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जब फोन पर उधर से लता जी की मदहोश और सम्मोहित कर देने वाली आवाज़ आयी, तो मैं न जाने किस तन्द्रा में चला गया कि कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि सामान्य अभिवादन के बाद अब मैं उनसे क्या बोलूं? मेरी आवाज़ में बस इतना ही निकल सका ‘दीदी आप बेहद सुरीली हैं’. खनकती हुई प्रसन्न आवाज़ में बस इतना सा उत्तर मिला, जो मेरी मूर्खता पर विराम लगाने के लिए काफी था. उन्होंने कहा- ‘जी, मुझे मालूम है’. अब मैं निरुत्तर और हतोत्साहित कि क्या कहूं? मैंने भी कौन सी मूर्खता कर डाली है कि एक ऐसी पार्श्वगायिका को मैं सुरीलेपन का सर्टिफिकेट देने चला हूं, जिन्हें बड़े-बड़े दिग्गज संगीतकारों, पार्श्वगायक-गायिकाओं और शास्त्रीय संगीत के मूर्धन्य लोगों ने जाने कहां पहुंचा रखा है.
आज मुझे पक्का यकीन है कि उन्होंने मेरा असमंजस भांप लिया था और ऐसा कई मौकों पर उनके साथ जरूर होता रहा होगा कि उनका कोई प्रशंसक या पहली दफा मिलने वाला कलाकार अपनी सुध-बुध खो बैठता हो. उन्होंने मुझे संयत करते हुए अपनी बातचीत आगे बढ़ायी और इतनी आत्मीयता से बातचीत का सिरा जोड़ा कि मैं सहज होता चला गया. आज पीछे मुड़कर उनके साथ बने हुए इस रिश्ते को देखकर यह बात समझ में आती है कि बड़े लोग कैसे बेहद छोटे या उनके लिए महत्त्वहीन लोगों को भी वरीयता देते हुए उनसे संवाद स्थापित कर लेते हैं.
‘लता : सुर-गाथा’ बनने की कहानी भी इतनी ही दिलचस्प है कि कैसे लता जी ने उदारतापूर्वक बातचीत करना स्वीकार करके इस किताब को पूरा करने में सहयोग किया. साल 2009 में जब मैंने बात शुरु की थी, तो मुझे लगता था कि यदि बहुत हुआ, तो दीदी एक महीने तक बात करके मेरा इंटरव्यू पूरा करा देंगी. यह बहुत स्वाभाविक था और इतनी बड़ी पार्श्वगायिका से इतना समय भी मिल पाना किसी बड़ी उपलब्धि से कम न था. मगर देखते-देखते एक बड़ी घटना ने मेरे जीवन में आकार लिया. लता मंगेशकर मुझसे एक-दो दिन नहीं बल्कि लगातार छः वर्षों तक बात करती रहीं. यह बातचीत अकसर लगातार होती थी, तो कई बार इसमें कुछ दूसरे कारणों से कुछ दिनों का व्यवधान भी आता था....
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मगर एक बार जब दीदी बात करना शुरु कर देती थीं, तो मुझे लगता ही नहीं था कि सामने वाला व्यक्ति इतना महान कलाकार है. उन्होंने अपने दैनिक जीवन की व्यस्तताओं में मुझे शामिल किया, यह बात मेरे लिए बड़ा अर्थ रखती है. हम शाम सात बजे बात करते थे और हर दिन लगता था कि शायद दीदी आधे घंटे ही बात करेंगी. यह कम ही हुआ होगा कि कोई बातचीत इतनी कम अवधि की हुई हो. आज जब पीछे पलटकर मैं अपनी सारी रेकॉर्डिंग्स चेक करता हूं, तो मुझे लगता है कि अधिकतर बातचीत घंटों लम्बी विस्तार में हुईं हैं.
‘लता : सुर-गाथा’ को इतनी कामयाबी और पाठकों का प्यार मिला, जो मेरे लिए किसी पुरस्कार से बढ़कर इस बात की आश्वस्ति है कि लता जी की सांगीतिक यात्रा पर मैं कुछ ऐसा प्रामाणिक लिख और संजो सका, जिसे व्यापक समाज ने स्वीकृति दी है और सबसे बढ़कर यह बात कि किताब से भी अधिक मूल्य मेरे लिए इस बात का रहा है कि मैं लगातार छः-सात वर्षों तक लता जी के सम्पर्क में रहकर सिर्फ उनके बारे में ही नहीं, बल्कि हिन्दी फ़िल्म-संगीत दुनिया की नायाब कहानियों से रूबरू हो सका. इसके चलते मेरी तैयारी कुछ इस तरह की हो पायी कि मैं बदलते भारत के संस्कृति निर्माण की कथा भी कह पाया.
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आप यदि गौर करें, तो पायेंगे कि हमारे देश की स्वाधीनता की कहानी जितनी पुरानी है, लता जी की सांगीतिक यात्रा भी उतनी ही पुरानी है और साथ-साथ चली है. 15 अगस्त, 1947 को जहां देश आज़ाद हुआ, वहीं दत्ता डावजेकर के संगीत-निर्देशन में पहली बार लता मंगेशकर ‘आपकी सेवा में’ फ़िल्म के लिए अपने करियर का पहला गीत ‘पा लागूं कर जोरी’ साल 1947 में ही गा रही हैं. यह बात जितनी ऐतिहासिक है, उतनी ही सामाजिक, राजनीतिक बदलावों के तहत फ़िल्म संगीत के हवाले से महत्त्वपूर्ण भी.
‘लता : सुर-गाथा’ की यात्रा में बीच-बीच में तब विराम लगता था, जब दुनिया में कहीं क्रिकेट हो रहा होता था. दीदी हर दिन बड़े प्यार से बात करती थीं, मगर क्रिकेट होने पर वे बड़े मनुहार से एक दिन पहले बता देती थीं कि "यतीन्द्र जी कल से आई.पी.एल. शुरु हो रहा है और मुझे मैच देखने हैं." आप मैच खत्म हो जाये, तब बात करें." इसके बाद इंतजार के अलावा मेरे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं होता था. अगर किसी दिन सचिन तेंदुलकर खेल रहे हैं और भारत हार गया है, तो समझिए कि बातचीत हफ्तों तक टलने वाली है क्योंकि हमारी सबकी आदरणीय लता जी का मन खराब हो जायेगा. मुझे याद नहीं पड़ता कि भारत के कोई भी मैच हारने के दुःख से बड़ा दुःख मनाते मैंने दीदी को जल्दी देखा हो.
देश पर आये किसी संकट को लेकर भी वे अत्यंत असहज और दुःखी हो जाती हैं. कहीं भी कोई अत्याचार या ऐसी दारुण घटना हो गयी हो, जिसकी चर्चा मीडिया और सामाजिक स्तर पर हो रही हो, तो उसकी चर्चा बेहद संजीदगी से आपसे लता जी करेंगी. मगर क्रिकेट हार जायें, तो वे इतनी दुःखी हो जाती हैं कि उन्हें सामान्य होने में भी कुछ वक्त लगता है. फिर आपसे दोबारा उसी उत्साह से संवाद की शक्ल में लौटने में उन्हें कई दिन लग सकते हैं.
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ऐसे में इन छः-सात वर्षों में मुझे बड़ी दिक्कत होती थी, जब मुझे मालूम होता था कि भारत फलां मैच हार गया है या कि सचिन तेंदुलकर का प्रदर्शन आशा के अनुसार बेहतर नहीं रहा. ऐसे में, मैं यह अंदाज़ लगा लेता था कि अब ‘प्रभुकुंज’ के दरवाजे तो कम से कम हफ्ते या दस-पन्द्रह दिनों बाद ही खटखटाने हैं. लता जी का क्रिकेट प्रेम मुझे उनमें सबसे अद्भुत मोह की तरह लगता है. मतलब वे रोज मीराबाई के भजन सुनती हैं. दुःखी और अवसादग्रस्त होने पर उस्ताद अमीर ख़ां साहब का ख्याल सुनती हैं. मीर, मोमिन, गालिब, जौक़ और दाग़ को सुनना उनकी दिनचर्या का हिस्सा है और मंगेशकर परिवार की नयी पीढ़ी के साथ व्यस्त रहना, उनके जीवन का अभिन्न अंग है.
ऐसे में कभी भी मुझे कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि सहयोग ही मिला और भरपूर प्यार व मेरे दस्तावेज़ बनाने के काम को समर्थन. यह क्रिकेट ही था, जो ‘लता : सुर-गाथा’ में एक विवादी स्वर की तरह सामने आ जाता था. हर बार दीदी जब क्रिकेट के मोह से निकलकर कई दिनों के अन्तराल के बाद बतियाती थीं, तो उनकी आवाज़ में वो खुशी भी शामिल रहती थी कि कैसे पिछला मैच बड़े शानदार ढंग से भारत जीत गया है. फिर एस.डी. बर्मन की बात के बीच में बड़े आराम से महेन्द्र सिंह धोनी चले आते थे. लता जी के साथ उनके मनोजगत की यात्रा, एक तरह से वामन के डग भरने की यात्रा सरीखी रही है. एक चरण आगे बढ़ाने पर एक लोक नाप देने का जो मिथक वामन के साथ जुड़ा है, वही बात लता जी पर भी लागू होती है. उनसे एक प्रश्न करते हुए मैं हिन्दी सिनेमा की दुनिया के उन ढेरों पहलुओं के बारे में सन्दर्भों सहित जान पाता था, जो ख़ुद में एक जीवन्त दस्तावेज़ से कम नहीं हैं.
आज ‘लता : सुर-गाथा’ की यात्रा को एक साल पूरा होने जा रहा है और लता जी के जीवन के अट्ठासी वसन्त. लता जी की इस गरिमामय छतनार सी उम्र में उनकी आवाज़ के लिए बस यही कहने का मन होता है, जो उन्होंने स्वयं सायरा बानो के लिए फ़िल्म ‘आई मिलन की बेला’ के लिए गाया था. यह मुखड़ा दरअसल उनकी आवाज़ के लिए ही, जैसे हसरत जयपुरी ने लिखा हो-
मैं कमसिन हूं नादां हूं नाजुक हूं भोली हूं
थाम लो मुझे कि मैं यहीं इल्तज़ा करूं.