निःसंदेह, मैं असदुद्दीन ओवैसी की इस घोषणा से हैरान हूं कि वह 'भारत माता की जय' नहीं बोलेंगे, भले ही उनकी गरदन पर चाकू रख दिया जाए। उन्होंने ऐसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत के उस बयान के जवाब में कहा, जो संभवतः जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हाल ही में हुए देशद्रोह विवाद के कारण दिया गया, और जिसमें उन्होंने विश्वविद्यालयों से 'राष्ट्रविरोधी ताकतों को हटाने' की ज़रूरत बताई थी, और कहा था कि विद्यार्थियों के मन में राष्ट्रीयता और देशभक्ति की भावना का संचार करने के लिए उन्हें 'भारत माता की जय' कहना सिखाया जाना चाहिए।
यह मेरी सोच से भी परे है कि किसी को भी 'भारत माता की जय' से कोई समस्या हो सकती है। जेएनयू में मौजूद कुछ कम्युनिस्ट विचारक कुछ भी कहते रहें, भले ही कुछ शिक्षाविद कहते रहें कि भारत अब भी राष्ट्र के रूप में विकसित हो रहा है, सच्चाई यही है कि जो कोई भी भारत में पैदा हुआ, और यहां पला-बढ़ा है, उसे 'भारत माता की जय' कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए।
मुझे मालूम है, कम्युनिस्ट विचारधारा में राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता को प्रगतिशील नहीं समझा जाता है। जहां-जहां कम्युनिस्ट शासन रहा, राष्ट्रवादी ताकतों को क्रूरता से दबाया गया। उदाहरण के लिए, सोवियत संघ ने बहुत-सी राष्ट्रीयताओं को खत्म कर दिया, और सोवियत संघ नाम की नयी पहचान खड़ी कर दी। लेकिन सोवियत संघ का इतिहास गवाह है कि जब कम्युनिस्ट शासन कमज़ोर पड़ने लगा, सभी राष्ट्रीयताओं ने पहला मौका पाते ही खुद को आज़ाद घोषित कर दिया। कम्युनिज़्म के पतन के बाद आजकल पैन-इस्लामिज़्म ज़ोर पकड़े हुए है। वहाबियों के प्रभाव में अलकायदा और आईएस पैदा हुये जो देशों की सीमाओं में यकीन न रखते हुए इस्लाम का प्रचार करते हैं, लेकिन भारत में हालात अलग हैं। वहाबियों का भारत में कोई अस्तित्व नहीं है।
भारतीय इस्लाम दुनिया में सबसे ज़्यादा मिलजुलकर चलने वाला रहा है, और विदेशी कट्टरपंथियों को शांति तथा सह-अस्तित्व के कई पाठ पढ़ा सकता है। भारत में आज़ादी की लड़ाई के दौरान हिन्दुओं, मुस्लिमों, सिखों और ईसाइयों ने मिलकर संघर्ष किया, और 'भारत माता की जय' के नारे लगाए। जहां तक मुझे याद है, किसी मुस्लिम नेता ने कभी भी इस नारे पर कोई आपत्ति नहीं की। हां, 'वन्दे मातरम्' को लेकर आपत्तियां रही हैं, जिसे कुछ लोग धर्मनिरपेक्ष नहीं मानते, लेकिन 'भारत माता की जय' को लेकर कभी आपत्ति नहीं रही है।
ओवैसी का विवादों से हमेशा लगाव रहा है, और वह हमेशा ही गलत कारणों से सुर्खियों में बने रहते हैं। ऐसे उत्तेजित माहौल में, जहां सभी की देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न लग रहे हों, और बीजेपी व आरएसएस देशभक्ति के प्रमाणपत्र बांट रहे हों, इस तरह के बयान माहौल को ज़्यादा बिगाड़ देते हैं। लेकिन ओवैसी किसी और ही मिट्टी के बने हैं। उन्होंने वर्ष 2012 में असम में सांप्रदायिक हिंसा के बाद भी इसी तरह का विस्फोटक बयान दिया था। उन्होंने उस वक्त चेताया था कि 'मुस्लिम युवाओं में कट्टरवाद की तीसरी लहर दौड़ पड़ेगी...।'
बाद में, उन्होंने पहली बार हैदराबाद से बाहर निकलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया। उनकी पार्टी एमआईएम ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाग लिया, और दो सीटें जीतीं। उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान भी छह सीमावर्ती मुस्लिम-बहुल इलाकों से अपने प्रत्याशी खड़े किए, लेकिन सभी छह सीटों पर उनके उम्मीदवार हार गए।
उनके आलोचक उन पर बीजेपी से ढकी-छिपी सांठगांठ के आरोप लगाते रहे हैं, लेकिन इस आरोप की पुष्टि करने लायक कोई सबूत कभी सामने नहीं आया। बिहार में चुनाव लड़ने के उनके फैसले को मुस्लिम वोट बांटने के सोचे-समझे हथकंडे के रूप में देखा गया, जिससे आखिरकार बीजेपी को फायदा होता। आज इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके उत्तेजक बयानों की आरएसएस परिवार की ओर से भी उतनी ही तीखी और विरोधी प्रतिक्रिया सामने आती है, और समाज का ध्रुवीकरण हो जाता है।
ओवैसी पर अपने इस कार्ड को बहुत ज़्यादा देर तक खेलने से होने वाले नुकसान का खतरा भी मंडरा रहा है। याद कीजिए सैयद शहाबुद्दीन को, जो ओवैसी की ही तरह विद्वान व्यक्ति थे। वह आईएफएस अफसर थे। जब '80 के दशक में आरएसएस ने राममंदिर आंदोलन शुरू किया, तब उन्होंने ऑल इंडिया बाबरी मस्जिद कॉन्फ्रेंस की स्थापना की, लेकिन दिसंबर, 1986 में उन्होंने अपनी हद पार कर दी, जब उन्होंने वह गलती की, जो किसी भी मुस्लिम राजनेता की इस देश में की गई सबसे बड़ी गलतियों में से एक साबित हुई। उन्होंने और उनकी टीम ने गणतंत्र दिवस समारोह के बहिष्कार का आह्वान किया, जिससे आरएसएस को बैठे-बिठाए मुस्लिमों को राष्ट्र-विरोधी घोषित कर देने का मौका मिला।
यही वह वक्त था, जब आरएसएस ने धर्मनिरपेक्षता को 'गलत' ठहराने का अभियान शुरू किया, और बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने नया शब्द 'छद्म-धर्मनिरपेक्षता' दिया। इसी वक्त सभी धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने एक गलती की। नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता के साये में चलते-चलते वे अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता की आलोचना करना भूल गए, जबकि बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता की जमकर भर्त्सना की। आरएसएस इस विचार का प्रचार करने में कामयाब रही कि धर्मनिरपेक्षता और कुछ नहीं, 'अल्पसंख्यक-वाद' ही है। मेरे बहुत-से उत्साही धर्मनिरपेक्ष मित्र रातोंरात आरएसएस के साथ हो लिए। शहाबुद्दीन जैसे लोगों ने आग में घी डालने का काम किया। वीपी सिंह जैसे नेताओं ने सिद्धांतों को दरकिनार कर दिया, और शहाबुद्दीन से इलाहाबाद उपचुनाव में उनके लिए प्रचार करने को कहा, ताकि मुस्लिम वोट बटोरे जा सकें, और आरिफ मोहम्मद खान को संसदीय क्षेत्र में आने से भी मना कर दिया। आरिफ खान ने शाहबानो के हक में आए सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का स्वागत किया था, जिसमें एक बड़े मुस्लिम तबके के विरोध के बावजूद शाहबानो को तलाक के बाद मुआवज़े का हकदार बताया गया था। उस वक्त जितना ज़्यादा शहाबुद्दीन तथा उनके जैसे लोगों ने भड़काऊ बयान दिए, हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर समाज के ध्रुवीकरण में आरएसएस को उतनी ही मदद मिली।
बीते कुछ सालों में इसी तरह की मिलती-जुलती भूमिका जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी ने भी निभाई। अपनी राजनैतिक सहूलियतों के हिसाब से वह फतवे जारी करते रहे हैं, और हर राजनैतिक दल ने उन्हें अपने पक्ष में करने की कोशिश की। वर्ष 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान इमाम ने फतवा दिया था कि मुस्लिमों को आम आदमी पार्टी (आप) को वोट देना चाहिए। 'आप' ने खुले तौर पर इस फतवे के लिए इमाम की निंदा की थी, और फिर पार्टी की अभूतपूर्व जीत ने भी इस भ्रम को तोड़ डाला कि धर्मगुरुओं के कुछ कहने भर से चुनावी नतीजे प्रभावित हो जाते हैं।
ओवैसी लंदन में पढ़े हैं। अंग्रेज़ी का ज्ञान खासा है, और आधुनिक मूल्यों से भी भली-भांति परिचित हैं। इसमें भी कोई खराबी नहीं, अगर वह देशभर के मुस्लिमों की इकलौती आवाज़ बनने का ख्वाब रखते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें उत्तेजक और प्रतिगामी रुख नहीं अपनाना चाहिए। भारतीय मतदाता जानकार हैं, ज्ञानवान हैं। मुस्लिमों में भी ऐसी सोच पिछले दिन पनपी है कि उनके अपने नेताओं ने ही उन्हें निराश किया है। सो, अगर अब ओवैसी मुस्लिमों के नेता के रूप में उभरना चाहते हैं, उन्हें शहाबुद्दीन या इमाम जैसा रास्ता पकड़ने की ज़रूरत नहीं है। मैं ये मानने को तैयार नहीं कि वो अपने बयानो का अर्थ नहीं समझते। उनके पास इस बात को समझने के लिए पर्याप्त राजनैतिक समझ है। फिर भी अगर वो ऐसा भड़काऊ बयान देते हैं तो फिर ये क्यों न माना जाये कि वो किसी बड़ी योजना पर काम कर रहे हैं, जिसका अभी उजागर होना बाक़ी है।
(आशुतोष जनवरी, 2014 में आम आदमी पार्टी में शामिल हुए थे)
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This Article is From Mar 16, 2016
'भारत माता की जय' को लेकर कुछ ज़्यादा ही बोल गए असदुद्दीन ओवैसी
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