कभी आपने अंदाजा लगाया है कि आम लोग सबसे अधिक गाने किस गायक के गुनगुनाते हैं. जरा ध्यान देकर देखें...हिन्दी फिल्मी संगीत के प्रेमियों में अधिक दीवाने मोहम्मद रफी के ही मिलेंगे. हिन्दी सिनेमा में एक से एक नायाब गायक हुए. सभी के चाहने वाले बड़ी तादाद में हैं. लेकिन मन में बसकर जुबान पर चढ़ने वाली धुनें वही होती हैं जिनका कम्पोजीशन उम्दा होता है और गायक जिन्हें ऐसा गाता है कि सुनने वाले के दिल में उतर जाए. वास्तव में मोहम्मद रफी दिल से गाते थे. खरज के निचले सुरों से लेकर तार सप्तक तक उनके सुरों का तेज प्रखर बना रहता था. उनकी गायकी में गजब की रेंज थी.
फिल्म 'चित्रलेखा' का साहिर लुधियानवी का लिखा और रोशन का संगीतबद्ध गीत 'मन रे तू काहे न धीर धरे....' शांति और विरक्ति के भाव में ले जाने वाला गीत है. इसमें रफी की गायकी की कोमलता उसके मनोभावों को परिपूर्णता से व्यक्त करती है. उनके सुरों में बिछोह की पीड़ा फिल्म 'बंबई का बाबू' के गीत में सहज महसूस की जा सकती है. मजरूह सुल्तानपुरी के इस गीत 'साथी न कोई मंजिल...' का संगीत निर्देशन सचिनदेव बर्मन ने किया था. एक तरफ इस तरह के गीत हैं तो दूसरी तरफ 'ओ दुनिया के रखवाले...' (बैजू बांवरा) जैसे गीत हैं जिनमें मोहम्मद रफी मंद्र सप्तक से तार सप्तक के उच्च सुरों पर पहुंचकर श्रोताओं को आश्चर्यचकित करते हैं. बैजू बांवरा के इस गीत की रचना शकील बदांयुनी ने की थी और संगीत नौशाद ने दिया था. इससे और आगे चलें तो 'बदन पे सितारे लपेटे हुए...' (प्रिंस) और 'आजा-आजा मैं हूं प्यार तेरा' (तीसरी मंजिल) जैसे गीत आ जाते हैं जो रॉक संगीत पर आधारित हैं.
वास्तव में गीत वही गुनगुनाए जाते हैं जो सुनने वालों को याद रह जाते हैं. याद वही धुनें होती हैं जो श्रोताओं के मन में पैठ बना लेती हैं. धुनों के लिए निश्चित रूप से संगीतकार सबसे अहम होता है लेकिन इसके साथ गायक की अहमियत भी कम नहीं होती. संगीतकार कितना की मधुर संगीत दे दे यदि गायक उसमें उसकी जरूरत के मुताबिक सुर न दे तो गीत बेहतर नहीं बन सकता. मोहम्मद रफी की गायकी में खासियत थी कि वे सुरों के साथ उसके भावों को भी गहरे तक पकड़कर चलते थे. यही कारण है कि कई फिल्में, जिनकी कहानी और फिल्मांकन वगैरह कमजोर होने के बावजूद सिर्फ इसलिए हिट हुईं क्योंकि उनके मोहम्मद रफी के गाए हुए गीत मधुर थे. लोग गीतों का आनंद लेने के लिए ही फिल्में देखते रहे.
यहां एक वाकया सुनाता चलता हूं. करीब दस साल पहले मेरा कुछ समय हैदराबाद में बीता. वहां अक्सर सिटी बस से आना-जाना होता था. एक दिन बस में बाजू की सीट पर बैठे करीब 30 वर्ष के एक सज्जन गुनगुनाने लगे. ध्यान से सुना तो गीत था सन 1964 में आई फिल्म 'दोस्ती' का 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे...'. वे अच्छा गा रहे थे, मैंने उनके गायन की तारीफ की और पूछा कि वे क्या प्रोफेशनल गायक हैं? वे हिन्दी नहीं जानते थे, टूटी-फूटी हिन्दी में बोले, नहीं शौकिया गाते हैं...बाथरूम में ही ज्यादा गाते हैं. उनसे पूछा कि यह किस फिल्म का गीत है? उन्होंने कहा कि नहीं पता. उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने यह फिल्म नहीं देखी. हालांकि उन्हें यह पता था कि यह गीत मोहम्मद रफी ने गाया है जिसे उन्होंने सिर्फ रेडियो पर सुना. यानी कि फिल्म जब आई, हिट हुई तब वे पैदा ही नहीं हुए थे. फिल्म हिन्दी में है और वे हिन्दी जानते नहीं. रेडियो पर सुना हुआ गीत उनके जेहन में बस गया...उसकी धुन उनके मन में बैठ गई...सुरों ने वह कमाल किया कि भाषा की सीमा समाप्त हो गई.... यही खास बात है हिन्दी सिनेमा संगीत की और खास तौर पर मोहम्मद रफी की।
मोहम्मद रफी किसी संगीत घराने से नहीं आए थे, न ही उनके परिवार में संगीत की कोई परंपरा थी. उनके पिता खानसामा थे और बड़े भाई की हजामत की दुकान थी. बचपन में एक फकीर के पीछे-पीछे इकतारा बजाते हुए गाते जाने पर डांट खा चुके मोहम्मद रफी के बारे में फकीर ने तभी भविष्यवाणी कर दी थी कि यह आगे जाकर विख्यात कलाकार बनेगा. बाद में उनके परिवार ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और संगीत की तालीम शुरू कराई. शास्त्रीय संगीत के दिग्गज उस्ताद बड़े गुलाम अली खां से भी उन्होंने गायकी की तालीम ली.
शास्त्रीय संगीत में निष्णात मोहम्मद रफी गायकी में कभी किसी सीमा में नहीं बंधे. उन्होंने जहां शुद्ध शास्त्रीय संगीत में निबद्ध रचनाएं गाईं तो गजल और भजन गाकर सुगम संगीत को भी अपनाया. फिल्म संगीत में भी वे अलग-अलग रंगों में रची गई रचनाओं को उनकी अपेक्षा के मुताबिक सुर देते रहे. मुझे याद है 31 अगस्त 1980 का वह दिन जब अचानक की मोहम्मद रफी दुनिया से रुखसत हो गए. उस दिन संगीत क्षेत्र के कलाकारों ने ही नहीं आम संगीत प्रेमियों ने भी महसूस किया कि जैसे उनका अपना कोई चला गया. संगीत प्रेमियों का अगाध प्यार पाने वाले रफी के निधन को 36 साल बीत गए लेकिन उनके गीतों की लोकप्रियता कम नहीं हुई. लोगों में उनके गीतों को लेकर एक तरह का नॉस्टाल्जिया देखने को मिलता है. अक्सर कम उम्र के युवा भी उनके गीत सुनते-गुनगुनाते मिल जाते हैं. वास्तव में रफी के सुर समय और भाषा की सीमा से परे हैं.
(सूर्यकांत पाठक एनडीटीवी में समाचार संपादक हैं)
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This Article is From Jul 31, 2016
मोहम्मद रफी : मन में बसे गीत भाषा और काल की सीमा से परे
Suryakant Pathak
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 01, 2016 22:04 pm IST
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Published On जुलाई 31, 2016 14:34 pm IST
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Last Updated On अगस्त 01, 2016 22:04 pm IST
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