्रधानमंत्री के लिए नगरपालिका के चुनाव महत्व रखते हों उसके लिए विधानसभा का चुनाव महत्वपूर्ण है या नहीं कहने की कोई बात ही नहीं है। मीडिया लगातार लिख रहा है कि बिहार विधानसभा का चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के लिए बेहद ख़ास है। क्यों ख़ास है यह कोई नहीं बताता। क्या 2014 के जनादेश के वक्त जनता ने यह कहा था कि आपको पूर्ण बहुमत तो दे रहे हैं लेकिन जब तक बिहार नहीं जीतेंगे उस बहुमत की कोई मान्यता नहीं है। क्या 2014 का जनादेश बिहार विधानसभा चुनाव से पहले का प्रैक्टिस चुनाव था। क्या लोकसभा का चुनाव विधानसभा के सामने लीग मैच था।

लोकसभा की जीत के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड विधानसभाओं में जीत के बाद ऐसा क्या बाकी रह गया जो बिहार से पूरा होना है। ज़रूर जीतना चाहिए लेकिन जीत गए तो प्रधानमंत्री के नैतिक बल पर क्या असर पड़ेगा। क्या उनका नैतिक बल या इकबाल बिहार चुनाव जीतने तक कमज़ोर हो गया है। क्या उनका इक़बाल तभी कायम होगा जब वे बिहार जीत कर दिखायेंगे। फिर दिल्ली विधानसभा चुनाव में हार के बाद तो उन्हें इस्तीफ़ा दे देना चाहिए था। जिस चुनाव के लिए ओबामा तक को बुलाया गया। जो सूट सिलवाई गई वो नीलाम तक हो गई।

क्या हम और आप मान लें कि दिल्ली चुनाव हारने के बाद प्रधानमंत्री का लोकसभा वाला जनादेश कम हो गया है। क्या फैसले लेने की उनकी क्षमता कम हो गई है। दिल्ली चुनाव के वक्त भी कहा गया कि उनके एकछत्र नेतृत्व के कारण पार्टी के नेता नाराज़ हैं। कहीं यही सब कह कह के उन्हें नर्वस तो नहीं कर दिया गया कि वे रातों रात किरण बेदी को मैदान में ले आए। दिल्ली को लोकसभा समझ रैलियां करने लगे। इसके बाद भी हार गए तो क्या हो गया। क्या सरकार तब नहीं चली थी या अब नहीं चल रही है।

अभी तक तो यही पढ़ता आ रहा था कि एक चुनाव का दूसरे चुनाव पर असर नहीं पड़ता। हर चुनाव पहले के चुनाव से अलग होता है। तब भी अलग होता है जब हर चुनाव एक ही पार्टी जीत रही होती है। विधानसभा का असर न तो लोकसभा पर पड़ता है और न लोकसभा का विधानसभा पर। एक बात कही जाती है कि जो पार्टी लोकसभा जीत कर आती है वो आस पास के कुछ चुनाव जीत लेती है। खासकर उपचुनाव। लेकिन लोकसभा के तुरंत बाद यूपी और बिहार के उपचुनावों को याद कीजिए। बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। उतने में ही लोगों ने कह दिया कि मोदी लहर समाप्त हो गई है। फिर कुछ समय बाद उसी बिहार के उपचुनावों में बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा रहा तो अब नीतीश मानने को तैयार नहीं हुए कि वे हार गए हैं।

हर जीत अपने आप में अलग होती है। मैं समझना चाहता हूं कि प्रधानमंत्री मोदी के लिए बिहार को क्यों इतना बड़ा मानक बनाया जा रहा है। मान लीजिए बीजेपी हार गई तो क्या उनसे 2014 का जनादेश छिन जाएगा। क्या वे इस्तीफा दे देंगे। क्या अभी वे प्रधानमंत्री निवास में मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश कुमार से कार्य व्यवहार नहीं करते हैं। करते ही हैं। कोई तो बताये कि क्या होगा। कई दिनों से सोच रहा हूं कि अगर बीजेपी हार गई तो क्या होगा और जीत गई तो क्या हो जाएगा।

राजनीति के अंतिम प्रोफेसर हो चुके बड़े पत्रकारों की दलील है कि पार्टी के भीतर कोई ख़ेमा है जो हार का इंतज़ार कर रहा है। इस ख़ेमे का मानना है कि बिहार जीतने के बाद मोदी को नियंत्रित करना मुश्कि‍ल हो जाएगा। हारने के बाद ये लोग बोलना चालू करेंगे। मैं वाकई उन लोगों के बारे में जानना चाहता हूं जो बीजेपी में रहते हुए अब मोदी को नियंत्रित करने का प्लान कर रहे हैं। ऐसे साहसी और दिलचस्प लोगों से मिलने का अनुभव काफी रोमाचंक हो सकता है। बड़े पत्रकारों को इन बहादुरों का नाम और चेहरा कुछ तो बताना चाहिए। ये कौन हैं और किसके नेतृत्व में बीजेपी में मोदी और शाह की जोड़ी को चुनौती देने वाले हैं। क्या ये शत्रुध्न सिन्हा के नेतृत्व में आगे बढ़ने वाले हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि कभी मोदी और शाह युग का प्रभाव कमज़ोर नहीं होगा लेकिन वो बिहार हारते ही हो जाएगा इसकी कोई ठोस दलील तो सामने रखें। ऐसे क्यों कहा जा रहा है कि बिहार में हारते ही प्रधानमंत्री मोदी और अध्यक्ष अमित शाह इस्तीफा देकर नेपाल चले जाएंगे।

हार की चाह वालों को अगर अपनी काबिलियत पर भरोसा था तो दिल्ली चुनाव के बाद मौका क्यों गंवा दिया। दिल्ली में तो बीजेपी की लोकसभा में कांग्रेस से भी बुरी हार हुई थी। 70 में से मात्र तीन सीटें जीतने से ज़्यादा ठोस प्रमाण क्या हो सकता है कि मोदी लहर समाप्त हो चुकी है। मान लीजिए कि बिहार में बीजेपी जीत जाती है तो क्या पार्टी के भीतर मोदी विरोधी ख़ेमा कांग्रेस में शामिल हो जाएगा। अगर ऐसा ख़ेमा है तो जीतने के बाद मोदी और शाह की जोड़ी इनकी आरती क्यों उतारेगी। भाई आप हमारे ही साथ रहो बंगाल का चुनाव आ रहा है अब उसका इंतज़ार करो।

एक और दलील दी जा रही है कि राज्यसभा में बहुमत के लिए बिहार का चुनाव जीतना ज़रूरी है। राज्यसभा के गणित के हिसाब से बिहार जीतने के बाद भी 2016 तक बीजेपी को राज्यसभा में बहुमत नहीं मिलेगा। 2018 तक वो बहुमत के करीब पहुंचेगी। तब जब बीजेपी बिहार के बाद बंगाल और यूपी भी जीत ले। इस हिसाब से अगर केंद्र सरकार विधानसभा चुनावों की विजय यात्रा पर निकल जाए तो लौट कर दिल्ली आते आते 2019 आ जाएगा। क्या जनता में इस बात पर वोट मांगा जाएगा कि हम तो जी विधानसभा जीतने में लगे थे। भूल ही गए कि केंद्र में काम भी करना है। ज़ाहिर है राज्यसभा के लिए भी बिहार का चुनाव महत्वपूर्ण नहीं है।

राजनीतिक दलीलें बेतुकी होती जा रही है। मध्य प्रदेश में नगरपालिका चुनावों में जीत मिली तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लगा कि 2014 की मोदी लहर के बाद अब अगर कोई लहर है तो शिवराज लहर है। उन्होंने ऐलान ही कर दिया कि व्यापम कोई मुद्दा नहीं है। ऐसे बताने लगे जैसे व्यापम पर जनादेश आया हो। जैसे मध्य प्रदेश की जनता ने कहा हो कि कितना शानदार काम हुआ कि मेडिकल छात्रों की सीट पैसे लेकर बेच दी गई। जालसाज़ों के चक्कर में फंसकर नौजवान जेल चले गए। कुछ लोगों के मौत की ख़बरें भी आईं। वेल डन। हम आपको सपोर्ट करते हैं। जबकि उसी समय सुप्रीम कोर्ट से व्यापम को लेकर ख़बरें आती रहीं। हर दिन किसी नए केस के दर्ज होने की खबर आ जा रही है। एक आरोपी के पुराने टेबल की छानबीन की गई तो लाखों रुपये के नोट निकल आए।

व्यापम पर अगर जनादेश आ ही गया है तो मुख्यमंत्री सुप्रीम कोर्ट को लिख दें कि माननीय अदालत हमें जनादेश मिल गया, आप व्यापम पर सीबीआई का समय बर्बाद न होनें दे। व्यापम का केस उस जनता को वापस कर दें जिसने नगरपालिका में हमें भारी बहुमत दिया है। क्या कोई मुख्यमंत्री घोटाले के आरोपों को जनादेश से खारिज कर सकता है। क्या मुख्यमंत्री चौहान यह छूट अपने विरोधियों को भी देंगे। भोपाल गैस कांड के आरोपी एंडरसन को भगाने के बाद भी कांग्रेस जीती की नहीं।

जीत और हार के बाद राजनीति समाप्त नहीं होती। यह चलती रहती है। असली राजनेता होता है जो दोनों ही स्थितियों में नहीं रुकता है। विचित्र विश्लेषणकर्ता यह नहीं सोच रहे हैं कि अगर लालू नीतीश बिहार में हार गए तो उनकी राजनीति का क्या होगा। क्या उनके लिए ये चुनाव महत्वपूर्ण नहीं हैं। क्या राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण नहीं है। क्या राहुल गांधी का इम्तहान होने वाला है। प्रधानमंत्री होकर भी नरेंद्र मोदी बिहार मे कई रैलियां कर चुके हैं। उन पर तो 243 सीटों का भार है। राहुल गांधी पर तो 40 सीटों का ही भार है। इस हिसाब से तो राहुल गांधी को हर विधानसभा में बीस-बीस रैलियां और तीस-तीस पदयात्राएं करनी चाहिए। जो जीता हुआ है उस पर जीतने का दबाव है और जो हारा हुआ है उस जीतने का दबाव नहीं है, ये कौन सी राजनीतिक चर्चा है।

जब दिल्ली हारने के बाद प्रधानमंत्री के राजनैतिक हौसले पर कोई असर नहीं पड़ा तो बिहार के बाद क्या हो जाने वाला है। ठीक है बिहार से दिल्ली की तुलना नहीं की जा सकती लेकिन अपनी लहर की जवानी में किसी नौसिखिये नेता से हार जाना क्या कम सदमा है। अभी तक जितना देखा और जाना है प्रधानमंत्री हर चुनाव को गंभीरता से लड़ते हैं। ये उनकी अपनी फ़ितरत है। ठीक है कि व्यापम और ललित मोदी प्रकरण पर कुछ बोल नहीं पाए। ठीक है कि महंगाई पर कुछ नहीं बोल पा रहे हैं लेकिन इसके बाद भी वे जनता के बीच चले जाते हैं। जो बोलना होता है बोल आते हैं। यह बताता है कि नरेंद्र मोदी किस हद तक राजनीतिक प्राणी हैं। वे चौबीस घंटे राजनीति करते हैं। अगर वे नगरपालिका चुनाव पर ट्वीट कर सकते हैं तो राहुल गांधी को नगरपालिका चुनाव में जाकर पदयात्रा करनी चाहिए।

बेशक बिहार का चुनाव राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। हमें यह भी समझना चाहिए कि 2014 का जनादेश 2019 तक के लिए है। बिहार विधानसभा चुनाव तक के लिए नहीं है। राजनीतिक चर्चाकारों के लिए चुनाव किसी मेले से कम नहीं है। वे बिहार जीत कर लौटते ही ये लिखने लगेंगे कि बिहार आसान था, अब यूपी जीत कर दिखायेंगे। क्या मोदी लोकसभा में 70 सीटें जीतने की कामयाबी यूपी में दोहरा पाएंगे। हे मेरे बीजेपी के भीतर मोदी विरोधियों, वो ज़माना चला गया कि सेनापति तेलंगाना की सीमा पर युद्ध करने गया है और आप बग़ावत कर दिल्ली की सल्तनत पर कब्ज़ा कर लोगे। और कर भी लेंगे तो पत्रकारों के ज़रिये अपनी राजनीति मत करो।

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