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This Article is From Jul 21, 2015

व्यापमं, मीडिया और मध्य प्रदेश : चौथा भाग

Reported By Abhishek Sharma
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  • Updated:
    जुलाई 22, 2015 00:03 am IST
    • Published On जुलाई 21, 2015 23:55 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 22, 2015 00:03 am IST
मध्य प्रदेश में विधानसभा के कामकाज के पहले दिन हंगामा होता रहा। कई विधायक हंसते-खिलखिलाते एक दूसरे का विरोध कर रहे थे। दोनों तरफ यानी कांग्रेस और बीजेपी सब एक जैसे नजर आए। मुझे नहीं मालूम कि लोकतंत्र के मंदिरों में विरोध का मतलब क्या होता है? लेकिन आज की तस्वीरों से सिर्फ इतना समझ आया कि कुछ लोग सिर्फ कैमरों के लिए कुछ तस्वीरें देना चाहते थे। इस पूरे तमाशे में यही महसूस होता रहा कि कोई एक पल ठहरकर ये सोचने को तैयार नहीं है कि जो व्यापमं के सताए हुए हैं उनको विधायकों की ये नूराकुश्ती कैसा महसूस कराती है?

क्या कोई देखना नहीं चाहता कि जब कांग्रेस अपने विरोध को सिर्फ चंद पल के लिए दिखाती है और फिर सुन्न सी हो जाती है तो आम आदमी कैसा महसूस करता है? क्या बीजेपी के विधायक नहीं जानते कि जब वो हंसते हुए कैमरों पर कांग्रेस विरोधी नारे लगाते हैं तो उनकी नीयत पर सवाल उठते हैं। सवाल ये नहीं है कि हंसी-मजाक न हो। सवाल ये भी नहीं है कि विपक्षी और सत्ताधारी एक दूसरे के दोस्त क्यों है... बड़ा सवाल है जब इतनी मौतें हों और एक पीढ़ी के साथ पूरे तंत्र ने धोखा किया हो तो फिर उसमें नाटकीयता की कितनी गुंजाइश रहे। ये सब इसलिए लिखना पड़ रहा है, क्योंकि मध्य प्रदेश के जिस सिस्टम की हम लगातार बात कर रहे हैं उसमें विपक्ष से लेकर सत्ता और मीडिया सब घुले मिले नज़र आ रहे हैं।

व्यापम, मीडिया और वो ?
व्यापम में सबसे ज्यादा मुसीबत उस मीडिया की है जो बेचारा दो पाटों में पिस रहा है। एक तरफ उसकी आमदनी का सवाल है और दूसरी तरफ उस भरोसे का जो पाठक, दर्शक उस पर जताता है। बड़ा सवाल है कौन सा है ये मीडिया? और कौन सा पशोपेश है? इस सवाल के जवाब के लिए मैंने एक दो स्थानीय मीडिया मालिकों से बात की। जानना चाहा, व्यापमं के दौरान उन्होंने क्या लाइन लीं और कैसी हेडलाइन छापीं। छोटी-मोटी रिसर्च और उन मालिकों से हुई बात से साफ हो गया कि कैसे पूरा सरकारी तंत्र उस 'स्थानीय मीडिया' पर दबाव बनाए हुये है जो बिना सरकारी मदद के जिंदा नहीं रह सकता।

'स्थानीय मीडिया' में विपक्ष की तरफदारी वाली अगर एक खबर आ जाए तो जनसंपर्क विभाग का पूरा महकमा आंखें तरेरने लगता है। एक मालिक ने तो यहां तक कहा कि जनसंपर्क के बड़े-बड़े अफसरों को वो ये समझाने में लगे रहते हैं कि फलां ख़बर नहीं उतार सकते। कुछ स्थान तो विरोध को देना ही होगा। कुछ समय पुराना किस्सा है, मैंने अपनी आंखों से देखा था कि कैसे एक बड़े अफसर के केबिन में राज्य के एक स्थानीय अखबार की डमी छपने से पहले से पहुंची थी। वो अफसर खुद को हिंदी का जानकार मानते थे इसलिए अखबार में बड़े-बड़े गोले लगाकर फोन पर किसी को समझा भी रहे थे। मैं उस अखबार और अफसर का नाम लेना नहीं चाहता।

ये सब तो एक बानगी भर है उस सिस्टम की ही, जो कई सारे व्यापमों को राज्य में जन्म देता है। विरोध की आवाज़ें कहां जाएं अगर अफसर हेडलाइन तय करने लगें? मायूस जनता कहां जाए जब उसे विपक्ष सिर्फ कुछ नाटकीयता करता नज़र आए? और सबसे बड़ी बात जब सत्ता का सिस्टम अपने खिलाफ उठ रही हर आवाज़ को दबाने के लिए काम करने लगे तो फिर लोकतंत्र कहां जाए?

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