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This Article is From Oct 03, 2018

लखनऊ पुलिस की गोली से मरे विवेक तिवारी की बीवी को क्यों बना रहे 'विलेन' ?

Navneet Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 03, 2018 13:18 pm IST
    • Published On अक्टूबर 03, 2018 12:35 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 03, 2018 13:18 pm IST
1999 में हुई कारगिल की लड़ाई में अंबाला(हरियाणा) के हवलदार सुखविंदर सिंह भी शहीद हुए थे. कारगिल शहीदों को पेट्रोल पंप देने का सरकार ने वादा किया था, मगर दो दशक बाद भी बेवा बीवी जसबीर कौर को पेट्रोल पंप नहीं मिल सका है. कुछ शहीदों को सरकार ने जरूर पेट्रोल पंप और गैस एजेंसी के लाइसेंस दिए मगर , जसबीर जैसी कई विधवाएं आज भी चक्कर लगा रहीं हैं. अब सोचिए, जिस देश में कारगिल शहीदों की बेवाओं को 20 साल चक्कर काटने के बाद भी सुविधाएं न मिलतीं हों, उस देश में लखनऊ की सड़क पर पुलिस की गोली से मारे गए विवेक तिवारी (Vivek Tiwari murder) की विधवा बीवी कल्पना पर सिर्फ इसलिए कीचड़ उछाला जा रहा है कि उन्होंने इतनी जल्दी नौकरी और मुआवज़े की बात क्यों कर डाली. क्या रक्षक की जगह भक्षक बनी खाकी के हाथों पति के कत्ल पर जीविकोपार्जन के लिए मुआवजे और भविष्य की सुरक्षा के लिए नौकरी मांगना गुनाह है. विवेक तिवारी की कोई स्वाभाविक मौत नहीं हुई बल्कि वह उस पुलिस के हाथों मरे, जिस पर जनता की जिंदगी बचाने का जिम्मा है. 

मैं दाद देता हूं कल्पना की समझदारी की और भावनाओं में बहने की बजाय हालात के अनुकूल निर्णय लेने के लिए. संकट की इस घड़ी में इस महिला की परिपक्वता का मैं कायल हूं. जो इस देश की सिस्टम में समाई सड़ांध को अच्छी तरह से समझती हैं. शायद, यही वजह रही कि कल्पना ने पहले अपने और बेटियों के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए पहल करना ज्यादा जरूरी समझा.  मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात के बाद कल्पना तिवारी ने बस इतना कहा, "सरकार पर भरोसा बढ़ गया है." बस इसी एक लफ्ज को सोशल मीडिया के कुछ 'शूरवीरों' ने लपक लिया और फिर मोबाइल की कीपैड पर अंगुलियों से चार-चार लाइन टाइप कर जुट गए निशाना साधने में और लगे लांछन लगाने . कोई फेसबुक और ट्विटर पर लाश का सौदा करने की बात कह रहा तो कोई सरकार के आगे घुटने टेकने की बात कहने लगा. कोई पैसे और नौकरी के लिए पति के कल्त पर इंसाफ की लड़ाई को कमजोर करने का भी आरोप लगाने लगा. 

गाल बजाकर और ड्राइंग रूम में बैठे-बैठे किसी के खिलाफ भी कुछ लिखा-पढ़ा जा सकता है, कुछ भी ज्ञान बघारा जा सकता है,  मगर जब किसी के सिर से पति का साया उठ जाए और दो छोटी-छोटी बेटियों की ज़िम्मेदारी सिर पर हो, तो उस महिला के सामने आपकी ओर से थोपी कथित नैतिकताएं  बेमानी होती हैं.हालात के आगे बेबस ऐसी महिला के सामने भूख और भविष्य की चिंता होती है. गाल बजाना आसान है और दुखों के पहाड़ से दबी किसी महिला की आपबीती समझना मुश्किल.

 जिस ढंग से पति की हत्या के गम में डूबी होने के बावजूद मीडिया के सामने कल्पना ने खुद को पूरी तरह संभाले रखा और  सरकार तथा सिस्टम से तीखे सवाल किए. उसमें कल्पना की परिपक्कता और समझदारी झलकती है. कल्पना जानती हैं कि सरकार और जनता जब सरहद पर जान देने वाले रणबांकुरों की शहादत दो दिन में भूल जाती है तो फिर विवेक तिवारी तो कोई शहीद नहीं , बल्कि सिस्टम के क़त्ल का शिकार एक आम इंसान ही हैं. जब इतने दबाव के बाद किसी तरह मुख्यमंत्री से मिलने का वक्त मिला, और किसी तरह 10 से 25 और फिर करीब 40 लाख रुपये तक मुआवजे की बात पहुंची और नगर निगम में नौकरी पर भी सरकार राज़ी हुई तो फिर इस बने-बनाए माहौल के बीच सुविधाओं को ग्रहण करने में क्या क़ुसूर. इस देश में कितनी भी बड़ी घटना हो जाए, हफ्ते-दस दिन में लोग भूल जाते हैं. पीड़ितों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया जाता है.

सवाल दो मासूम बेटियों के भविष्य का है. सोशल मीडिया पर विवेक की पत्नी पर कीचड़ उछालने वाले सोशल मीडिया के शूरवीरों से पूछना चाहता हूं, अगर पुलिस के हाथों पति गवां देने पर एक मां अपनी बेटियों( देखिए , तस्वीर में उनकी मासूमियत) के भविष्य ख़ातिर ऐसे फैसले नहीं लेगी तो क्या आप आजीवन परिवार का खर्च उठाएंगे.

यह सोचकर हैरानी होती है कि जैसे सोशल मीडिया पर हम लोग बिन पेंदी के लोटे हैं, जिधर मन किया उधर ही लुढ़क गए. घटना होने के बाद   चिल्लाकर कहेंगे कि न्याय नहीं मिल रहा...मुआवज़ा नहीं मिल रहा और जब पीड़ित पर तरस खाकर या यूं कहें कि फजीहत से बचने के लिए सरकार देने को तैयार भी होगी तो इसे सौदेबाजी करार देने लगेंगे. कहने लगेंगे कि-देखी महिला कितनी लालची है, पति की मौत पर सूतक में भी सीएम से मिलकर मुआवज़ा/ नौकरी मांग रही.

और हां सुनिए. विवेक तिवारी की बीवी व बेटियों को सरकार ने कोई ख़ैरात नहीं बांटी है. यह उनका हक़ है. सड़क पर सुरक्षा देना सरकार का प्रथम कर्तव्य है. इसमें फेल होने पर मुआवजा तो भरना ही पड़ेगा.अगर राज्य की पुलिस 50 लाख सालाना(जैसा की चर्चा है) कमाने वाले व्यक्ति को गोली मारकर उसके परिवार से छीन लेती है और बदले में सरकार 25 या 40  लाख का मुआवज़ा दे तो इसे अहसान नहीं कहा जा सकता. 

और हां इसे लाश की सौदेबाजी मत बोलिए. यह अफवाह भी मत फैलाइए कि सुविधाओं की चाह में कल्पना केस कमजोर करने को तैयार है.  कल्पना ने मुख्यमंत्री से मुलाकात के बाद यह क़तई नहीं कहा है कि वह मुआवज़े/ नौकरी की शर्त पर किसी तरह के समझौते को तैयार हैं या पुलिस को क्लीन चिट देतीं हैं. कल्पना के सिर्फ इतना कह देने-सरकार पर पूरा भरोसा है....इस लफ़्ज़ की मनमानी व्याख्या मत करिए. देख रहा हूं, कुछ लोग अपार दुख में डूबी इस महिला को इस मामले में विलेन बनाने में जुटे हैं, जो बहुत दुखद है.इतने अपार कष्ट में भी ख़ुद को कल्पना ने क्यों और कैसे संभाला है, वही जानती होंगी. और हां, प्लीज अपनी राजनीति के लिए पति की मौत के अपार गम में डूबी महिला को मोहरा मत बनाइए. कल जब कल्पना यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार को कोस रहीं थीं तो आप तालियां बजा रहे थे, और सिर्फ सरकार पर भरोसे की बात कह दीं तो आप इतना बुरा मान गए... 

(नवनीत मिश्र Khabar.NDTV.com में चीफ सब एडिटर हैं...)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

 

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