सुशील महापात्रा की कलम से : सैंडविच पत्रकारिता का दौर

सुशील महापात्रा की कलम से : सैंडविच पत्रकारिता का दौर

नई दिल्ली:

आपने  कभी किसी परी की कहानी सुनी है। अगर नहीं सुनी है तो अपना दिल थाम लीजिए और टीवी आन कर लीजिए। अब न्यूज चैनल देखिए, आपके सामने परी  की कहानी के साथ-साथ परी की उड़ान भी आएगी। "पिंजरे में परी", "विष परी",  कई ऐसी कहानियां आपको नजर आएंगी जिनको देखकर आपकी दिल की धड़कन बढ़ जाएगी। "इन्द्राणी का इंद्रजाल", "इंद्राणी की अनसुनी कहानी", "इंद्राणी एक पहेली", "इंद्राणी के दस राज" और ''इंद्राणी ने खाया सैंडविच'' वगैरह... वगैरह..।

पिछले दो-तीन दिनों से  न्यूज़ चैनलों पर इंद्राणी मुखर्जी की खबर छाई हुई है। ऐसा दिखाया जा रहा है जैसी इंद्राणी ने कोई बहुत बड़ा काम कर दिया है और उसका नाम इतिहास में दर्ज होने वाला है। ऐसा लगता है कि इंद्राणी ने अपने इंद्रजाल में इन चैनलों को जकड़ लिया है। अगर इस खबर को आप गंभीरता से देखने लगेंगे तो खुद गंभीर हो जाएंगे, यह सोचने के लिए न्यूज़ फ्यूज तो नहीं हो रही है ? मैं यह नहीं कहता कि इंद्राणी मुखर्जी का मामला खबर नहीं है, लेकिन इस खबर को जिस ढंग से दिखाया जा रहा है, वह गलत है। बदल-बदल कर एक खबर को बार-बार दिखाना खबर के महत्त्व को कम देता है। वैसे भी किसी भी व्यक्ति की  निजी जिंदगी को इस तरह पेश करना गलत है। सबसे दुःख की बात यही है कि शीना बोरा, जिसका मर्डर हो चुका है, उसके चरित्र को लेकर सवाल उठाना।  इंद्राणी ने अगर मर्डर किया है तो कानून उसे सजा जरूर देगा।  मीडिया को इस खबर पर भी नजर रखना चाहिए, लेकिन किसी भी केस का मीडिया ट्राइल नहीं होना चाहिए।

मीडिया के कवरेज में काफी बदलाव आया है। कई बार ऐसा लगता है कि मीडिया व्यक्ति-केंद्रित हो चुका है। कुछ नाटकीयता और अतिरंजना के साथ कार्यक्रम परोसकर दर्शकों को लुभाने की कोशिश की जा रही है। आजकल न्यूज चैनलों में यह रोज की कहानी है। राधे माँ से लेकर आशाराम  तक सब अपने असर चैनलों पर छोड़ गए हैं। मीडिया के इस रूप को देखकर ऐसा लग रहा हा कि मीडिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से भाग रहा है। इस तरह की खबर सामाजिक खबर पर भारी पड़ने लगी है। मीडिया की पहुंच में विस्तार तो जरूर हुआ है लेकिन इस विस्तार के भविष्य पर सवाल उठने लगा है। सहर की समस्या से मीडिया अवगत तो है लेकिन गांवों की समस्याओं से अछूता नजर आ रहा है।

इस सबके लिए सिर्फ न्यूज चैनलों को जिम्मेदार मानना गलत होगा। हमारा दर्शक बदल गया है, उसका स्वाद भी बदल गया है। संजीदा  न्यूज देख देखकर वह बोर हो गया है। अब उसको न्यूज के साथ -साथ मनोरंजन भी चाहिए और न्यूज़ चैनल मनोरंजन के केंद्र बनते जा रहे हैं। जो ज्यादा संजीदा न्यूज दिखा रहा है वह रेटिंग में नीचे जा रहा है, उसकी टीआरपी कम आ रही है। टीआरपी के टेंशन ने न्यूज की परिभाषा बदल दी है। ऐसा लगता है टीआरपी का मतलब  "टेलीविजन रेटिंग पॉइंट" नहीं बल्कि "टेंशन रेटिंग पॉइंट" है।  टीआरपी की टेंशन ने एक मजबूत न्यूज चैनल को भी मजबूर कर रहा है, ऐसी खबरें दिखाने के लिए, लेकिन सबको जिम्मेदार मानना गलत है। आज भी ऐसे कई चैनल हैं जो अपने उसूलों पर डटे हुए हैं। वह न्यूज को गंभीरता को देखते हुए ही उसे दिखा रहे हैं।

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मैं यह नहीं कहता कि मीडिया अच्छा काम नहीं कर रहा है, मीडिया की वजह से कई पहलू भी सुलझे हैं। मीडिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को समझते हुए समाज की समस्याओं को भी उठाता रहता है, लेकिन मीडिया को व्यक्ति केंद्रित नहीं होना चाहिए। एक ऐसी खबर के लिए दूसरी महत्वपूर्ण खबरों को गंभीरता से न लेना गलत है। एक खबर को इतना और ऐसा नहीं दिखाना चाहिए कि दिखाने वाला खुद खबर में आ जाए। दूसरी तरफ दिखने वाला दुखी हो जाए।