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This Article is From Sep 18, 2015

निधि का नोट : मूर्ति विसर्जन की परम्परा में बदलाव की ज़रूरत...

Nidhi Kulpati
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 18, 2015 16:03 pm IST
    • Published On सितंबर 18, 2015 15:55 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 18, 2015 16:03 pm IST
एक वक्त गणेश चतुर्थी एक दिन का पर्व हुआ करता था लेकिन अब 11 दिन तक चलने वाले गणेशोत्सव की रौनक अब सिर्फ महाराष्ट्र तक ही सीमित नही रह गई है। आंध्र प्रदेश समेत देश भर में इसे मनाया जाने लगा है, महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में अंग्रेज़ों के खिलाफ हिन्दुओ को एकजुट करने के लिए गणेश के इस पर्व को यह रूप दिया था। अंग्रेज तो चले गये लेकिन यह पर्व एक उत्सव के तौर पर लोगो के जहन में समा गया, मुम्बई में जीवन 11 दिन तक गणेशमय रहता है। लोग इसके रंग और रौनक में विलीन हो जाते हैं, ख़ासकर वो तबका जो रोजमर्रा की परेशानियो से दबा रहता है।

गणेश की मूर्ति खरीद कर स्थापित करना और फिर इसका विसर्जन, यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। बाजार में गणेश की सुन्दर छोटी-बड़ी प्रतिमाऐं, ज्यादातर प्लास्टर ऑफ पैरिस (pop)से बनी हुई मिल रही है। इनमें  आभूषण प्लासटिक से बने हुए और पेन्ट से रंगे होते है जिनमें घातक केमिकल्स मिले होते है। मूर्तियों की चमक और सुन्दरता इस कदर लुभावनी होती है कि उनका बाजार लगातार बढ़ता जा रहा है। विघ्नहर्ता को घर ला कर मनुष्य अपनी परेशानियो का अंत करने की कोशिश में लग जाता है लेकिन इस रौनक में पर्यावरण की खासी अनदेखी हो रही है।

सरकार और नागरिक की जिम्मेदारी

हमारे देश में नदियों का खासा महत्व है, गंगा जैसी नदियों को मां माना जाता है लेकिन विसर्जन की वजह से इन्हें काफी नुकसान हो रहा है। ग्लोबल वार्मिग के खतरों के बीच बड़ी मात्रा में मिट्टी की जगह प्लास्टर ऑफ पैरिस, कैमिकल्स, धातू से बनी मूर्तियां पानी में जहर सा घोल देती है। National green tribunal ने भी यमुना में पीओपी से बनी मूर्तियों के विसर्जन पर रोक लगा दी है लेकिन क्या बिना सख्ती के इस पर अमल हो पाएगा। सरकार क्यों सख्त कानून बनाने से बचती हैं? पूजा की शुद्धता और पर्यावरण को सहेजने के लिए क्या आम नागरिक भी बाध्य नही है?

हमारा धर्म एक सतत चलने वाले जीवन्त प्रवाह की तरह है जो सदियों से बदलाव को अपने अंदर समाहिता किए जा रहा है। दुर्गापूजा, नवरात्री, कावड़ियों से हमारे त्यौहारों की रौनक हमेशा बनी रहे लेकिन क्या हम अपने नज़रिये में बदलाव ला कर विसर्जन की परम्परा में कुछ सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं?

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