ल्हासा के गौगर एयरपोर्ट पर उतरते ही पास के ही एक होटल में लंच के पहले हमें हाई अल्टीट्यूड सिकनेस से बचने की दवा दी गई। 10 एमएल की दवा की छोटी सा शीशी पीने में मीठी शर्बत सी लगी। यह रेड ब्लड सेल्स को बढ़ाने के लिए होता है, ताकि अत्यधिक ऊंचाई वाले इलाके में चक्कर, कमजोरी न आए।
तिब्बत समुद्रतल से औसतन करीब चार हजार मीटर की ऊंचाई पर है। ऐसे में यहां उतरते ही आपको वैसा ही महसूस होता है, जैसा लेह लद्दाख के इलाके में। लंच के बाद हमारी पहली मंजिल थी शनन प्रीफेक्चर का एक मॉडल गांव। हम जैसे ही बस में आगे बढ़े खूबसूरत नजारों ने हमें अभीभूत कर लिया। सड़क के दोनों ओर के ऊंचे पहाड़ और बीच में पड़ने वाली छोटी-बड़ी झीलों को देखते हुए रास्ते का पता ही नहीं चला।
चीन की बनाई सड़कें काफी उम्दा है, जिस पर गाड़ियां सरपट दौड़ती हैं। करीब एक घंटे की ड्राइव के बाद हमारी बस मॉडल गांव डेजी के मुख्य दरवाजे पर थी। पहली नजर में लगा ही नहीं कि यह कोई गांव है। किसी हाउसिंग सोसाइटी की तरह सजा-संवरा है ये। मुख्य दरवाजे से ही सोलर लैंप पोस्ट का सिलसिला शुरू हो जाता है। धूप यहां तीखी होती है, जिसका भरपूर इस्तेमाल ऊंर्जा संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए होता है।
एक घर के आहाते में सोलर स्टोव नजर आया। यह कुछ ऐसा है, जैसा डिश एंटेना होता है। सूरज की किरणों को परावर्तित कर एक जगह इकठ्ठा किया जाता है और उसके बीचों-बीच केतली या देगची जैसा कोई बर्तन रखा जाता है। पानी गर्म करने से लेकर अंडा उबालने तक, हर काम इससे लिया जाता है।
टीवी, कैमरा के साथ पत्रकारों के दल को देख मानो पूरा गांव इकठ्ठा हो गया। भाषा की कठिनाई के चलते सीधे गांव वालों से कोई बात तो नहीं हो पा रही थी, लेकिन एक-दूसरे के हावभाव से संवाद हो रहा था। मैंडरिन और अंग्रेजी भाषा के दुभाषिए के जरिये जितना हम जान पाए, वह ये कि चीनी सरकार ने हर सुविधा से संपन्न इस तरह के गांवों का निर्माण किया है। इसमें मकान बनाने के लिए सरकारी अनुमान से लेकर प्राथमिक स्कूल बनाना तक शामिल है। कोशिश किसानों को एक ऐसी जिंदगी देना है, जिससे वे ज्यादा से ज्यादा खेतीबाड़ी पर ध्यान दें।
यहां जौ और गेहूँ की फसल काफी होती है और उन्हें इसके लिए समुचित बीज से लेकर खेती के तमाम औजार मुहैया कराए जाते हैं। इसमें छोटे ट्रैक्टर ट्रॉली तक शामिल हैं। गांव में हमें एक किसान देवा के घर में मेहमानवाजी का मौका मिला। परंपरागत तिब्बती खाने में खूब सारा फल और नमकीन चाय परोसी गई।
गांव में दो तरह के किसान हैं। एक जिनके पास अपनी जमीन और दूसरे जो खेतिहर मजदूर हैं। इस गांव में 66 परिवार रहते हैं। कुल आबादी महज 268 लोगों की है। पहले ये अपने माल-मवेशियों के साथ एक ही छत के नीचे रहते थे, लेकिन अब स्थिति अलग है। हर किसी के पास अपना सुंदर सा घर है। ये तिब्बती भवन निर्माण कला का नमूना है, जिस पर पारंपरिक चित्रकारी और सजावट की गई है।
हम जब गांव में पहुंचे, तो दो महिलाएं जो कि करीब 55-60 साल की थीं, खास बने पंखे के सहारे गेहूं और भूसे को अलग कर रहीं थीं। एक नवयुवक उसे बोरे में भरकर ट्रैक्टर पर लाद रहा था। फसल अच्छी हुई है, सो गांव वाले खुश हैं। पहले ऐसा नहीं होता था। फसल मारी जाती थी, तो फाकाकशी की हालत होती थी। लेकिन सरकारी मदद से वे अकाल जैसी हालत से निपटने में कामयाब रहे हैं।
दरअसल, इस तरह के गांव में ले जाने के पीछे का मकसद ही यह दिखाना था कि चीनी मदद से कैसे तिब्बत के किसान तरक्की और खुशहाली के रास्ते पर हैं। जहां परंपरागत गांवों में किसानों की हालत अभी भी गरीबी और तंगहाली में बीतती है, चीन इन माडल गांवों के जरिये तिब्बत की तरक्की की बात करता है। शैनन प्रीफेक्चर के सूचना विभाग के मुताबिक यहां के कुल गांवों के एक-तिहाई हिस्से को मॉडल विलेज में बदला जा चुका है। सरकारी अधिकारी इसे तिब्बत के विकास में सहायक बताते हैं।
मॉडल विलेज डेजी के किंडरगार्टन में 19 बच्चे पढ़ते हैं। छुट्टी का समय है, गांव के लोग अपने बच्चों को छोटे-छोटे मेटाडोर में लेकर जाने के लिए इकठ्ठा हो जाते हैं। छोटे मेटाडोर उनके लिए किसी छोटी कार से कम नहीं! कुल मिलाकर चीन ने तिब्बत के विकास का जो खाका खींचा है, आम तिब्बतियों की जिदंगी उसी के आसपास घूम रही है। पहले की तंगहाली और अब की तरक्की के बीच अपने अंदर के उस भाव के प्रति वे खुद ही उदासीन नजर आते हैं, जिसे लेकर एक तबका अभी भी संघर्षशील है। तिब्बत में एनडीटीवी इंडिया का सफरनामा जारी है...