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This Article is From May 24, 2018

लोकसभा, 13 राज्यों में 'एक साल, एक चुनाव' - कानूनी अड़चनें...

Virag Gupta
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 25, 2018 09:47 am IST
    • Published On मई 24, 2018 17:03 pm IST
    • Last Updated On मई 25, 2018 09:47 am IST
प्रधानमंत्री मोदी का ‘एक देश एक चुनाव’ का विजन सफल नहीं होने पर उसको ‘एक साल एक चुनाव’में बदलने की तैयारी है. विधि आयोग ने इस बारे में 17 अप्रैल 2018 को पब्लिक नोटिस जारी करके सभी पक्षों से राय मांगी थी. विधि आयोग द्वारा 24 अप्रैल को लिखे पत्र के जवाब में चुनाव आयोग के पूर्व विधि सलाहकार एसके मेन्दिरत्ता ने अनेक कानूनी बदलावों का मसौदा पेश किया है.

कर्नाटक में विपक्षी नेताओं के महाकुम्भ के बाद लोकसभा के आम चुनावों की आहट तेज हो गई है. दिसम्बर 2018 से फरवरी 2020 के दौरान राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, तेलंगाना, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली समेत देश के 13 राज्यों में विधानसभा का कार्यकाल खत्म हो रहा है. इन बदलावों के बाद क्या 13 राज्यों और लोकसभा के आम चुनाव एक साथ हो सकेंगे.

विधानसभा के चुनावों के बाद गठन में विलम्ब का अजब प्रस्ताव
विधि आयोग के अलावा चुनाव आयोग के पूर्व सलाहकार के अनुसार जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-14 और 15 में बदलाव करके  विधानसभा के चुनाव 10 महीने पहले भी कराए जा सकते हैं. वर्तमान में कानून की धारा 73 के तहत विधानसभा की अवधि खत्म होने के 6 महीने के भीतर ही चुनाव कराए जा सकते हैं. इन सुझावों को यदि मान लिया गया तो चुनाव होने के बावजूद नई विधानसभा और नई सरकार का गठन कई महीने के बाद होगा. इस दौरान पुरानी सरकार बकाया समय में जनादेश के बगैर नीतिगत निर्णय और बड़े फैसले कैसे करेगी? विधानसभा के गठन की अधिसूचना जारी होने के पहले विधायक दल-बदल कानून के दायरे में नहीं आएंगे तो फिर उनकी नीलामी को कैसे रोका जा सकेगा? एक साथ चुनाव कराने से अनेक फायदे हैं जिसके लिए कानूनों में बदलाव होना ही चाहिए पर राजनीतिक दलों की रिजॉर्ट संस्कृति में बदलाव के बगैर नई व्यवस्था कैसे सफल होगी?  

‘एक देश एक चुनाव’का नारा मोदी से पुराना है
विश्व के अनेक देशों यथा दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन और बेल्जियम में एक साथ चुनावों का नियम है. भारत में 1967 तक लोकसभा और राज्यों के चुनाव एक साथ होते थे जिसके बाद अनेक राज्यों में राष्ट्रपति शासन और विधानसभा भंग होने से यह सिलसिला खत्म हो गया. इसके पश्चात चुनाव आयोग ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के लिए 1983 में विस्तृत मसौदा पेश किया जिसको विधि आयोग द्वारा 1999 में पेश 170वीं रिपोर्ट तथा 2015 में संसद की स्थायी समिति की 79वीं रिपोर्ट में स्वीकार किया गया. पीएम मोदी द्वारा इस विजन की घोषणा के बाद नीति आयोग ने 2017 में इस बारे में विस्तृत मसौदा जारी किया. दुर्भाग्य यह है कि पिछले 34 साल से एक साथ चुनावों की जद्दोजहद के बावजूद इस बारे में कानूनी बदलावों पर सर्वसम्मति नहीं बन पाई.

जन-प्रतिनिधित्व कानून के साथ संविधान में करने होंगे बदलाव
विधि आयोग के अनुसार इसे सफल बनाने के लिए संविधान और कानून में अनेक बदलाव करने होंगे. संविधान के अनुच्छेद-83 (2) और 172 (1) में लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल 5 साल निर्धारित है, जिनमें बदलाव के बगैर एक साथ चुनाव सम्भव नहीं है. मध्यावधि चुनाव होने की दशा में विधानसभा का कार्यकाल बकाया समय के लिए ही हो जिससे अगला चुनाव लोकसभा के साथ हो सके, ऐसा प्रस्ताव विधि आयोग ने दिया है. विधि आयोग ने लोकसभा तथा राज्यों के रुल ऑफ़ प्रोसिजर एंड कनडक्ट ऑफ़ बिजनेस में बदलाव के साथ अनुच्छेद-356 में भी संशोधन की सिफारिश की है, जिसके तहत राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है.

राज्यों की सहमति न मिलने पर क्या मनी बिल के तौर पर होगा कानूनों में बदलाव
विधि आयोग द्वारा की गई सिफारिशों के अनुसार संविधान के अनेक प्रावधानों में बदलाव के लिए अनुच्छेद-328 के तहत राज्यों का अनुमोदन लेना पड़ सकता है. इसके अलावा संविधान संशोधन के लिए राज्यसभा का भी अनुमोदन चाहिए जहां सत्तारूढ़ भाजपा के पास अभी बहुमत नहीं है. कर्नाटक में कुमारस्वामी सरकार के गठन में विपक्षी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के जमावड़े के बाद एक साथ चुनावों के लिए संविधान संशोधन पर मोदी के प्रस्ताव को संसद में कैसे स्वीकृति मिलेगी? आधार की तर्ज पर क्या एक साथ चुनावों के बारे में भी, मनी बिल के माध्यम से संविधान में संशोधन की जुगत लगाई जाएगी?

दल-बदल कानून में बदलाव से अराजकता बढ़ेगी
विधि आयोग की रिपोर्ट के अनुसार एक साथ चुनाव कराने के लिए दल-बदल कानून में बदलाव करके इसे संविधान की दसवीं अनुसूची के दायरे से बाहर लाना पड़ सकता है. विधि आयोग ने व्हिप और अविश्वास प्रस्ताव के नियमों में बदलाव करने की बात कही है, जिससे विधानसभा भंग किए बगैर गठबंधन सरकार बनाई जा सके. कर्नाटक के मामले में सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख अटार्नी जनरल ने यह कहा था कि शपथ-ग्रहण के पहले विधायकों पर दल-बदल विरोधी कानून लागू नहीं होता. इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कहा कि ऐसा करने से विधायकों की खरीद-फरोख्त के साथ सूटकेस संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा. एक साथ चुनावों के लिए यदि दल-बदल कानून में बदलाव किया गया तो बंधुआ विधायक दलों के बंधन से मुक्त होकर सत्ता की नीलामी में बेखौफ भाग तो ले सकेंगे, पर लोकतंत्र का हश्र क्या होगा?


विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...


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