इंडियन एक्सप्रेस में ख़बर छपी है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पार्टी में गुटबाज़ी रोकने के लिए जासूसों की एक टोली बनाई है। 403 लोगों की यह टोली अखिलेश यादव के निजी जासूस के तौर पर काम करेगी और सीधे अखिलेश को रिपोर्ट करेगी। ये ख़ुफ़िया अफ़सर यूपी के सभी 403 विधानसभाओं में तैनात किये जाएंगे। इनका काम होगा कि पार्टी और सरकार के बारे में फीडबैक इकट्ठा करना होगा। इस टीम का समाजवादी पार्टी से कोई लेना-देना नहीं होगा और यह पार्टी से स्वतंत्र होकर काम करेगी। आने वाले समय में हर विधानसभा में तीन-तीन सदस्य तैनात किए जाएंगे यानी मुख्यमंत्री के निजी मुख़बिरों की संख्या 1209 तक जा सकती है।
अख़बार के अनुसार इन्हें इंटेलिजेंस अफ़सर कहा जा रहा है। इंटेलिजेंस अफ़सर होने की कुछ शर्तें हैं। जैसे समाजवादी पार्टी में कोई पद नहीं होगा। समाजवादी पार्टी से सहानुभूति रखने वाला हो सकता है। पढ़ा लिखा हो और कंप्यटूर से लेकर मोबाइल एप्लिकेशन के संचालन में दक्ष हो। स्थानीय नेता से किसी तरह की रिश्तेदारी न हो। चुनाव के बाद इन्हें बकायदा ट्रेनिंग दी जाएगी और अखिलेश यादव के साथ इनकी मुलाकात कराई जाएगी। इनके फीडबैक के आधार पर अब उम्मीदवार तय किए जाएंगे। अखबार के मुताबिक अखिलेश यादव अगले चुनाव में 100 से ज़्यादा विधायकों के टिकट काट देना चाहते हैं। इंटेलिजेंस अफ़सर इस बात पर भी नज़र रखेंगे कि स्थानीय विधायक काम कर रहे हैं या नहीं, सरकार की योजनाओं का प्रचार कर रहे हैं या नहीं।
यह कोई सामान्य घटना नहीं है। लोकतंत्र में एक नागरिक का दायित्व है कि वो सिर्फ इसी पर नज़र न रखे कि सरकार कैसी चल रही है बल्कि उसके लिए यह बात समान रूप से महत्वपूर्ण होनी चाहिए कि कोई पार्टी कैसे चलती है। अगर लोकतंत्र में संस्थाओं को चलाने के लिए पार्टी सिस्टम ही सर्वमान्य ईकाई है तो पार्टी का लोकतांत्रिक होना बेहद ज़रूरी है। कोई भी सामान्य नागरिक इन्हीं पार्टी सिस्टम में सक्रिय होकर लोकतंत्र का प्रशिक्षण पाता है और एक दिन धीरे धीरे जनता का प्रतिनिधि बनता हुए सरकार का मुखिया या मुखिया का सहयोगी बनता है। देश और व्यवस्था को चलाने के लिए बनाई जाने वाली नीतियों के प्रति समझदारी उसकी इसी यात्रा के आधार पर बनती चली जाती है।
नेता का अपना इंटेलिजेंस अफसर होना बता रहा है कि आपको एक पार्टी में नेता के अनुसार ही चलना होगा। नेता ही पार्टी है। इसकी शुरुआत चुनावों के वक्त रणनीति बनाने वाले बाहरी मैनजरों के पार्टी में प्रवेश से हुई थी। पहले ये पार्टी के लिए आए और अब ये नेता के लिए आने लगे हैं। अलग अलग पार्टी में संसाधनों और काले धन से लैस कई नेताओं ने भी अपनी ऐसी टीम बनानी शुरू कर दी है। चुनाव के वक्त अमरीकी विश्वविद्यालयों से कई बेकार छात्र यहां बदलाव के नाम पर आते हैं और नेताओं को सफलता का मार्ग बताने के नाम पर उन सारे तरीकों से लैस कर जाते हैं जिससे किसी नेता के लिए पार्टी की ज़रूरत ही न रहे। इसी तरह का काम विज्ञापन और स्लोगन कंपनियों के रणनीतिकार भी करने लगे हैं।
पिछले लोकसभा में इस प्रक्रिया का परिपक्व रूप देखने को मिला था। प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर नरेंद्र मोदी के चयन में बीजेपी के अपने नेताओं से ज्यादा सोशल मीडिया और मीडिया की भागीदारी थी। जिसे खुद नरेंद्र मोदी ने संगठित रूप से संचालित किया। नमो फैन ने बाहर से पार्टी के भीतर दबाव डाला कि जो हमारा नेता बन चुका है आपको उसी को नेता चुनना है। उसके बाद कि सारी प्रक्रियाएं बाहर से आए इस दबाव के अनुकूल होती रहीं। प्रतिकूल शक्तियां तेज़ी से ढहती चली गईं। मैं नहीं कहता कि नरेंद्र मोदी योग्य उम्मीदवार नहीं थे बल्कि उनके चयन में इस प्रक्रिया को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।
लोकसभा चुनावों के दौरान कई जगहों पर मुझे लैपटाप युक्त युवाओं की टीम मिली। वे पूरे दिन पार्टी के उम्मीदवार के चुनावी कार्यालय से लेकर इलाके में घूमा करते थे देखने के लिए कि जनाब चुनाव ठीक से लड़ रहे हैं या नहीं। ऐसा ही बेहद प्रतिभाशाली युवाओं का एक दल मुझे मिला जो बीजेपी के उम्मीदवार का फीडबैक तैयार करने आया था। उनमें से कई नरेंद्र मोदी के प्रति समर्पित तो नहीं थे मगर वे इस काम को पेशेवर तरीके से कर रहे थे। उन युवाओं का दावा था कि एक एक जानकारी जमा कर वे सीधे अपनी केंद्रीय टीम को भेजते हैं और वहां से नरेंद्र मोदी तक पहुंच जाता है। मैं इसकी सच्चाई को सत्यापित नहीं कर सकता लेकिन फीडबैक जमा करने का यह तरीका काफी अनोखा लगा।
कई बार होता है कि उम्मीदवार टिकट लेकर बैठ जाता है या ठीक से चुनाव नहीं लड़ता है। चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी कार्यकर्ताओं से उसके संबंध बेहतर नहीं होते हैं। यह सब काफी जोखिम का काम हो सकता है क्योंकि इन वजहों से हारने के कारण नेता के भविष्य पर असर पड़ सकता था। इतना ही नहीं उस संसदीय क्षेत्र में नरेंद्र मोदी की रैली भी होने वाली थी जिसके लिए मुद्दों से लेकर फीडबैक तक तैयार कर उन्हें भेज दिया गया था। ये लड़के एक तरह से अपने निजी आडिटर की तरह भी काम कर रहे थे। इसकी शुरुआत भी कुछ चुनाव पहले से हो चुकी है। जब उम्मीदवार निजी तौर पर जासूस रखने लगे थे ताकि विरोधी खेमे की जानकारी मिल सके।
बचपन का एक किस्सा याद आता है जो किसी से सुना था कि एक सांसद थे जो कहते थे कि हम जितना चुनाव लड़े उतना फिक्स डिपाज़िट कर दिये। जब इंदिरा जी की लहर हुई तो जीत गए और लहर नहीं रही तो हार गए। पार्टी से जो पैसा मिला वो फिक्स डिपाज़िट कर दिये। बाद में ऐसे कई किस्सों से गुज़रा कि उम्मीदवार जानते हुए भी कि वहां से हारेगा पार्टी से इसलिए टिकट चाहता है क्योंकि टिकट मिलते ही पार्टी फंड और इलाके के पार्टी समर्थकों से काफी पैसा मिल जाता है। निश्चित रूप से ऐसे चुनावी कमाऊ उम्मीदवारों का किस्सा मैंने कांग्रेस में ज्यादा सुना है। बाद में यह बीमारी बीजेपी में भी घुस आई। जिसका उपाय नरेंद्र मोदी ने अपना सिस्टम तैयार कर खोज लिया।
पार्टी या नेता के लिहाज़ से देखें तो चुनाव जीतने के लिए सब अच्छा है लेकिन इस प्रक्रिया में क्या बदल रहा है उस पर नज़र रखनी चाहिए। एक पार्टी में नेता की अपनी इंटेलिजेंस अफसरों की टीम के मायने क्या हो सकते हैं। क्या उस नेता का अपनी पार्टी पर भरोसा नहीं रहा जिसका वो नेता है। हर नेता पार्टी पर नियंत्रण और निगरानी के इन गैर-राजनीतिक टोटकों का सहारा लेता हुआ नज़र आ रहा है। डेमोक्रेसी कोरियोक्रेसी में बदलती जा रही है। जिस तरह एक मंच पर कोरियोग्राफी से धड़कनें पैदा कर दी जाती हैं उसी तरह से राजनीति में भी अब नेता के लिए लहरें पैदा की जा रही हैं। नेता अब एक अवतार है जो आसमान से लांच होता है। इवेंट मैनेजमेंट कंपनियां ही अब असली राजनीतिक दल हैं।
राजनीतिक दलों का बुनियादी चरित्र तेज़ी से बदल रहा है। इस प्रक्रिया को समझने का प्रयास करना चाहिए। संगठन अब मुख्यालय तक सिमट कर रह गया है और मुख्यालय भी सत्ता में बैठे नेता का एक विस्तार यानी एक्सटेंशन काउंटर बनकर रह गया है। कार्यकर्ता की जगह फैन ने ले ली है जो सोशल मीडिया पर नेता के प्रति सक्रियता बनाए रखते हैं। कार्यकर्ता एक अलग किस्म का जैविक और सामाजिक प्राणी है जबकि फैन कृत्रिम हो सकता है और कुछ समय से लेकर लंबे समय तक के लिए हो सकता है।
पार्टी के भीतर की संस्थाएं ग़ैर ज़रूरी होती जा रही हैं। कई पार्टियों में संगठन के चुनाव बेमानी हो चुके हैं। पार्टी की कार्यकारिणियां ईवेंट कंपनी को ठेका देने का काउंटर बनकर रह गईं हैं। इंटेलिजेंस अफ़सर और आईटी सेल ही अब पार्टी होंगे जो एक नेता के लिए काम करेंगे। जहां विचारधारा की कोई जगह नहीं होगी। एक रणनीति होगी जो सामने वाले की ग़लती का तुरंत फायदा उठाने के लिए तैयार रहेगी। इस कोरियोक्रेसी में आपका स्वागत है।
This Article is From May 06, 2015
इंटेलिजेंस अफ़सरों के सहारे नेता करेंगे राजनीति!
Ravish Kumar
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Updated:मई 06, 2015 16:29 pm IST
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Published On मई 06, 2015 12:20 pm IST
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Last Updated On मई 06, 2015 16:29 pm IST
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